गाँधी जी का पर्यावरण चिंतन (Gandhiji's Thinking On Environment)

Posted on October 7th, 2018 | Create PDF File

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1987 में ब्रुडलैंड कमीशन रिपोर्ट के सामान्य भविष्य के विचार से बहुत पहले ही महात्मा गांधी ने स्थिरता और सतत विकास के लिए लगातार बढ़ती इच्छाओं और जरूरतों के अधीन आधुनिक सभ्यता के खतरों की ओर ध्यान दिलाया था। अपनी पुस्तक हिंद स्वराज में उन्होने लगातार हो रही खोजों के कारण पैदा हो रहे उत्पादों और सेवाओं को मानवता के लिए खतरा बताया था। उन्होने वर्तमान सभ्यता को अंतहीन इच्छाओं और शैतानिक सोच से प्रेरित बताया था। उनके अनुसार असली सभ्यता अपने कर्तव्यों का पालन करना और नैतिक और संयमित आचरण करना है। उनका दृष्टिकोण था कि लालच और जुनून पर अंकुश होना चाहिए। इस अर्थ में उनकी पुस्तक हिंद स्वराज टिकाऊ विकास का घोषणापत्र है। जिसमें कहा गया है कि आधुनिक शहरी औद्योगिक सभ्यता मे ही उसके विनाश के बीज सन्निहित हैं।

 

वायु प्रदूषण पर टिप्पणी करते हुए उन्होने कहा था कि उचित उपचार और उपायों के जरिए वायु प्रदूषण को रोकना स्थिरता और टिकाऊ विकास का आवश्यक पहलू है। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि महात्मा गांधी जब 1913 में दक्षिण अफ्रीका में अपने पहले सत्याग्रह आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे तभी उन्होने यह महसूस कर लिया था कि आधुनिक समाज तक स्वच्छ हवा पहुचाने में लागत आयेगी। अपने एक लेख  टू हेल्थ में उन्होने साफ हवा की जरूरत पर रोशनी डाली है। इसमें साफ वायु पर एक अलग से अध्याय है। जिसमें कहा गया है कि शरीर को तीन प्रकार के प्राकृतिक पोषण की आवश्यकता होती है- हवा, पानी और भोजन। लेकिन साफ हवा सबसे अधिक आवश्यक है। वे कहते हैं कि प्रकृति ने हमारी जरूरत के हिसाब से पर्याप्त हवा फ्री में दी है। लेकिन उनकी पीढ़ा थी कि आधुनिक सभ्यता ने इसकी भी एक कीमत तय कर दी  है। वे कहते हैं कि किसी व्यक्ति को कहीं दूर जाना पड़ता है तो उसे साफ हवा के लिए पैसा खर्च करना पड़ता है। आज से करीब 100 साल पहले 1 जनवरी 1918 को अहमदाबाद में एक बैठक को संबोधित करते हुए उन्होने भारत की आजादी को तीन मुख्य तत्वों वायु, जल और अनाज की आजादी के रूप में परिभाषित किया था।  उन्होने 1918 में जो कहा और किया था उसे अदालतें आज जीवन के अधिकार कानून की व्याख्या करते हुए साफ हवा, साफ पानी और पर्याप्त भोजन के अधिकार के रूप में परिभाषित कर रही हैं।

 

