भारत– जापान संबंधों की बानगी : एक नज़र (India-Japan ties of relations: at a glance)

Posted on October 30th, 2018 | Create PDF File

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भारतजापान संबंधों की बानगी :  एक नज़र

 

हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी की जापान यात्रा सुर्खियों में है। प्रधानमंत्री मोदी अपनी 2 दिवसीय यात्रा ( 28 और 29 अक्टूबर) पर जापान गए हुए हैं। इस दौरान वे दोनों देशों के बीच 13वें द्विपक्षीय वार्षिक शिखर सम्मेलन में भी हिस्सा लेंगे। इसे "विशेष सामरिक और वैश्विक साझेदारी" के क्षेत्र में एक सकारात्मक अंदाज में देखा जा रहा है। इसके अंतर्गत क्रॉस सर्विसिंग एग्रीमेंट (एसीएसए) होने की उम्मीद है, जो भारतीय और जापानी नौसेनाओं को सेवा और ईंधन भरने के लिए एक दूसरे की सुविधाओं तक पहुंच प्रदान करेगा। यह सौदा लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरैंडम ऑफ एग्रीमेंट (एलईएमओए) के जैसा है, जो भारत ने साल 2016 में अमेरिका के साथ किया था।जापान के पीएम शिंजो एबे ने अपील की थी कि चीन से मुकाबला करने के लिए जापान, इंडिया, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका को मिलकर एक डेमोक्रेटिक सिक्युरिटी डायमंड बनाना चाहिए।

जापानी प्रधानमंत्री शिंज़ो अबे के ‘आर्क ऑफ फ्रीडम सिद्धांत’  के अनुसार यह जापान के हित में है कि वह भारत के साथ मधुर सम्बन्ध रखे। ख़ासतौर से उसके चीन के साथ तनाव पूर्ण रिश्तों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो भारत की ओर से भी चीन के साथ रिश्तों और वैश्विक परिप्रेक्ष्य में जापान को काफ़ी महत्व दिया गया है। चीन के दोनों ही देशों के साथ सीमा विवाद हैं। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार की  ‘पूर्व की ओर देखो नीति’ ने भारत को जापान के साथ मधुर और पहले से बेहतर सम्बन्ध बनाने की ओर प्रेरित किया था उसके बाद प्रधानमंत्री मोदी की ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ से इसे और अधिक बल मिला है।

 

क्‍या है लुक ईस्‍ट नीति, 1992

साल 1991 में जब केंद्र में नरसिंहा राव की सरकार थी तो लुक ईस्‍ट पॉलिसी को शुरू किया गया। इस नीति  को भारत के विदेश नीति के संदर्भ में एक नई दिशा और नए अवसरों के रूप में देखा गया। नरसिंहा राव के बाद वाजेपई सरकार और फिर यूपीए सरकार ने भी इसे आगे बढ़ाया। इस नीति का मकसद दक्षिण-पूर्व एशिया में चीन के महत्‍व को कम करना है। पूर्व अमेरिकी राष्‍ट्रपति बराक ओबामा ने भी भारत की 'लुक ईस्‍ट' पॉलिसी की सराहना की थी। उनके प्रशासन में विदेश मंत्री रहीं हिलेरी क्लिंटन ने कहा था कि उनका देश भारत की इस नीति का समर्थन करना चाहता है। हालांकि विशेषज्ञ मानते हैं कि अमेरिका ने हिंद और प्रशांत महासागर में अपने प्रभुत्‍व को बढ़ाने के मकसद से यह बात कही थी।

 

क्‍या है एक्‍ट ईस्‍ट पॉलिसी, 2015

भारत की एक्‍ट ईस्‍ट पॉलिसी एशिया-प्रशांत क्षेत्र में मौजूद देशों के बीच सहभागिता को बढ़ावा देने के मकसद से लाई गई थी। इस नीति ने पूर्व सरकारों की ओर से लुक ईस्‍ट की नीति को एक कदम आगे बढ़ाया था। इस नीति को जब शुरू किया गया तो इसे एक आर्थिक पहल के तौर पर देखा गया था लेकिन अब इस नीति ने एक राजनीतिक, रणनीतिक और सांस्‍कृतिक अहमियत भी हासिल कर ली है जिसके तहत देशों कें बीच बातचीत और आपसी सहयोग को बढ़ाने के लिए एक तंत्र की शुरुआत भी कर दी गई है। भारत ने इस नीति के तहत इंडोनेशिया, विएतनाम, मलेशिया, जापान, रिपब्लिक ऑफ कोरिया, ऑस्‍ट्रेलिया, सिंगापुर और आसियान देशों के साथ ही एशियाई-प्रशांत क्षेत्र में मौजूद देशों के साथ संपर्क को बढ़ाया है।

