भारत में बच्चों के खिलाफ अपराध (Crime Against Children In India)

Posted on October 5th, 2018 | Create PDF File

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भारत में बालकों व महिलाओं के खिलाफ़ बढ़ते अपराध बेहद चिन्ता का विषय हैं। भारत महिलाओं के लिए विश्व के सबसे खतरनाक देशों में से एक है। यह बात थामसन रायटर्स फाउंडेशन द्वारा कुछ समय पहले जारी एक रिपोर्ट में कही गई। यह बात अलग है कि भारत के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा इस रिपोर्ट को सिरे से खारिज कर दिया गया था, लेकिन सवाल यह है कि हमारा समाज अपने बच्चों और महिलाओं की रक्षा करने में सफल रहा है। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़ो के मुताबिक देश में हर 20 मिनट पर एक दुष्कर्म होता है। हालांकि बच्चों के खिलाफ अपराध रोकने के कई कदम उठाये गये हैं। लेकिन इस दिशा में भी स्थिति सुधरती नही दिख रही। हम दावा भले ही करते हों कि समाज आधुनिकता के मार्ग पर तेजी से आगे बढ़ रहा है, लेकिन हमें यह नही भूलना चाहिए कि आधुनिकता का मूल आधार न्याय की उपलब्धता है। परिवार हमारे सामाजिक ढ़ाचे की सबसे प्राथमिक व्यवस्था है, जो बच्चों को न्याय देने में विफल साबित हो रही है। यह आधुनिकता की हमारी अवधारणा को संशय के घेरे में खड़ा करता है।

 

बच्चों के प्रति यौन अपराध भारत के मौलिक विचारों की भी असफलता है। यह देश के नैतिक विवेक का क्षरण है। और देश के अभिन्न सिध्दांतों पर गंभीर सवाल खड़े करता है। 2013 में उच्च्तम न्यायालय ने बचपन बचाओ नाम की एक याचिका की सुनवाई करते हुए कहा था कि लापता बच्चों के किसी भी मामले की जांच अपहरण या तस्करी की जांच जैसे की जानी चाहिए। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-15(3) राज्य को महिलाओं एवं बच्चों के लिये विशेष प्रावधान गठित करने के लिए अनुदेशित करता है। संविधान के भाग 4 का अनुच्छेद 39 राज्य को अन्य प्रावधानों के साथ अपनी नीतियों को निर्देशित करने के लिए उत्तरदायी बनाता है ताकि बच्चों का शोषण नही किया जा सके। उन्हें आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विवश  नही किया जाये, या ऐसा कोई काम न कराया जाए जो उनकी क्षमता और उम्र के लिहाज से अनुपयुक्त हो।

 

भारत में बाल संरक्षण के लिए कई प्रावधान निर्धारित हैं। पहला बाल अधिकार सम्मेलन के प्रावधानों के अनुरूप किशोर न्याय ( बच्चों की देखभाल और संरक्षण अधिनियम) 2015, ऐसी देखभाल और आश्यकता वाले बच्चों के लिए भारत का मौलिक और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कानून है। यह बच्चों के सर्वोत्तम हित के मामले को संबोधित करते हुए बालकों के अनुकूल दृष्टिकोण के माध्यम से देखभाल, संरक्षण, विकास, उपचार आदि और सामाजिक पुनर्संरचना के माध्यम से उनकी आवश्यकताओं को पूरा करता है। दूसरा, बच्चों के खिलाफ यौन हिंसा से निपटने के लिए पोक्सो कानून 2012 भारत के सबसे प्रगतिशील कानूनों मे से एक है। यह कानून 12 वर्ष से कम आयु के बच्चे पर यौन हमले के लिए जुर्माने के साथ दंडनीय अपराध की श्रेणी मे रखा गया है। इसमें दोषी को आजीवन कारावास का प्रावधान है। तीसरा, अपराध विधि संशोधन अधिनियम 2013, इसके तहत कई नये यौन अपराधों को शामिल किया गया है। जैसे 16 वर्ष से कम आयु की बालिका के साथ दुष्कर्म के लिए दण्ड का प्रावधान सुनिश्चित किया गया है।

