भारतीय इतिहास में महिलाओं की भूमिका ( Role of women in Indian history)

Posted on March 20th, 2020 | Create PDF File

ऐतिहासिक संदर्भों में देखें तो हम पाते हैं कि वैदिक काल में महिलाओं को अध्ययन का अवसर मिलता था और उन्हें कई प्रकार के अधिकार प्राप्त थे। प्राचीन भारत के अध्ययन से जुड़े विद्वानों का मानना है कि
उस काल में महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरूषों के साथ बराबरी का दर्जा हासिल था। पतंजलि और कात्यायन जैसे प्राचीन भारतीय व्याकरणविदों का कहना है कि वैदिक काल में महिलाओं को शिक्षा दी जाती थी। ऋग्वैदिक ऋचाएँ यह बताती हैं कि महिलाओं को शादी एक परिपक्व उम्र में होती थी और संभवत: उन्हें अपना पति चुनने की भी स्वतंत्रता थी। ऋग्वेद और उपनिपद जैसे ग्रंथ कई महिला साध्वियों और संतों के बारे में बताते हैं जिनमें गार्गी और मैत्रेयी के नाम उल्लेखनीय हैं। अध्ययनों के अनुसार वैदिक काल में महिलाओं को बराबरी का दर्ज़ा और अधिकार मिलता था। हालाँकि बाद में लगभग 500 ईसा पूर्व (विशेषकर मनुस्मृतिकाल) में महिलाओं की स्थिति में गिरावट आनी शुरू हो गई। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि विदेशी आक्रांताओं की वजह से भी महिलाओं की स्वतंत्रता और अधिकारों में गिरावट आई और भारत के कुछ समुदायों में सती प्रथा, बाल विवाह और विधवा होने पर विधवा के रूप में ही पूरा जीवन व्यतीत करना आदि सामाजिक जीवन का एक हिस्सा बन गई थी। राजस्थान के राजपूतों में जौहर की प्रथा थी। भारत के कुछ हिस्सों में देवदासियों या मंदिरों की महिलाओं को यौन शोषण का शिकार होना पड़ता था। बहुविवाह की प्रथा हिन्दू क्षत्रिय शासकों में व्यापक रूप से प्रचलित थी।

 

इन परिस्थतियों के बावजूद भी कुछ महिलाओं ने राजनीति, साहित्य, शिक्षा और धर्म के क्षेत्रों में सफलता हासिल की। रज़िया सुल्तान दिल्‍ली पर शासन करने वाली एकमात्र महिला सम्राज्ञी बनीं। गोंड की महारानी दुर्गावती ने 1564 में मुगल सम्राट अकबर के सेनापति आसफ खान से लड़कर अपनी जान गँवाने से पहले पंद्रह वर्षों तक शासन किया था। चाँद बीबी ने 1590 के दशक में अकबर की शक्तिशाली मुगल सेना के खिलाफ अहमदनगर की रक्षा की। जहाँगीर की पत्नी नूरजहाँ ने राजशाही शक्ति का प्रभावशाली ढंग से इस्तेमाल किया और मुगल राजगद्‌दी की वास्तविक शक्ति के रूप में पहचान हासिल की। मराठा योद्धा शिवाजी की माँ जीजाबाई को एक योद्धा और एक प्रशासक के रूप में उनकी क्षमता के कारण सम्मान दिया जाता है। दक्षिण भारत में कई महिलाओं ने गाँवों शहरों और जिलों पर शासन किया तथा सामाजिक एवं धार्मिक संस्थानों की शुरूआत की।

 

मध्यकाल में कई महिला संत भी हुईं जिनमें मीराबाई और सूफी लाल देद भक्ति आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण चेहरों में से एक थीं। कर्नाटक में कित्तूर रियासत की रानी चेन्नम्मा ने अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व किया। तटीय कर्नाटक की महारानी अब्बक्का रानी ने 46वीं सदी में हमलावर यूरोपीय सेनाओं, उल्लेखनीय रूप से पुर्तगाली सेना के खिलाफ सुरक्षा का नेतृत्व किया। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के खिलाफ 1857 के विद्रोह का झंडा बुलंद किया। आज उन्हें एक राष्ठीय नायिका के रूप में माना जाता है। अवध की सह-शासिका बेगम हज़रत महल एक अन्य शासिका थी जिसने 1857 के विद्रोह का नेतृत्व किया था। उन्होंने अंग्रेजों के साथ सौदेबाजी से इनकार कर दिया और बाद में नेपाल चली गईं। भोपाल की बेगमें भी इस अवधि की कुछ उल्लेखनीय महिला शासिकाओं में शामिल थीं। उन्होंने पर्दा प्रथा को नहीं अपनाया और मार्शल आर्ट का प्रशिक्षण भी लिया।

 

अंग्रेज़ी शासन के दौरान सावित्रीबाई फुले, ताराबाई शिंदे, पंडिता रमाबाई आदि ने महिला सशक्तीकरण के उद्देश्य को हासिल करने में मदद की। चंद्रमुखी बसु. कादंबिनी गांगुली और आनंदी गोपाल जोशी कुछ
शुरूआती भारतीय महिलाओं में शामिल थीं जिन्होंने शैक्षणिक डिग्रियाँ हासिल कीं। भारत की आजादी के संघर्ष में महिलाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मैडम भीकाजी कामा एनी बेसेंट, प्रतिलता वाडेकर, विजयालक्ष्मी पंडित, राजकुमारी अमृत कौर, मुथुलक्ष्मी रेड्डी, दुर्गाबाई देशमुख, अरूणा आसफ अली, सुचेता कृपलानी और कस्तूरबा गांधी कुछ प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानियों में शामिल हैं। सुभाष चंद्र बोस की इंडियन नेशनल आर्मी की झाँसी की रानी रेजीमेंट में कैप्टन लक्ष्मी सहगल के नेतृत्व में एक महिला बटालियन ही मौजूद थी।