एक्‍ट ईस्‍ट पॉलिसी ने भारत-आसियान देशों के बीच मौजूद इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर, मैन्‍युफैक्‍चरिंग, व्‍यापार, स्किल डेवलपमेंट, शहरी विकास और स्‍मार्ट सिटी के साथ मेक इन इंडिया जैसी पहल पर जोर दिया है। इसके साथ ही साथ देशों के साथ कई तरह के कनेक्टिविटी प्रोजेक्‍ट्स, अंतरिक्ष और नागरिकों के बीच संपर्क बढ़ाना भी इसका मकसद है ताकि क्षेत्र में विकास हो सके और लोग समृद्ध रहें। एक्‍ट ईस्‍ट पॉलिसी का उद्देश्य आर्थिक सहयोग, सांस्‍कृतिक संबंधों को आगे बढ़ाना और रणनीतिक साझेदारी को आगे बढ़ाना है। विदेश मंत्रालय की वेबसाइट के मुताबिक इस पॉलिसी में नॉर्थ ईस्‍ट एक प्राथमिकता है। इस वर्ष गणतंत्र दिवस के मौके पर आसियान देशों के राष्‍ट्राध्‍यक्षों को बतौर मुख्‍य अतिथि बुलाया गया। यह मेहमान इसी नीति के तहत भारत के राष्‍ट्रीय पर्व का हिस्‍सा बने थे। पीएम मोदी कई बार एशियाई देशों के दौरे पर इस नीति का जिक्र कर चुके हैं।

 

आर्थिक सहयोग-

जापान की कई कम्पनियाँ जैसे कि सोनी, टोयोटा और होंडा ने अपनी उत्पादन इकाइयाँ भारत में स्थापित की हैं और भारत के आर्थिक विकास में योगदान दिया है। इस क्रम में सबसे अभूतपूर्व योगदान है वहाँ की मोटर वाहन निर्माता कंपनी सुज़ुकी का जो भारत की कंपनी मारुति सुजुकी के साथ मिलकार उत्पादन करती है और भारत की सबसे बड़ी मोटर कार निर्माता कंपनी है। जापान ने भारत में अवसंरचना विकास के कई प्रोजेक्ट का वित्तीयन भी किया है और इनमें तकनीकी सहायता उपलब्ध करायी है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण रूप से उल्लेखनीय है दिल्ली मेट्रो रेल का निर्माण।

वर्तमान समय में भारत जापान द्विपक्षीय व्यापर लगभग 14 अरब डालर का है जिसे बढ़ा का 25 अरब डालर करने का लक्ष्य रखा गया है। साथ ही जापान का भारत में लगभग 15 अरब डालर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी है। चीन, भारत और जापान दोनों देशों के लिए ही सामरिक और व्यापारिक लिहाज से चुनौती बना हुआ है। इस परिप्रेक्ष्य में दोनो देशों के हित साझा हैं।

 

 

 

एशिया अफ्रीका विकास गलियारा

एशिया अफ्रीका विकास गलियारा (एशिया अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर) या एएजीसी भारत और जापान की सरकारों के बीच एक गुणवत्ता पूर्ण आर्थिक सहयोग विकास करार है। हर साल होने वाले भारत और जापान की बैठक में इस बार एशिया अफ्रीका कॉरिडोर का मुद्दा इसलिए महत्वपूर्ण बन गया है, क्योंकि इसे चीन के विवादास्पद वन बेल्ट वन रोड प्रोज़ेक्ट का भारत की ओर से करारा जवाब माना जा रहा है।

भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने 24 मई 2017 को गुजरात के गाँधीनगर में अफ़्रीकी विकास बैंक (एएफडीबी) की 52वीं वार्षिक बैठक के आयोजन में एशिया अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर के लिए एक विज़न या दृष्टिगोचर दस्तावेज़ लॉन्च किया। एएजीसी का विचार नवम्बर 2016 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे के द्वारा संयुक्त घोषणा में सामने आया था।