 

डॉ. कलाम ने कहा था कि- महिलाओं और बच्चों के अधिकारों और उनकी आकांक्षाओं के संरक्षण के बिना एक समावेशी और न्यायसंगत समाज का निर्माण नही किया जा सकता। भविष्य की वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए, अभिनव विचारकों की एक नई नस्ल विकसित करने के लिए बच्चों की अंतर्निहित रचनात्मक क्षमताओं को पहचानकर उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। यह दर्शाता है कि जब तक हमारे बच्चे सुरक्षित नही होते हैं, तब तक न्यू इंडिया के विजन और भारत के रूपांतरण के लक्ष्य को पूरा नही किया जा सकता है। न्यू इंडिया को समाज के रूपांतरण के साथ बाल अधिकारों के प्रति सम्मान और उनके संरक्षण के लिए एक नूतन दृष्टिकोण विकसित करने की आश्यकता है।

 

 ज्ञात हो कि लिंग आधारित हिंसा में पुरुष और महिला दोनों शामिल होते हैं। लेकिन आम तौर पर महिलाऐं इसका शिकार बनती हैं। जो यह दर्शाता है कि भारत में ही नही बल्कि विश्व में महिला और पुरुषों में असमान शक्ति वितरण है।  ऐसी हिंसाओं में भौतिक, यौन और मनोवैज्ञानिक क्षति, भय, पीड़ा, दुष्कर्म आदि है। लिंग आधारित हिंसा की व्यापक रूप से स्वीकार्य परिभाषा में अब सभी प्रकार की हिंसा शामिल है जो निश्चित रूप से पुरुषों और महिलाओं के बीच असमान शक्ति संबंधो के परिणामस्वरूप अत्यंत गंभीर होती है। विभिन्न संस्कृतियों में लिंग के प्रति दृष्टिकोण इस तथ्य को प्रभावित करते हैं कि पुरुष महिला संबंधों को कैसे देखा जाता है। विशेषकर बच्चों के मामले मे अपराधी के प्रयासों का  विरोध करना काफी मुश्किल काम है। क्योंकि बच्चों के पास किसी कार्य या व्यवहार के सही या गलत समझने की परिपक्वता नही होती है। प्रचलित दृष्टिकोण और सामाजिक मानसिकता को ध्यान में रखते हुए भारतीय न्यायपालिका ने बाल अधिकारों की रक्षा के लिए कुछ कड़े कदम जरूर उठाये हैं। सर्वोच्च न्यायालय नें वर्ष 2017 में बाल अधिकारों पर बारत में एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाते हुए कहा था कि- 15 से 18 वर्ष तक की आयु वाली पत्नी से संभोग करने वाला व्यक्ति भी दोषी करार माना जायेगा। इस मामले मे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के तहत बलात्कार की परिभाषा में अपवाद को चुनौती दी गई थी। इसमें पति द्वारा अपनी नाबालिग पत्नी के साथ यौन संबंधों को बलात्कार का अपवाद कहा गया था। न्यायालय ने अब इस आयु को 15 वर्ष से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दिया है।

 

कहा जाता है कि बच्चे मानव जाति के लिए एक दैवीय उपहार हैं। जिनमें कोई भी व्यक्ति कामुक इच्छा की कल्पना नही कर सकता। अदालत ने यह भी कहा कि जब एक बार कोई बच्ची इस प्रकार के अपराध का शिकार हो जाती है, तो उसके दिमाग पर इसका विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। उसकी मानसिक पीड़ा की अवधि अत्यधिक लंबी होती है। और वह हमेशा दुःख और भय से ग्रसित रहती है। इस पृष्ठभूमि मे यह सही समय है कि जब हमें अपने स्वविवेक का आत्मनिरीक्षण करना चाहिए तथा महिलाओं और बच्चों के प्रति मानसिकता और दृष्टिकोण को बदलने के लिए सक्रिय रूप से समाज की प्राथमिक इकाई- परिवार से शुरुआत करनी चाहिए।