सूचना का अधिकार बनाम राजनीतिक दल (Right to Information Vs Political Party)

Posted on April 17th, 2020 | Create PDF File

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सूचना का अधिकार बनाम राजनीतिक दल

(Right to Information Vs Political Party)

 

आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चन्द्र अग्रवाल ने सूचना के अधिकार के माध्यम से कुछ प्रमुख राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदों का ब्यौरा मांगा था। लेकिन राजनीतिक दलों ने स्वयं को इस कानून के दायरे से बाहर बता कर यह जानकारी देने से मना कर दिया। अग्रवाल ने इस मामले को सामाजिक संगठन एडीआर की ओर से केन्द्रीय सूचना आयोग के समक्ष पेश किया। आयोग ने 3 जून, 2013 को ऐतिहासिक फैसला देते हुए कहा कि राजनीतिक पार्टियाँ सरकार से रियायती दरों पर देश भर में जमीन, भवन और संचार जैसी तमाम सुविधाएँ वसूल रही हैं, इसलिए राजनीतिक दलों की कानूनी और नैतिक जिम्मेदारी है कि वे अपने आय और व्यय का ब्यौरा जनता को बताएँ।

 

केन्द्रीय सूचना आयोग ने अपने आदेश में कहा कि सूचना का अधिकार कानून की धारा 2 (एच) (i) और (ii) के तहत छह राजनीतिक दल लोक प्राधिकरण (पब्लिक अथॉरिटी) हैं, क्‍योंकि वे काफी हद तक सरकार द्वारा वित्त पोषित हैं।

 

राजनीतिक दलों ने आयोग के फैसले के प्रति नाराजगी अभिव्यक्त की। उनका तर्क था कि यह फैसला स्वीकार करने पर सभी दलों को देश भर में अपने सभी पार्टी कार्यालयों पर सूचना अधिकारी तैनात करने होंगे जो कि सीमित संसाधनों वाले दलों के लिए व्यावहारिक तौर पर मुमकिन नहीं होगा और दूसरी दलील यह थी कि इसके लागू होते ही आरटीआई आवेदनों की बाढ़ आ जाएगी, जिसे राजनीतिक दलों के लिए संभालना नामुमकिन होगा। राजनीतिक दल न सार्वजनिक संस्थाएँ हैं, न सरकारी संस्थाएँ और वे सरकार से फंड भी नहीं लेते। लिहाजा उन्हें आरटीआई के दायरे में नहीं होना चाहिए। ऐसी आशंका भी व्यक्त की जा सकती है कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी दुर्भावाना के साथ राजनीतिक दलों के केन्द्रीय जन-सूचना अधिकारियों के पास आरटीआई आवेदन दाखिल करेंगे जिससे उनका राजनीतिक कामकाज बुरी तरह प्रभावित होगा।

 

केन्द्र सरकार ने एक अतिमहत्वपूर्ण फैसला करते हुए राजनीतिक दलों को आरटीआई कानून के दायरे से बाहर रखने का प्रावधान करने वाले एक संशोधन विधेयक प्रस्ताव को 1 अगस्त, 2013 को मंजूरी दे दी। 12 अगस्त, 2013 को कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन राज्य मंत्री वी नारायणसामी ने इस संशोधन को लोकसभा में पेश किया था। इस पर व्यापक विचार-विमर्श के लिए 5 सितम्बर, 2013 को इसे राज्यसभा सदस्य शांताराम नाइक की अध्यक्षता वाली कार्मिक, लोक शिकायत, विधि और न्याय सम्बन्धी संसद की स्थाई समिति को भेज दिया गया था। समिति अभी इस पर विचार-विमर्श कर रही है।