समाज और सामाजिक विकास (Society and social development)
Posted on March 19th, 2020
समाज एक से अधिक लोगों का समूह (Group) है जिसमें सभी मानवीय क्रियाकलाप संपन्न होते हैं। मानवीय क्रियाकलापों से आशय आचरण, सामाजिक सुरक्षा, निर्वाह आदि क्रियाओं से है। दूसरे शब्दों में, समाज मानवीय अंतःक्रियाओं (Interaction) के प्रकम की एक प्रणाली है।
मानव की कुछ नैसर्गिक तथा अर्जित आवश्यकताएं, जैसे-काम, सुरक्षा आदि होती हैं पर वह इनकी पूर्ति स्वयं करने में सक्षम नहीं होता। इन आवश्यकताओं की सम्यक संतुष्टि के लिए लंबे समय में मनुष्य ने एक समष्टिगत व्यवस्था (Holistic system) को विकसित किया है जिसे समाज कहा गया है। यह व्यक्तियों का ऐसा संकलन है जिसमें वे निश्चित संबंध और विशिष्ट व्यवहार द्वारा एक-दूसरे से बंधे होते हैं। समाज, व्यक्तियों की वह संगठित व्यवस्था भी है जहाँ विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न मानदंडों (Norms) की विकसित किए जाते हैं और कुछ व्यवहारों को स्वीकार्य और कुछ को निषिद्ध किया जाता है।
समाज में विभिन्न कर्ताओं का समावेश होता है जिनमें परस्पर अंतःक्रिया (Interaction) होती है। प्रत्येक कर्ता अधिकतम संतुष्टि की ओर उन्मुख होता है। इसी अंतःक्रिया की मदद से समाज के अस्तित्व को अक्षुण्य बनाया जाता है। अंतःक्रिया की प्रक्रिया को संयोजक तत्व संतुलित करते हैं तथा वियोजक तत्व सामाजिक संतुलन में व्यवधान उत्पन्न करते हैं। वियोजक तत्वों के नियंत्रण हेतु संस्थाकरण द्वारा कर्ताओं के संबंधों तथा क्रियाओं का समायोजन होता है जिससे पारस्परिक सहयोग में वृद्धि होती है और अंतर्विरोधों का शमन होता है। सामाजिक प्रणाली में व्यक्ति को कार्य और पद तथा दंड और पुरस्कार, सामान्य नियमों और स्वीकृत मानदंडों के आधार पर प्रदान किए जाते हैं। सामाजिक दंड के इसी भय से सामान्यतः: व्यक्ति समाज में प्रचलित मान्य परंपराओं की उपेक्षा नहीं कर पाता और वह उनसे समायोजन का हर संभव प्रयास करता है।
चूंकि समाज व्यक्तियों के पारस्परिक संबंधों की एक व्यवस्था है इसलिए इसका कोई मूर्त स्वरूप नहीं होता। इसकी अवधारणा अनुभूतिमूलक है। समाज में पारस्परिक सहयोग एवं संबंधों का आधार सामूहिक आचरण है जो समाज द्वारा निर्धारित और निर्देशित होता है। समाज में सामाजिक मान्यताओं के संबंध में सहमति अनिवार्य होती है। यह सहमति पारस्परिक विमर्श तथा सामाजिक प्रतीकों को स्वीकारने पर आधारित होती है। असहमति की स्थिति संघर्षों को जन्म देती है जो समाज के विघटन का कारण बनती है। यह असहमति उस स्थिति में पैदा होती है। असहमति की स्थिति संघर्षों को जन्म देती है जो समाज के विघटन का कारण बनती है। यह असह्ठमति उस स्थिति में पैदा होती है जब व्यक्ति सामूहिकता के साथ पहचान बनाने में असफल रहता है। समाज और उसके सामाजिक संगठन का स्वरूप कभी शाश्वत नहीं बना रहता। मानव मन और समूह मन की गतिशीलता उसे निरंतर प्रभावित करती रहती है जिसके परिणामस्वरूप समाज परिवर्तनशील होता है। उसकी यह् गतिशीलता डी उसके विकास का मूल है। सामाजिक विकास परिवर्तन की एक चिरंतन प्रक्रिया है जो सदस्यों की आकांक्षाओं और पुनर्निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में उन्मुख रहती है।