इस विजन को तीन एजेंसियों ने मिल कर बनाया है- विकासशील देशों (आरआईएस) नई दिल्ली, आसियान और पूर्वी एशिया, जकार्ता तथा इंस्टीट्यूट ऑफ़ डेवलपिंग इकोनॉमिक,  आर्थिक अनुसन्धान संस्थान, टोक्यो के द्वारा संयुक्त रूप से तैयार किया गया है। इसका मूल उदेश्य यह है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के सहयोग से पूरे एशिया -अफ्रीका क्षेत्र का विकास हो। सरकार, व्यापार और शिक्षा सहित विभिन्न संस्थाओं को एएजीसी में सहयोग मिलेगा। एएजीसी एशिया और अफ्रीका के विकास अवसरों और आकांक्षाओं के लिए एक रोड मैप है। इसको विकास परियोजनाओं के स्वास्थ्य और फार्मास्युटीकल्स, कृषि और कृषि से सम्बंधित प्रसंस्करण, आपदा प्रबंधन और कौशल वृद्धि को प्राथमिकता देने के उद्देश्य से शुरू किया गया था।

भारत और अफ्रीका की व्यापार सुविधा एएजीसी का मुख्य घटक है। इस तरह एएजीसी के चार मुख्य घटक निम्नलिखित है- 1.विकास और सहयोग की परियोजना, 2.गुणवत्ता के बुनियादी ढांचे या अवसंरचना और संस्थान कनेक्टिविटी, 3.क्षमता और कौशल वृद्धि, 4.दोनों देशों के लोगों से लोगों की भागीदारी या साझेदारी।

ये चारों घटक विकास को बढ़ावा देने के लिए अनिवार्य है। इस तरह के विजन से अफ्रीका और भारत दोनों को लाभ प्राप्त होगा। अगर अफ्रीका इसके लिए अमेरिका या यूरोप की तरफ रुख करता है तो वह उसके लिए महँगा सौदा होगा, इसलिए अफ्रीका के सस्ते व्यापार या निवेश के लिए भारत सबसे अच्छा देश है।

चीन के वन बेल्ट वन रोड परियोजना के विपरीत अब एएजीसी परियोजना का मुख्य दृष्टिकोण, प्राचीन समुद्री मार्गों को फिर से खोजते हुए, भारत और दक्षिण एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के साथ अफ़्रीकी महाद्वीप को जोड़ने वाले नए समुद्र के गलियारे को बनाना है। जोकि अनिवार्य रूप से भारत और दक्षिण अफ्रीका के अन्य देशों के साथ साथ अफ्रीका को जोड़ने वाला समुद्र का गलियारा होगा। चीन बड़ी ही तेजी से अफ्रीका में विस्तार कर रहा है इसलिए भारत और जापान को कुछ संयुक्त परियोजनाएं शुरू करनी चाहिए। इसलिए एएजीसी विजन एशिया और अफ्रीका के संबंधों के लिए एक विकास पूर्ण और विश्वास पूर्ण कार्यक्रम साबित हो सकता है।


बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट

भारत में रेल प्रणाली की लेट लतीफी एक आम घटना है। वहीं जापान में ट्रेन परिचालन प्रणाली दुनिया भर में अपनी समयबध्दता के लिए विख्यात है। पिछले साल हुए भारत-जापान बुलेट ट्रेन करार के बाद भारत की 164 वर्ष पुरानी उपनिवेशयुगीन रेल प्रणाली एक लंबी छलांग लगाने की तैयारी कर रही है। भारत में हाईस्पीड बुलेट ट्रेन के आने से भारत के ट्रांसपोर्ट सेक्टर का कायापलट होने की उम्मीद है। अविशिष्ट गति से चलने के अलावा बुलेट ट्रेने समय की पाबंदी और अपनी सुरक्षा सुविधाओं के लिए भी जानी जाती हैं। यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने जापानी समकक्ष शिंजो अबे की गुजरात यात्रा के दौरान हाईस्पीड रेल लाइन समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। भारत में यह हाईस्पीड ट्रेन मुंमबई अहमदाबाद के बीच चलाई जाएगी। इसके लिए भारत जापान से प्रतिष्ठित शिकानसेन तकनीकि आयात कर रहा है। इस प्रोजेक्ट के कुल व्यय का 81 फीसदी जापान सरकार द्वारा भारत को एक साॅफ्ट लोन के तौर पर दिया जाएगा। यह राशि मात्र 0.1 प्रतिशत वार्षिक ब्याज की दर से 50 वर्षों के अंदर लौटानी होगी। जिसे 15 वर्षों तक और आगे बढ़ाया जा सकता है। इसके अलावा जापान भारत को तकनीकी सहायता एवं प्रशिक्षण भी देगा। इसकी लंबाई 508 किमी होगी। इस परियोजना में 21 किमी. लंबी भारत की सबसे लंबी टनल भी बनाई जाएगी, जिसमें से 7 किमी टनल समुद्र में नीचे से होकर गुजरेगी। इससे मुंबई से अहमदाबाद की दूरी मात्र 2 घंटे 58 मिनट में तय हो जाएगी।इसमें लगभग 17 अरब डॉलर का खर्च आएगा। इसके 1 किमी. ट्रैक निर्माण में करीब 100 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। भारत जैसा देश जो अभी तक अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी नही कर पाया है, इस रेल प्रणाली पर इतना अधिक व्यय असंगत लग सकता है। काकोदकर समिति के अनुसार भारत में रेलवे के पुराने ट्रैक को मरम्मत करने में लगभग 1 लाख करोड़ रुपये की आवश्यकता है। ऐसे में सिर्फ एक ट्रैक पर 1 लाख 20 हजार करोड़ रुपये खर्च कर देना धन का अपव्यय लगता है। लेकिन इससे रोजगार का सृजन, निर्माण क्षेत्र में वृध्दि, समय की बचत, व्यापारिक दूरियों का कम होना, तकनीकी विस्तार, राजनीतिक एवं कूटनीतिक संबंध मजबूत होने जैसे कई फायदे भी हैं।

 

मालाबार अभ्यास-

मालाबार युद्भ्यास संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान और भारत के बीच एक त्रिपक्षीय नौसेना अभ्यास है। मूल रूप से यह 1992 में भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच द्विपक्षीय अभ्यास के रूप में शुरू हुआ था।

जापान 2015 में इसका हिस्सा बना। तब से तीनों देश हर साल स्थायी रूप से इसमें हिस्सा ले रहे हैं। इस युद्भ्यास के गैर-स्थायी प्रतिभागी ऑस्ट्रेलिया और सिंगापुर हैं। इसमें समुद्री गतिविधियों जैसे समुद्री विमानों के संचालन, वाहक से लड़ाकू विमानों के युद्ध संचालन से लेकर विविध गतिविधियां शामिल हैं।

 

दक्षिणी चीन सागर विवाद-

दक्षिण चीन सागर प्रशांत महासागर का हिस्सा है। दक्षिण चीन सागर में कई सारे एटोल, शॉल, सैंडबार, रीफ्स और 250 से अधिक छोटे-छोटे द्वीप हैं। दक्षिण चीन सागर करीब 35 लाख वर्ग किलो मीटर जगह तक फैला हुआ है। इस समुद्र के आस-पास चीन, ताइवान, फिलीपींस, मलेशिया, ब्रुनेई, इंडोनेशिया, सिंगापुर और वियतनाम देश हैं। ये सारे देश दक्षिण चीन सागर पर अपना हक बताते हैं।

दक्षिण चीन सागर में तेल और प्राकृतिक गैस, काफी मात्रा में मौजूद हैं। इसके अलावा दुनिया के मछली व्यापार की 10 प्रतिशत मछलियां भी इस सागर से पकड़ी जाती है। दक्षिण चीन सागर के माध्यम से कई ट्रिलियन की कीमत का सामान कई देशों के बीच आयात और निर्यात भी किया जाता है। यानी व्यापार की नजर से देखा जाए, तो अगर ये सागर किसी देश का हिस्सा होता है, तो उस देश को काफी फायदा होगा और दुनिया में उसका दबदबा और भी बढ़ जाएगा। यही कारण है कि इस सागर पर कई देश अपना दावा पेश कर रहे हैं। ये सागर हिंद महासागर और प्रशांत महासागर के बीच की कड़ी है। इतना ही नहीं ये सागर मध्य पूर्व, यूरोप और पूर्वी एशिया को शिपिंग लाइनों के साथ जोड़ता है। ऐसे में समुद्री जहाजों द्वारा किए जाने वाले आयात और निर्यात में ये सागर एक अहम भूमिका निभाता है और अगर इस सागर पर किसी देश का हक होता है, तो फिर किसी भी जहाज को इस सागर के गुजरने के लिए उस देश को शुल्क देना होगा।