1930 के दशक के अंतिम दिनो में उन्होने लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए कहा था कि इसमें सभी नागरिकों को शुध्द हवा और शुध्द पानी उपलब्ध होना चाहिए। आज से 100 साल पहले साफ हवा पर गांधी की समझ , चिंतन और भारत की स्वतंत्रता  व लोकतंत्र के प्रति उनके विचार आज 21वीं सदी में भी उन्हें समकालीन बनाते हैं। उनके कई बयान हैं जिन्हें टिकाऊ विकास के लिए उनके विश्वव्यापी दृष्टिकोण के रूप में उद्धृत किया जा सकता है। यूरोपीय संघ के संदर्भ में  दिए गए उनके एक बयान की प्रासंगिकता आज पूरे मानव समाज को है।  उन्होने 1931 में लिखा था कि भौतिक सुख और आराम के साधनों के निर्माण और उनकी निरंतर खोज मे लगे रहना ही अपने आप में एक बुराई है। उन्होने कहा कि मैं यह कहने का साहस करता हूं कि यूरोपीय लोगों को अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करना होगा। इससे उनका काफी नुकसान होगा और वे आरामतलबी के दास बन जायेंगे। असल में यूरोपीय लोग अब गांधी जी की बोतों को सुन रहे हैं। यह बात कुछ ब्रिटिश नागरिकों के दृष्टिकोण से भी स्पष्ट है जिन्होने सरल जीवन जीने के लिए ऊर्जा और भौतिक संसाधनों पर से अपनी निर्भरता कम कर ली है। उन्होने शून्य ऊर्जा इकाई स्थापित की है। यह एक ऐसी प्रणाली है जिसके जरिए लंदन में एक हाउसिंग सोसाइटी चलाई जा रही है। सोसाइटी के प्रवेश द्वार पर  लिखा है कि – यूके में एक व्यक्ति जितना उपभोग करता है अगर दुनिया का हर व्यक्ति उतना ही उपभोग करे तो सब की जरूरतो को पूरा करने के लिए हमें धरती जैसे तीन ग्रहों की जरूरत होगी। गांधी जी ने 8 दशक पहले ही लिख दिया था कि यदि भारत ने विकास के लिए पश्चिमी मॉडल का पालन किया तो उसे अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए एक अलग धरती की जरूरत होगी। लंदन की इस हाउसिंग सोसाइटी के लोग किसी भी जलवायु और पर्यावरण आंदोलन से नही जुड़े हैं। वे सभी अलग- अलग कामों और व्यवसायों से जुड़े हुए हैं। ये सभी जीवंत मध्यम वर्ग का हिस्सा हैं। बस इन लोगों का खपत और उत्पादन की दृष्टि कोण ही इन्हे दूसरों से अलग बनाता है।उन्होने निर्णय ले रखा है कि दूर दराज के इलाकों से लाये जाने वाले खाद्य पदार्थ वे नही खायेंगे।उनका मानना है कि जब वस्तुओं को लंबी दूरी से ले जाया जाता है तो परिवहन, संरक्षण और पैकिंग में बहुत ज्यादा ऊर्जा का उपयोग किया जाता है। दूर स्थानों से भोजन के लाने और उनपर निर्भरता से काफी ऊर्जा का प्रयोग होता है, जिसकी वजह से काफी अधिक मात्रा में कार्बन डाई आक्साइड और अन्य ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। इसलिए उन्होने कुछ किलोमीटर के भीतर उपलब्ध पदार्थों के प्रयोग का निर्णय लिया है।

 

जलवायु के अर्थशास्त्र पर यूके मे निकोलस स्टर्न कमेटी रिपोर्ट ग्रीन हाउस गैसों के कम उपयोग के साथ-साथ जीवन शैली में बदलाव करके एक कार्बन अर्थव्यवस्था से एक गैर-कार्बन अर्थव्यवस्था में स्थानांतरित होने पर जोर देती है। गांधी जी ने कई अवसरों पर लिखा है कि मनुष्य जब अपनी भौतिक जरूरतों को पूरा करने के लिए 15 या 20 किलोमीटर से ज्यादा दूर के संसाधनों को प्रयोग करेगा तो प्रकृति की अर्थव्यवस्था नष्ट होगी। उनका स्वदेशी चिंतन और 1911 में प्रकाशित लेख – प्रकृति की अर्थव्यवस्था से प्रकृति के प्रति उनकी गहरी सोच, समझ और संवेदनशीलता को समझा जा सकता है।

 

