भारत में महिलाओं की भूमिका (Role of women in India )

Posted on March 20th, 2020 | Create PDF File

प्राचीन काल से लेकर वर्तमान समय तक भारत में महिलाओं की भूमिका का इतिहास काफी गतिशील रहा है। दूसरे शब्दों में, समय के साथ महिलाओं की भूमिकाओं ने कई बड़े बदलावों का सामना किया है। एक
समय था जब भारतीय महिलाओं की भूमिका सिर्फ घर की चारदीवारी तक सीमित थी, वहीं आज उनकी भूमिकाओं ने घर की चारदीवारी को तोड़ते हुए उन्हें अंतरिक्ष में पहुँचा दिया है।

 

पिछले कुछ सालों में महिलाएँ कई क्षेत्रों में आगे आयी हैं। उनमें नया आत्मविश्वास पैदा हुआ है और वे अब हर काम को चुनौती के रूप में स्वीकार करने लगी हैं। अब महिलाएँ सिर्फ चूल्हे-चौके तक ही सीमित नहीं रह गई हैं या फिर नर्स, एयर होस्टेस या रिसेप्शनिस्ट ही नहीं रह गई हैं बल्कि उन्होंने हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा दी है। अब हर वैसा क्षेत्र जहाँ पहले केवल पुरुषों का ही वर्चस्व था, वहाँ स्त्रियों को काम
करते देखकर हमें आश्चर्य नहीं होता है। महिलाओं को काम करते देखना हमारे लिए अब आम बात हो गई है। महिलाओं में इतना आत्मविश्वास पैदा हो गया है कि वे अब किसी भी विषय पर बेझिझक बात करती हैं।कहने का तात्पर्य यह है कि अब कोई भी क्षेत्र महिलाओं से अछूता नहीं रहा है।

 

आज भारत में महिलाएँ उस दिशा में अनुगमन कर रही हैं, जिसे पाश्चात्य देशों की महिलाओं ने 80 वर्ष पहले अपनाया था अर्थात्‌ समान मानव की तरह व्यवहार करने की मांग। जैसे-जैसे क्रांति पुरानी हुई, यह और अधिक स्पष्ट हो गया कि भारतीय महिलाएँ अपनी बेहद पारंपरिक और धार्मिक संस्कृति के बावजूद पश्चिमी नारीवाद के प्रति अनुकूलित हो सकती है। यद्यपि भारतीय समाज की जटिलताओं के कारण भारत में महिलाओं का विकास उनकी पाश्चात्य समकक्षों की तुलना में पूर्णतः परिवर्तित संदर्भ में हुआ लेकिन मुख्य लक्ष्य समान हैं: समाज, कार्यस्थलों, विद्यालयों तथा घर में पुरूष और महिला में समानता के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार, शिक्षा और रोजगार के अवसर। पुरूषों के समकक्ष स्वतंत्र धरातल पाने के लिए महिलाओं की आकुलता स्पष्ट देखी जा सकती है।

 

भारतीय महिलाओं के समक्ष जाति प्रथा, धार्मिक परम्पराओं, प्राचीन प्रचलित भूमिकाओं जैसी अन्य चुनौतियाँ तो हैं ही, साथ ही उसे पहले से अधिक मजबूत भारतीय समाज के पुरूष सतात्मक ताने-बाने से भी लोहा लेना है। एक समय था जब यह स्थिति स्वीकार्य थी, लेकिन पाश्चात्य महिला क्रांति तथा अनुभूति के पश्चात्‌ समानता के अधिकार की वकालत करने वाले राष्ट्रीय तथा वैश्विक स्तर के संगठनों तथा महिलाओं के स्वतंत्र समूहों के योगदान से महिलाओं की भूमिका में धीरे-धीरे विकास के लक्ष्य परिलक्षित हो रहे हैं। इन सभी का योगदान सराहनीय है: लेकिन अभी भी काफी कुछ करना शेष है, जिसके लिए पुरूषों को अपना पूरा सहयोग देना होगा। अब वे महिलाएँ नहीं हैं जो स्वयं पर हुए अत्याचारों और असुरक्षा का वर्णन करने वाली पुस्तकों की रचना करती थी, आज की भारतीय नारी की रचनाओं को पुलित्ज़र पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है, जो आकांक्षी पुरुष लेखकों को यह बताने के लिए पर्याप्त है कि कितनी प्रतिभाशाली तथा क्षमतावान हैं।

 

भारतीय समाज आज कल्पना चावला, सानिया मिर्जा, साचना नेहवाल, बरखा दत्त, शबाना आज़मी इत्यादि जैसी आज के भारत की असाधघरण महिलाओं को लेकर गौरवान्वित महसूस करता है। निश्चित ही एक ऐसे समाज में जहाँ एक समय महिला का शिक्षित होना आश्चर्य की दृष्टि से देखा जाता था, यह आश्चर्य जैसा ही प्रतीत होता है कि आज विद्यालयों में शिक्षा देने का अधिकांश दायित्व महिलाएँ ही उठा रही हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त कर मह्दविद्यालयों में प्राष्यापक होने वाली महिलाओं की संख्या भी कम नहीं है। महिलाओं ने व्यक्तिगत स्तर पर जो यह उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं, उसने लोगों का ध्यान आकर्षित किया है और आज महिलाएँ कई क्षेत्रों में पुरूषों की तुलना में बेहतर कार्य करने वाली मानी जाती है।

 

इन सभी उपलब्धियों के अलावा आज महिलाओं के सामने अनेक ऐसे अवसर उपलब्ध हैं जो एक समय उनके लिए स्वप्न जैसे थे। एक समय की वह गहरी अंधेरी सुरंग आज अवसरों, उपलब्धियों और समानता के प्रकाश की ओर ले जाने वाली राह बन गई है। भारत में महिलाओं का भविष्य उज्जवल और सुरक्षित प्रतीत होता है और उनकी भूमिका पत्नी, माँ, पुत्री तक ही सीमित न रहकर बहुत विस्तृत हो गई है।