बहुत सारे देश दक्षिण चीन सागर के जलमार्ग पर अपना दावा करते हैं। ऐसी स्थिति में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा सागर को लेकर बनाए गए कानून का पालन किया जाता है। इस कानून के तहत कोई भी देश अपने तट से 370 किलो मीटर की सीमा के भीतर क्षेत्रीय जल को नियंत्रित कर सकते हैं। इस सीमा के बाहर वाले जलमार्ग पर उनका दावा नहीं होगा और नियंत्रित जलमार्ग को विशेष आर्थिक क्षेत्र की श्रेणी में रखा जाता है। इसके अलावा जो भी जलमार्ग विशेष आर्थिक क्षेत्र की श्रेणी में नहीं आते हैं, वो अंतर्राष्ट्रीय जलमार्ग होंगे और हर किसी के द्वारा साझा किए जा सकेंगे और उनमें नेविगेशन के लिए कोई शुल्क किसी भी देश से नहीं लिया जाएगा।

यूएनसीएलओएस के अनुसार कोई भी देश ऎसी जलमग्न भूमि पर अपना दावा पेश नहीं करेगा और उस पर कोई भी अवैध निर्माण नहीं किया जा सकेगा। वहीं चीन ने 1982 में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में तय किए गए विशेष आर्थिक क्षेत्र के नियम को स्वीकार नहीं किया था। इसलिए वो जलमग्न भूमि को कृत्रिम द्वीप बनाने में लगा हुआ है। इसके अलावा फिलीपींस, वियतनाम और ताइवान जैसे देशों ने भी कुछ द्वीपों पर अपनी सेनाएं तैनात कर रखी हैं।

 

चीन अपने प्राचीन समुद्री रिकॉर्ड को पेश करते हुए दावा करता आ रहा है कि इस सागर पर सन् 1947 से ही उसका कब्जा है। इतना ही नहीं चीन नाइन-डैश लाइन के अंदर आने वाले दक्षिण चीन सागर के हिस्से को अपना बताता है। वहीं साल 1947 में चीन ने 11 डैश के माध्यम से तैयार किए गए नक्शे से दावा किया था, कि इस नक्शे के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र पर पहले से ही चीन का कब्जा है। साल 1950 के आसपास टोंकिन की खाड़ी को 11 डैश से चीन ने निकाल दिया था, जिसके बाद ये नाइन-डैश लाइन बन गई। अगर चीन के इस ऐतिहासिक दावे को सही मान लिया जाए, तो इस सागर का 95 प्रतिशत क्षेत्रफल उसके पास चला जाएगा। जिससे की उसकी आर्थिक हालत दुनिया में और भी ज्यादा मजबूत हो जाएगी। वहीं अंतर्राष्ट्रीय अदालत ने चीन द्वारा नाइन-डैश लाइन के आधार पर जो उसका दावा दक्षिण चीन सागर पर किया जा रहा है, उसे सही नहीं माना है।

 

 

अमेरिका की भी दक्षिण चीन सागर में मौजूदा तेल और अन्य प्राकृतिक चीजों और सुरक्षा के लिहाज से इस सागर पर नजर है। इसलिए अमेरिका इस सागर को अंतर्राष्ट्रीय जल मानता है और संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून के तहत इस सागर पर नेविगेशन करना नि: शुल्क मानता है। वहीं जापान, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया की सीमा दक्षिण चीन सागर से नहीं लगती है, मगर फिर भी इन देशों ने इस सागर पर अपनी नजर रखी हुई है।

 

 

सारांश

भारत और जापान के बीच मैत्री का एक लंबा इतिहास है जो आध्यात्मिक सोच, समानता तथा मजबूत सांस्कृतिक एवं सभ्यतागत रिश्तों पर आधारित है। दोनों देश लोकतंत्र, व्यक्तिगत आजादी और कानूनों के शासन में विश्वास रखते हैं। आज भारत एशिया में सबसे बड़ा लोकतंत्र है, और जापान एशिया का सबसे खुशहाल देश। ऐसे में दोनों देशों के आपसी हितों और सहयोग को संक्षेप में 5 मूल बिंदुओं पर समझा जा सकता है-