समाज और सामाजिक विकास (Society and social development)
समाज एक से अधिक लोगों का समूह (Group) है जिसमें सभी मानवीय क्रियाकलाप संपन्न होते हैं। मानवीय क्रियाकलापों से आशय आचरण, सामाजिक सुरक्षा, निर्वाह आदि क्रियाओं से है। दूसरे शब्दों में, समाज मानवीय अंतःक्रियाओं (Interaction) के प्रकम की एक प्रणाली है।
मानव की कुछ नैसर्गिक तथा अर्जित आवश्यकताएं, जैसे-काम, सुरक्षा आदि होती हैं पर वह इनकी पूर्ति स्वयं करने में सक्षम नहीं होता। इन आवश्यकताओं की सम्यक संतुष्टि के लिए लंबे समय में मनुष्य ने एक समष्टिगत व्यवस्था (Holistic system) को विकसित किया है जिसे समाज कहा गया है। यह व्यक्तियों का ऐसा संकलन है जिसमें वे निश्चित संबंध और विशिष्ट व्यवहार द्वारा एक-दूसरे से बंधे होते हैं। समाज, व्यक्तियों की वह संगठित व्यवस्था भी है जहाँ विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न मानदंडों (Norms) की विकसित किए जाते हैं और कुछ व्यवहारों को स्वीकार्य और कुछ को निषिद्ध किया जाता है।
समाज में विभिन्न कर्ताओं का समावेश होता है जिनमें परस्पर अंतःक्रिया (Interaction) होती है। प्रत्येक कर्ता अधिकतम संतुष्टि की ओर उन्मुख होता है। इसी अंतःक्रिया की मदद से समाज के अस्तित्व को अक्षुण्य बनाया जाता है। अंतःक्रिया की प्रक्रिया को संयोजक तत्व संतुलित करते हैं तथा वियोजक तत्व सामाजिक संतुलन में व्यवधान उत्पन्न करते हैं। वियोजक तत्वों के नियंत्रण हेतु संस्थाकरण द्वारा कर्ताओं के संबंधों तथा क्रियाओं का समायोजन होता है जिससे पारस्परिक सहयोग में वृद्धि होती है और अंतर्विरोधों का शमन होता है। सामाजिक प्रणाली में व्यक्ति को कार्य और पद तथा दंड और पुरस्कार, सामान्य नियमों और स्वीकृत मानदंडों के आधार पर प्रदान किए जाते हैं। सामाजिक दंड के इसी भय से सामान्यतः: व्यक्ति समाज में प्रचलित मान्य परंपराओं की उपेक्षा नहीं कर पाता और वह उनसे समायोजन का हर संभव प्रयास करता है।
चूंकि समाज व्यक्तियों के पारस्परिक संबंधों की एक व्यवस्था है इसलिए इसका कोई मूर्त स्वरूप नहीं होता। इसकी अवधारणा अनुभूतिमूलक है। समाज में पारस्परिक सहयोग एवं संबंधों का आधार सामूहिक आचरण है जो समाज द्वारा निर्धारित और निर्देशित होता है। समाज में सामाजिक मान्यताओं के संबंध में सहमति अनिवार्य होती है। यह सहमति पारस्परिक विमर्श तथा सामाजिक प्रतीकों को स्वीकारने पर आधारित होती है। असहमति की स्थिति संघर्षों को जन्म देती है जो समाज के विघटन का कारण बनती है। यह असहमति उस स्थिति में पैदा होती है। असहमति की स्थिति संघर्षों को जन्म देती है जो समाज के विघटन का कारण बनती है। यह असह्ठमति उस स्थिति में पैदा होती है जब व्यक्ति सामूहिकता के साथ पहचान बनाने में असफल रहता है। समाज और उसके सामाजिक संगठन का स्वरूप कभी शाश्वत नहीं बना रहता। मानव मन और समूह मन की गतिशीलता उसे निरंतर प्रभावित करती रहती है जिसके परिणामस्वरूप समाज परिवर्तनशील होता है। उसकी यह् गतिशीलता डी उसके विकास का मूल है। सामाजिक विकास परिवर्तन की एक चिरंतन प्रक्रिया है जो सदस्यों की आकांक्षाओं और पुनर्निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में उन्मुख रहती है।