सूचना का अधिकार लागू होने से पहले भारत और विश्व परिदृश्य (Outlook of the world and India Before Implementation of right to information)

Posted on April 6th, 2020 | Create PDF File

hlhiuj

सूचना का अधिकार लागू होने से पहले भारत और विश्व परिदृश्य
(Outlook of the world and India Before Implementation of right to information)

 

 

ब्रिटेन दुनिया में शासकीय गोपनीयता कानून बनाने वाला पहला देश है। ब्रिटेन में पहली बार 1889 में शासकीय गोपनीयता कानून बना था। जब ब्रिटेन में ऐसा कानून लाया जा रहा हो तो भारत को उससे अलग रखने का कोई कारण नहीं था। उसी वर्ष भारत में भी शासकीय गोपनीयता कानून, 1889 लागू कर दिया गया। कालांतर में पत्रकारिता पर अंकुश लगाने के लिए 1904 में उस कानून में संशोधन करके कुछ प्रावधानों को और कड़ा कर दिया गया। इसके तहत समस्त अपराधों को संज्ञेय एवं गैर-जमानतीय बना दिया गया। बाद में ब्रिटेन तथा भारत में इस कानून में कई परिवर्तन हुए। अंततः भारत में नया कानून शासकीय गोपनीयता अधिनियम, 1923 बना। वह कानून आज भी देश में लागू है, भले ही सूचना के अधिकार ने उसे अप्रासंगिक कर दिया हो। सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की धारा 22 में स्पष्ट लिखा गया है कि इस अधिनियम के उपबंध, शासकीय गोपनीयता अधिनियम, 1923 और तत्समय प्रव॒त्त किसी अन्य विधि में या इस अधिनियम से अन्यथा किसी विधि के आधार पर प्रभाव रखने वाली किसी लिखित में उससे असंगत किसी बात के होते हुए भी, प्रभावी होंगे।

 

शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1923 में 'गोपनीयता' की कोई परिभाषा नहीं दी गई है। इसलिए इसे काला कानून की संज्ञा दी जाती रही हैं। यह सरकार पर निर्भर है कि वह किस बात को गुप्त करार दे। यह कानून किसी भी सामान्य सरकारी दस्तावेज को 'गोपनीय' करार देकर किसी भी व्यक्ति को जेल की हवा खिलाने के लिए पर्याप्त है। इस रूप में, इस कानून ने कार्यपालिका को असीमित, अपरिभाषित एवं निरंकुश अधिकार दे रखा है। हालाँकि इसमें न्यायालय यह तय कर सकता है कि कोई बात गोपनीय है अथवा नहीं। फिर भी, अगर कार्यपालिका चाहे तो किसी नागरिक या पत्रकार को इस कानून के सहारे आसानी से प्रताड़ित कर सकती है।

 

स्वाघीनता के बाद कई महत्वपूर्ण संस्थाओं / आयोगों ने इस कानून को बदलने या इसमें व्यापक फेरबदल की सिफारिश की। प्रथम प्रेस आयोग, 1954 ने भी इस बात का दोहराया। प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग, 1968 के देशमुख अध्ययन दल ने शासकीय गोपनीयता सम्बन्धी प्रावधानों की अतार्किक एवं अनावश्यक प्रावधानों, जिनके कारण सूचनाओं के प्रवाह में बाधा आती है, को हटाने की मांग की। भारतीय विधि आयोग ने 1971 में 'राष्ट्रीय सुरक्षा' पर अपनी रिपोर्ट में शासकीय गोपनीयता कानून 1923 की धारा 5 का उल्लेख करते हुए सुझाव दिया कि ऐसे सामान्य प्रकटीकरण पर, जिनसे राज्य-हित प्रभावित नहीं होते हों, मुकदमा चलाने की स्वीकृति नहीं देनी चाहिए। ऐसी ही सिफारिशें भारतीय प्रेस परिषद्‌ 1981 ने 'ऑफिशियल सीक्रेसी एंड द प्रेस' नामक अपनी रिपोर्ट में किया। द्वितीय प्रेस आयोग 1982 ने भी इसे निरस्त करने की मांग की।

 

इन सिफारिशों के बावजूद अब तक यह कानून कायम है। हालांकि सूचना के अधिकार ने इसे अप्रासंगिक बना दिया है। वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में गठित द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग, 2006 ने तो इस कानून को निरस्त कर देने का सुझाव दिया है। अमेरिका के न्यायधीश बर्गर ने रोजेनब्लेट बनाम बेयर (1966, 383, यूएस 75, 49-95) नामक वाद में कहा था-“जनता के सुनने का अधिकार उसके बोलने के अधिकार में अंतर्निहित है। आम नागरिकों के लिए सूचना पाने का अधीकार सरकार या किसी प्रसारण लाइसेंसधारी या किसी व्यक्ति के किसी विषय पर अपने विचारों को प्रसारित करने के अधिकार से ज्यादा महत्वपूर्ण है।”

 

हेराल्ड जे. लास्की के अनुसार-" जिन्हें भरोसेमंद और वास्तविक सूचनाएँ नहीं मिल पातीं,उनकी स्वतंत्रता खतरे में है। आज नहीं तो कल उनका नष्ट होना स्वाभाविक है। सत्य किसी भी राष्ट्र की मुख्य धरोहर है और उसे दबाने या छिपाने की कोशिश करते हैं अथवा जो उसके उजागर होने से भयभीत रहते हैं, बर्बाद होना ही उनकी नियति है।”