1928 मे ही उन्होने चेतावनी दी थी कि विकास और औद्योगिकता में पश्चिमी देशों का पीछा करना मानवता और पृथ्वी के लिए खतरा पैदा करेगा। उन्होने कहा कि भगवान न करे कि भारत को कभी पश्चिमी देशों की तरह औद्योगीकरण अपनाना पड़े। कुछ किलोमीटर के एक छोटे से द्वीप इंग्लैंड के आर्थिक साम्राज्यवाद ने आज दुनिया को उलझा रखा है। यदि सभी देश इसी तरह आर्थिक शोषण करेंगे तो यह दुनिया टिड्डियों के एक दल की तरह हो जायेगी।

 

हम सभी गांधी जी की ऐतिहासिक दांडी यात्रा से परिचित हैं। इसके जरिए उन्होने प्राकृतिक संसाधनों पर आम लोगों के अधिकारों पर जोर दिया था। नमक एक महत्त्वपूर्ण और बुनियादी प्राकृतिक जरूरत है। ब्रिटिश साम्राज्य संसाधनों पर अपना एकाधिकार रखता था और उन्हें उनके वैध मालिकों की पहुंच से वंचित रखता था। बुनियादी संसाधनों से आम लोगों को दूर रखना उनकी अस्थिर विकास की रणनीति का हिस्सा था। नमक कानून तोड़कर और आम लोगों को नमक बनाने का अधिकार देकर उन्होने उन्हें सशक्त बनाने का काम किया जो टिकाऊ विकास का केन्द्रीय मुद्दा है।इस यात्रा के पीछे के अपने बड़े उद्देशेयों को रेखांकित करते हुए उन्होने कहा कि इस मार्च का उद्देश्य भारत की आजादी से भी आगे जाकर दुनिया को भौतिकवाद के राक्षसी लालच के चंगुल से मुक्त करना है। यह एक शक्तिशाली बयान था जिसमें उन्होने लालच पर आधारित आधुनिक सभ्यता की आलोचना के साथ-साथ टिकाऊ विकास पर जोर दिया था।

 

रचनात्मक रूप से अहिंसात्मक कार्यवाही करते हुए उन्होने  सांप्रदायिक सद्भाव के साथ-साथ कई अन्य चीजों पुर भी जोर दिया जैसे आर्थिक समानता, अस्पृश्यता का उन्मूलन, लोगों के जीवन में प्रगतिशील सुधार, महिलाओं को मताधिकार, निशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा प्रणाली में सुधार ताकि साधारण लोगों की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके। यहां यह ध्यान देने योग्य विषय है कि इनमें से अधिकतर मुद्दे रियो सिखर सम्मेलन के एजेंडा-21 के अभिन्न अंग हैं, जो टिकाऊ विकास के लिए एक ब्लू-प्रिंट है।

आधुनिक विकास की विशेषताओं में से एक विशेषता यह है कि गतिशीलता को बढ़ावा देने के लिए कारों और विमानों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। जोसेफ स्टिज़लिट्ज ने अपनी पुस्तक मेकिंग ग्लोबलाइजेशन वर्क में लिखा है कि 80 प्रतिशत ग्लोबल वार्मिंग हाइड्रोकार्बन और 20 प्रतिशत वनों की कटाई की वजह से होती है। सबको पता है कि पर्यावरण के लिए कारों की बढ़ती हुई संख्या कितना बड़ा खतरा है।जब 1938 में गांधी जी को बताया गया कि अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति चाहते हैं कि उनके देश के हर नागरिक के पास दो कारें और दो रेडियो सेट हों तो महात्मा गांधी ने यह कहते हुए प्रतिक्रिया व्यक्त की थी कि अगर हर भारतीय के पास एक कार होगी तो सड़कों पर चलने के लिए जगह कम पड़ जायेगी। साथ ही उन्होने आगे भी कहा था कि अगर भारतीय एक कार भी रखें तो यह कोई अच्छा काम नही होगा। उन्होने कहा था कि नियम होना चाहिए कि यदि आप चल सकते हो तो कार से बचो। कई यूरोपीय देश हैं जहां कुछ महत्तवपूर्ण क्षेत्रों मे कारों के प्रवेश पर टैक्स लगाया जाता है। ताकि प्रदूषण को कम किया जा सके। साथ ही यूरोप में कई ऐसे भी देश हैं जहां कार फ्री डे मनाये जाते हैं। ऑड और ईवन के जरिए भी कारों की संख्या को सड़को पर कम करने के उपाय अपनाये जाते हैं। ज्यादा कारों के रखने पर होने वाली जिन असुविधाओं की गांधी जी ने चर्चा की थी, आज पूरी दुनिया उसे महसूस कर रही है।

