राष्ट्रीय समसामयिकी 1(21-Nov-2022)
रानी लक्ष्मीबाई
(Rani Lakshmi Bai)

Posted on November 21st, 2022 | Create PDF File

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हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री ने रानी लक्ष्मीबाई के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में झाँसी का दौरा किया।

 

रानी लक्ष्मीबाई :

 

रानी लक्ष्मीबाई को झाँसी की रानी के नाम से भी जाना जाता है।

 

वह मराठा शासित झाँसी रियासत की रानी थीं।

 

वह 1857 के भारतीय विद्रोह की प्रमुख व्यक्तित्त्वों में से एक थीं।

 

उन्हें भारत में ब्रिटिश शासन के प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में देखा जाता है।

 

प्रारंभिक जीवन :

 

उनका जन्म 19 नवंबर, 1828 को वाराणसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था।

 

उनका वास्तविक नाम मणिकर्णिका था।

 

पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने मार्शल आर्ट का औपचारिक प्रशिक्षण भी लिया, जिसमें घुड़सवारी, निशानेबाजी और तलवारबाज़ी शामिल थी।

 

मनु के साथियों में नाना साहब (पेशवा के दत्तक पुत्र) और तात्या टोपे शामिल थे।

 

झाँसी की रानी के रूप में मनु :

 

14 साल की उम्र में मनु का विवाह झाँसी के महाराजा गंगाधर राव नेवालकर से हुआ, जिनकी पहली पत्नी का बच्चा होने से पूर्व ही निधन हो गया था जो सिंहासन का उत्तराधिकारी होता।

 

अतः मणिकर्णिका झाँसी की रानी, लक्ष्मीबाई बन गई।

 

रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसकी जन्म के तीन महीने बाद ही मृत्यु हो गई। बाद में दंपति ने गंगाधर राव के परिवार से एक बेटे दामोदर राव को गोद ले लिया।

 

स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका :

 

रानी लक्ष्मीबाई स्वतंत्रता के लिये भारत के संघर्ष के बहादुर योद्धाओं में से एक थीं।

 

वर्ष 1853 में जब झाँसी के महाराजा की मृत्यु हो गई, तो लॉर्ड डलहौजी ने गोद लिये गए बच्चे को उत्तराधिकारी के रूप स्वीकार करने से इनकार कर दिया और व्यपगत के सिद्धांत (Doctrine of Lapse) को लागू करते हुए राज्य पर कब्ज़ा कर लिया।

 

रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेज़ों के खिलाफ बहादुरी से लड़ाई लड़ी ताकि झाँसी साम्राज्य को विलय से बचाया जा सके।

 

17 जून, 1858 को युद्ध के मैदान में लड़ते हुए उनकी मौत हो गई।

 

जब भारतीय राष्ट्रीय सेना ने अपनी पहली महिला इकाई (1943 में) शुर की, तो इसका नाम झाँसी की बहादुर रानी के नाम पर रखा गया था।

 

व्यपगत का सिद्धांत (Doctrine of Lapse) :

 

यह वर्ष 1848 से 1856 तक भारत के गवर्नर-जनरल रहे लॉर्ड डलहौजी द्वारा व्यापक रूप से अपनाई गई एक विलय नीति थी।

 

इस नीति के अनुसार कोई भी रियासत जो ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण में थी और जहाँ शासक के पास कानूनी रूप से पुरुष उत्तराधिकारी नहीं था, उस पर कंपनी द्वारा कब्ज़ा कर लिया जाता था।

 

इस प्रकार भारतीय शासक के किसी भी दत्तक पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया जाता था।

 

व्यपगत का सिद्धांत लागू करते हुए डलहौजी द्वारा निम्नलिखित राज्यों पर कब्ज़ा किया गया:

 

सतारा (1848 ई.),

 

जैतपुर और संबलपुर (1849 ई.),

 

बघाट (1850 ई.),

 

उदयपुर (1852 ई.),

 

झाँसी (1853 ई.)

 

नागपुर (1854 ई.)