भारत में सिविल सेवाओं का विकास (Development of civil services in India)

Posted on March 21st, 2020 | Create PDF File

प्राचीन काल में यद्यपि आधुनिक अर्थ व आयाम वाली सिविल सेवा का स्पष्ट उदाहरण नहीं मिलता लेकिन समय व देशकाल की परिस्थितियों के अनुरूप विविध साम्राज्यों व शासकों ने सिविल सेवा व सेवकों के गठन का मार्ग प्रशस्त किया। मौर्य प्रशासन में सिविल सेवकों को अध्यक्ष व 'राजुक' के नाम से नियुक्त किया गया। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से इस बात का संकेत मिलता है कि उस काल में भी सिविल सेवकों के चयन की प्रक्रिया सरल नहीं थी। मौर्य साम्राज्य के भू-क्षेत्र के अति विस्तार ने इस बात को आवश्यक बना दिया था कि गुणों व श्रेष्ठता के आधार पर योग्य सिविल सेवकों, प्रशासकों की नियुक्ति की जाए। कौटिल्य ने निष्ठा व ईमानदारी को सिविल सेवकों के लिए दो सबसे आवश्यक गुणों के रूप में बताया है। मौर्य साम्राज्य में व्यापार का प्रशासक 'पण्याध्यक्ष व कृषि की देखरेख करने वाला प्रशासक सीताध्यक्ष कहलाता था। कौटिल्य ने इनको प्रकार्यों पर सतत निगरानी रखने की सिफारिश की थी तथा इनकी नियुक्तियों को एक सतर्कता विभाग के द्वारा मंजूरी मिलना भी आवश्यक समझा था। स्थाध्यक्ष प्रतिरक्षा विभाग का प्रमुख था जो विदेशी आक्रमण से लोगों की सुरक्षा तथा सीमाओं की चौकसी के उत्तरदायित्व को संभालता था। स्वर्णध्यक्ष खदोनों की देखरेख करता था और विभिन्‍न खनिजों, स्वर्ण, चांदी, लौह, हीरा आदि से जुड़े मामलों का विनियमन करता था। वन्याध्यक्ष वन विभाग का प्रमुख था जो वन नीतियों का निर्माण करता था। मापतौल विभाग का प्रमुख 'भाराध्यक्ष' कहलाता था। इस प्रकार मौर्य साम्राज्य में विभिन्‍न अध्यक्षों द्वारा सिविल सेवकों के समान भूमिका अदा की जाती थी। इसी तरह गुप्तकाल की प्रशासनिक गतिविधियों में भी सिविल सेवकों की भूमिका देखने को मिलती है।

 

मुगल काल के दौरान अकबर ने अप्रत्यक्ष रूप से सिविल सेवा को बढ़ावा देने वाला प्रयास किया। 1557 ई0 में उसने भूमि सुधारों की शुरूआत की और एक भूमि राजस्व प्रणाली की नींव रखी। इस प्रणाली ने कालांतर में भारतीय कराधान प्रणाली की पृष्ठभूमि निर्मित की। 1600 ई. में स्थापित ईस्ट इंडिया कंपनी के पास भी अपनी सिविल सेवा थी जो वाणिज्यिक कार्यों को सम्पन्न करने हेतु जिम्मेदार थी।

 

लार्ड कार्नवालिस ने ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में सिविल सेवा की शुरूआत की, जिससे भारत में ब्रिटिश भूक्षेत्रों का बेहतर ढंग से प्रशासन किया जा सके। कार्नवालिस ने अधिकारियों के लिए कठोर विनियमों को अपनाया, उनके वेतन में वृद्धि की ताकि वे भ्रष्टाचार से मुक्त हो सकें और साथ ही उसने पदोन्नति को वरिष्ठता से जोड़ा। इन प्रयासों ने सिविल सेवा को अत्यधिक मांग वाले पेशे में बदल दिया। वर्ष 1801 में युवा सिविल सेवकों को प्रशिक्षण देने के लिए कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज खोला गया। एक अन्य संस्थान जो इन्हें प्रशिक्षण प्रदान करता था, वह था इंग्लैण्ड में स्थित ईस्ट इंडिया कॉलेज। प्रारम्भ में सिविल सेवकों का मनोनयन ईस्ट इंडिया कम्पनी के निर्देशकों द्वारा किया जाता था, जबकि वर्ष 4853 में इस पद्धति को समाप्त कर प्रतिस्पर्द्धात्तक परीक्षाओं के जरिए सभी नियुक्तियों को किए जाने का प्रावधान किया गया।

 

वर्ष 1854 में मैकाले समिति ने भारत को पहली आधुनिक सिविल सेवा प्रदान की। इस समिति ने सिफारिश की कि ईस्ट इंडिया कंपनी के संरक्षकत्व आधारित प्रणाली (Patronage Based System) के स्थान पर एक गुणवत्त्तापूर्ण स्थाई सिविल सेवा की प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से शुरूआत की जाए। 1855 के बाद इंडियन सिविल सर्विस (ICS) के लिए भर्ती पूर्णतया योग्यता के आधार पर होने लगी। प्रारम्भ में केवल ऑक्सफोर्ड व कैम्ब्रिज (लंदन) से ही इस सेवा हेतु उम्मीदवारों की भर्ती की जाती थी, लेकिन 1922 के बाद से भारत में भी इस परीक्षा का आयोजन किया जाने लगा।