 

दुनिया में अकाल और पानी की कमी के संदर्भ में गांधी जी के विचारों को याद करना बहुत महत्त्वपूर्ण है। आजादी के लिए संघर्ष के दौरान वह गुजरात के काठियावाड क्षेत्र में होने वाले अकालों पर भी काफी चिंतित थे।पानी की कमी के मुद्दे पर उन्होने सभी रियासतों को सलाह दी थी कि सभी को एक संघ बनाकर दीर्घकालिक उपाय करने चाहिए और खाली भूमि पर पेड़ लगाने चाहिए। उन्होने बड़े पैमाने पर वनों के काटने का भी विरोध किया था।

 

आज 21वीं सदी में गाँधी जी की बात और भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गयी हैं।अंग्रेजों ने वनों को  बस धन कमाने का जरिया ही समझा था। इसके साथ ही गांधी जी ने वर्षा जल के संचयन पर भी जोर दिया। 1947 में दिल्ली में प्रार्थना में बोलते समय उन्होंने बारिश के पानी के प्रयोग की वकालत की थी। और इससे फसलों की सिंचाई पर जोर दिया था। किसानों पर 2006 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में स्वामीनाथन आयोग ने भी सिंचाई की समस्या को हल करने के लिए बारिश के पानी के उपयोग की सिफारिश की थी।

 

जर्मनी की ग्रीन पार्टी के संस्थापकों मे से एक पेट्रा केली ने पार्टी की स्थापना में महात्मा गांधी के विचारों के प्रभावों को स्वीकार करते हुए लिखा है कि हम अपने काम करने के तरीको में महात्मा गांधी से बहुत प्रेरित हुए हैं। हमारी धारणा है कि हमारी जीवनशैली इस तरह की होनी चाहिए कि हमें लगातार उत्पादन के लिए कच्चे माल की आपूर्ति होती रहे और हम उसका उपयोग करते रहें। कच्चे माल के उपयोग से पारिस्थितिकी तंत्र उन्मुख जीवन शैली विकसित होगी और साथी ही अर्थव्यवस्था से हिंसक नीतियां भी कम होंगी।

 

एक पुस्तक सर्विविंग द सेंचुरी –फेसिंग क्लाउड कैओस जो प्रोफेसर हर्बर्ट गिरार्डेट द्वारा संपादित की गई है, उसमें चार मानक सिद्धांतों - अहिंसा, स्थायित्व, सम्मान और न्याय को इस सदी और पृथ्वी को बचाने के लिए जरूरी बताया गया है। धीरे-धीरे ही सही दुनिया गांधी जी और उनके बताए रास्तों को अपना रही है। ये सिद्धांत सदैव उनके जीवन के केन्द्र में रहे। द टाइम मैग्जीन ने अपने 9 अप्रैल 2007 के अंक में दुनिया को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के 51 उपाय छापे। इनमें से 51वां उपाय था कम उपभोग, ज्यादा साझेदारी और सरल जीवन। दूसरे शब्दों में कहे तो टाइम मैग्जीन जैसी पत्रिका जिसे पश्चिमी देशों का मुखपत्र कहा जाता है, वह अब गेलोबल वार्मिंग के खतरे को रोकने के लिए गांधी जी के रास्तों को अपनाने के लिए कह रही है। ये सभी तथ्य बताते हैं कि पृथ्वी को बचाने के लिए गांधी जी की मौलिक सोच और उनके विचार कितने महत्त्वपूर्ण और गहरे हैं। इसलिए टिकाऊ और सतत् विकास के लिए गांधी जी के विचारों को फिर से समझना अनिवार्य है।