 

  • पहला, भारत परिवर्तन के एक नये दौर से गुजर रहा है। देश की 50 फीसदी से ज्यादा आबादी 30 साल से कम उम्र की है और देश से रोजगार की अपेक्षा रखती है। मोदी की मेक इन इंडिया नीति इस चुनौती से निपटने में कारगर सिध्द हो सकती है बशर्ते रोजगार सृजन के लिये पर्याप्त निवेश हो और आवश्यक ढांचागत सुविधाओं का निर्माण हो। पिछले तीन वर्षो में जापान ने भारत को इस दिशा मे काफी योगदान दिया है।

 

  • दूसरा अहम मुद्दा है चीन का वन बेल्ट वन रोड या बेल्ट और रोड प्रोजेक्ट जिसने भारत और जापान दोनों ही देशों को चीन की दूरगामी सामरिक और आर्थिक रणनीति के बारे मे सशंकित कर रखा है। दोनों ही देश चीन के साथ अपने अपने सीमा विवाद को लेकर उलझे हुए हैं, और चीनी दुस्साहस से भी खासे परेशान हैं। भारत-चीन के बीच हाल ही में समाप्त हुए डोकलाम विवाद से ये स्पष्ट होता है। डोकलाम का एक सकारात्मक पहलू ये रहा कि इस मुद्दे पर जापान ने खुल कर भारत का साथ दिया, जबकि अमेरिका ने इस मामले पर चुप्पी साधे रखना ही बेहतर समझा।

 

  • इससे जुड़ा तीसरा महत्वपूर्ण पहलू है एशिया में तेजी से रफ्तार पकड़ती दौड़ का जिसमें एक तरफ तो चीन बेल्ट और रोड प्रोजेक्ट से देशों को अपनी ओर मिलाने की कोशिश में लगा है, तो वहीं भारत और जापान भी इस दौड़ में पीछे रहने को तैयार नहीं दिखते। दोनों देशों का साझा "एशिया अफ़्रीका विकास गलियारा (एएजीसी) इस दिशा में एक बड़ा कदम है। 40 अरब डॉलर के इस प्रस्ताव में जापान 30 और भारत 10 अरब डॉलर का निवेश करेगा। इस कदम को चीन के बेल्ट और रोड प्रोजेक्ट के जवाब के रूप मे देखा जा रहा है।

 

  • चौथे, भारत अपनी ऊर्जा जरूरतों को लेकर खासा परेशान रहा है। अंतर्राष्ट्रीय सोलर अलायन्स इसी चिंता और सोच का परिणाम है। भारत ने अमेरिका, फ़्रांस और रूस समेत तमाम देशों के साथ परमाणु ऊर्जा सहयोग पर भी काम करना शुरु कर दिया है। जापान ने अपनी परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर न करने वाले किसी देश के साथ असहयोग की अपनी कसम भी भारत के लिये तोड़ दी और दोनों देशों ने परमाणु ऊर्जा सहयोग पर साझा सहयोग का मसौदा भी मंजूर कर लिया है, जिसके भारत के लिये दूरगामी परिणाम होंगे।

 

  • और आखिर में पांचवा यह कि भारत और जापान एशिया के भविष्य को लेकर एकमत हैं और एशिया को बहुध्रुवीय बनाने के लिये कृतसंकल्प हैं। बढ़ते सामरिक और सैन्य सहयोग से यह ज्यादा स्पष्ट होता है और बहुमुखी आर्थिक और व्यापारिक साझेदारी से ज्यादा मजबूत।

 

कुल मिलाकर कहा जाए तो भारत और जापान के सम्बन्ध हमेशा से काफ़ी मजबूत रहे हैं। जापान की संस्कृति पर बौद्ध धर्म का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान भी जापान की शाही सेना ने सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज को सहायता प्रदान की थी। भारत की स्वतंत्रता के बाद से भी अब तक दोनों देशों के बीच मधुर सम्बन्ध रहे हैं। आशा की जानी चाहिए कि जापान भारत का दीर्घकालीन मित्र देश बना रहे और दोनों देश एक-दूसरे की सहायता से एशिया की सशक्त, वर्चस्वशाली और संप्रभु शक्तियां बननें में कामयाब रहें।