भारत में सूचना के अधिकार का इतिहास (History of Right to Information in India)

Posted on April 7th, 2020 | Create PDF File

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भारत में सूचना के अधिकार का इतिहास 

(History of Right to Information in India)

 

पूरी दुनिया में सूचना की आजादी के आन्दोलनों से भारत में भी इसकी जरूरत महसूस हुई। हालांकि यह माना जाता रहा है कि भारत के संविधान की धारा 19 (1) (क) में जानने का अधिकार भी निहित है। इसमें सभी नागरिकों को वाक्-स्वातंत्र्य एवं अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य का अधिकार देने की बात है। संविधान में प्रेस की स्वतंत्रता का कहीं अलग से उल्लेख नहीं है। प्रत्येक नागरिक के लिए प्रदत्त इस स्वतंत्रता में ही प्रेस की स्वतंत्रता को भी अंतर्निहित माना गया है। इसी तरह, सूचना के अधिकार को भी इसका अनिवार्य अंग बताया गया है। उच्चतम न्यायालय के अनेक निर्णयों में सूचना के अधिकार के अनुकूल निर्णय दिए गए हैं जैसे कि-

 

* इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स बनाम भारत संघ, 1985 मामले में उच्चतम ने कहा है कि नागरिकों को सरकार के संचालन सम्बन्धी सूचनाओं के विषय में जानने का अधिकार है।

 

* हमदर्द दवाखाना बनाम भारत संघ 1960, में कहा गया है कि सामान्य हित के विषयों पर विचार और सूचना ग्रहण करने तथा पाने का अधिकार भी वाक्‌ एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में शामिल है।

 

* हिम्मतलाल बनाम पुलिस आयुक्त, अहमदाबाद 1973, मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था-लोकतंत्र की मूल अवधारणा यह है कि नागरिकों की सहमति के आधार पर शासन होना चाहिए। यह सहमति स्वतंत्र और स्वाभाविक होने के साथ ही विभिन्‍न स्रोतों से प्राप्त पर्याप्त सूचनाओं और विचार-विमर्श पर आधारित होनी चाहिए ।

 

द्वितीय प्रेस आयोग, 1982 के अनुसार-“लोकतंत्र का आधार जागरूक और जानकार जनमत है और जनता अपना मत तभी बना सकती है, जब उसे पूरी जानकारी हो। इसलिए यह जरूरी है कि सरकार के पास जो भी जानकारी है, वह जनता को उपलब्ध हो।”

 

10वीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में कहा गया है कि अगर सूचना को अधिकार के तौर पर सभी नागरिकों को उपलब्ध कराया जाए तो शासन के लिए विकास योजनाओं का कार्यान्वयन आसान हो जाएगा।

 

भारत में सूचना के अधिकार के लिए सबसे ठोस, स्पष्ट एवं अनवरत्‌ आन्दोलन राजस्थान के किसानों ने चलाया। अरुणा राय एवं निखिल डे के नेतृत्व में हमारा पैसा, हमारा हिसाब आन्दोलन भारत में सूचना के अधिकार का अगुवा बना। 1975 मं आईएएस की नौकरी छोड़कर जनांदोलनों से जुड़ी अरुणा राय ने 1987 में राजस्थान के देवडूंगरी गाँव में एक संगठन की नींव रखी-'मजदूर किसान शक्ति संगठन'।भारत के पूर्व एयर मार्शल पी.के.डे. के पुत्र निखिल डे तथा स्थानीय कार्यकर्ता शंकर सिंह की मदद से इस संगठन ने जल्द ही अपनी मजबूत पकड़ बना ली। इसके नेतृत्व में मजदूरी, आजीविका के साधन तथा जमीन के सवालों पर आन्दोलन तेज हुआ।

 

इसी तरह, विकास योजनाओं में गबन तथा कम मजदूरी के खिलाफ 1993 में आरम्भ अभियान ने धीरे-धीरे पारदर्शिता के लिए आन्दोलन का रूप लिया। इसी दौरान, अपना गांव, अपना काम योजना में भारी अनियमितता का भंडाफोड़ करने के लिए इससे सम्बन्धित दस्तावेजों की मांग करते हुए 15 जून, 1994 को भीम राजसमंद में धरना दिया गया। इसी वर्ष जून महीने में पाली जिले के कोट किराना गांव में ग्रामीणों के दबाव में बीडीओ द्वारा की गयी जांच में फर्जीवाड़े का पता चला।इसके बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ जन-सुनवाई का अनूठा प्रयोग शुरू हुआ। जन-सुनवाई में दस्तावेजों को ग्रामीणों के बीच जांच के लिए पेश करने पर भारी गडबड़ियों का पता चला। चार जिलों में जन-सुनवाई के आधार पर मजबूत किसान शक्ति संगठन ने भ्रष्ट अधिकारियों एवं जनप्रतिनिधियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने का प्रयास किया। लेकिन इसकी अनुमति नहीं मिली।इसके बाद मजदूर किसान शक्ति संगठन ने जानने के अधिकार को लेकर आन्दोलन तेज करदिया। मई 2000 को राजस्थान विधानसभा ने सूचना का अधिकार कानून पारित किया। इसी दिन पंचायती राज अधिनियम में संशोधन करके वार्ड सभा एवं ग्राम सभा में सामाजिक अंकेक्षण को अनिवार्य कर दिया गया। 26 जनवरी, 2001 से राजस्थान में सूचना का अधिकार कानून लागू हुआ।राजस्थान को सूचना का अधिकार देने वाले पहले राज्य का श्रेय भले ही न मिला हो, लेकिन यहाँ के ग्रामीणों को पूरे देश में इसकी अवधारणा और उदाहण पेश करने का ऐतिहासिक गौरव अवश्य प्राप्त हुआ।