भारतीय राजनीति में महिलाओं की भूमिका (Role of women in Indian politics)

Posted on March 20th, 2020 | Create PDF File

राजनीति में महिलाओं की भूमिका के परिप्रेक्ष्य में स्त्री के बतौर शासक होने के प्रमाण हमें क्षेत्रीय सत्ताओं में ही मिलते हैं लेकिन केंद्रीय सत्ता में पहली दमदार उपस्थिति हमें गुलाम वंश की शासिका रजिया सुल्तान में मिलती है जिसे उसके पिता इल्तुतमिश ने योग्य पुरूष उत्तराधिकारी नहीं मिलने के कारण राजगद्दी सौंप दी थी। रजिया के बाद सदियों तक भारत का केंद्रीय शासन किसी महिला को नहीं मिला और न ही उसे कोई उच्च पद प्रदान किया गया । कुछ महिलाओं जैसे अकबर की धाय माँ माहम अनगा, जहाँगीर की पत्नी नूरजहाँ और शाहजहाँ की दो बेटियों जहाँआरा और रोशनआरा, आदि का राजनीतिक दबदबा अवश्य रहा लेकिन उनके पास कोई शासकीय पद नहीं था और वे पुत्र, पत्नी और पुत्री की प्रस्थितियों के कारण राजनीति में सक्रिय रहीं। ब्रिटिशकाल में सन्‌ 1917 में महिलाओं के एक प्रतिनिधिमंडल ने महिलाओं के राजनीतिक अधिकारों के मांग के लिए भारत विषयक सचिव से मुलाकात की जिसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थन हासिल था। इनके अतिरिक्त आजादी की लड़ाई में सक्रिय कांग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्षता भारतीय महिलाओं सरोजिनी नायडू (1925) और नेल्ली सेन गुप्ता (1933) ने किया। भारतीय राजनीति में पहला बड़ा नाम इंदिरा गांधी का है जिन्होंने बतौर देश की पहली महिला प्रधानमंत्री के रूप में देश के लोगों पर गहरी छाप छोड़ी। उनके बाद से महिलाओं का एक बड़ा तबका राजनीति में सक्रिय हो गया। आज देश के पास महिला मुख्यमंत्रियों की लंबी सूची हैं और उनमें से कई ने कई बार प्रदेश की बागडोर भी संभाली है। देश के प्रमुख राजनीतिक दलों के शीर्ष पदों पर महिलाएँ आसीन हैं। देश की पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल सन्‌ 2007 में बनीं।

 

लेकिन राजनीति में महिलाओं की भूमिका का दूसरा पहलू भी है। भारतीय महिलाओं द्वारा इतनी उच्च उपलब्धियों हासिल करने के बाद भी महिलाओं का शासन एवं नीति-निर्माण प्रक्रिया में बहुत कम योगदान
रहता है। उन्हें महत्वपूर्ण राजनीतिक फैसलों से दूर रखा जाता है और प्रायः उनके विचार जानने और यहाँ तक कि उनकी सहमति लेने का भी प्रयास नहीं किया जाता। महिलाओं के पद पर आसीन होने के बावजूद उनके राजनीतिक फैसलों के पीछे उनके पिता, पुत्र या पति की बड़ी भूमिका होती है। भारतीय संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के माध्यम से महिलाओं को स्थानीय निकायों में आरक्षण दिया गया। कई राज्यों में यह सीमा अभी भी 33 प्रतिशत रखी गई है जबकि उनकी आबादी तकरीबन 50 प्रतिशत है। बिहार सहित कुछ ही राज्यों ने इस आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत रखी है।

 

पहली लोकसभा (1952) के लिए हुए चुनावों में महिलाओं का प्रतिशत केवल पाँच फीसदी था जबकि पंद्रहवीं लोकसभा (2009) में यह प्रतिशत बढ़ कर 10.9 हो गया। पहली लोकसभा की 499 सीटों में से केवल 22 पर ही महिलाएँ चुनी गईं। पंद्रहवीं लोकसभा तक आते-आते कूल 543 सीटों में से चुनी गई महिलाओं की संख्या 59 हो गई। राज्यसभा के आँकड़ों को देखें तो पहली राज्य सभा (1952) में महिलाओं का कुल प्रतिशत 7.38 था जबकि 2009 में यह प्रतिशत बढ़कर 40.26 तक पहुँच गया। महिला के लिए संसद में आरक्षण का मुद्दा अभी भी विवाद का विषय बना हुआ है।

 

राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में चिंताजनक बात यद्ठ है कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के बावजूद भारत में महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व अपने पड़ोसी देश नेपाल और बंगलादेश की तुलना में कम है।