मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन में नीतिशास्त्र का क्या स्थान है? (What is the place of ethics In man's personal life?)

Posted on March 17th, 2020 | Create PDF File

नीतिशास्त्र मुख्यतः मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन पर केन्द्रित है। यह मानवीय व्यवहार के प्रेरक तत्वों का अध्यन करता है। यद्यपि सभी क्रिया व्यवहार सार्वजनिक जीवन में अभिव्यक्ति होते हैं। अर्थात्‌ मनुष्य का वैयक्तिक चिंतन सार्वजनिक क्रियाकलापों में साकार रूप लेता है।

 

सर्वप्रथम महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन में नीतिशास्त्र का क्या स्थान हैं? मनुष्य के प्रत्येक कर्म का कारण एवं लक्ष्य देता है। मनुष्य किसी विशेष परिस्थिति में किसी कार्य विशेष का चयन क्‍यों करता है। यह उसकी अभिवृत्ति एवं नैतिक मूल्य पर निर्भर करता है। अर्थात्‌ कार्य के मूल में निहित भावना में ही नैतिक मूल्य विद्यमान रहता है। मनुष्य सदैव निर्णय लेता है। निर्णय बिना मापदंड के संभव नहीं है। ये मापदंड वस्तुतः नैतिक मूल्य होते हैं। मनुष्य के प्रत्येक कार्य का लक्ष्य होता है। लक्ष्य का निर्धारण ही बिना मापदंड के संभव नहीं है। प्रत्येक लक्ष्य का अपना नैतिक मूल्य होता है। अर्थात्‌ कार्य के कारण एवं लक्ष्य दोनों नैतिक प्रतिमानों से निर्धारित होते हैं।

 

व्यक्तिगत जीवन में नैतिकता को प्रायः दार्शनिकों ने साध्य एवं साधन के रूप में देखा है। प्रत्येक कार्य के दो पक्ष होते हैं-साधन एवं साध्य। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। इस संदर्भ में गांधी, एवं मार्क्स का विवाद विचारणीय है। गांधी का कथन है कि साधन साध्य के औचित्य को सिद्ध करता है। इस कथन का अभिप्राय है कि जिस प्रकार का साधन होता है साध्य भी उसी के अनुरूप होता है। साधन साध्य के स्वरूप को निर्धारित करता है। यदि साधन शुभ है तो साध्य भी अनिवार्यता शुभ होता है और यदि साधन अशुभ है तो साध्य भी अंततः अशुभ ही सिद्ध होता है।

 

गांधी साधन एवं साध्य के मध्य अवियोज्य संबंध को स्वीकार करते हैं। जिस प्रकार बीज और वृक्ष में संबंध होता है। वृक्ष बीज की ही अभिव्यक्ति है। वृक्ष में वही अभिव्यक्त होता है, जो बीज में पहले से विद्यमान है। इसीलिए गांधी ने कहा कि साधन की पूर्णता ही साध्य है। गांधी की दृष्टि में साधन और साध्य में कोई भेद नहीं हैं। यदि साधन को पूर्णता में स्वीकार किया जाए तो वह साध्य का रूप ले लेता है। गांधी साधन को ही साध्य के रूप में देखते हैं। गांधी का तर्क है हिंसा,प्रतिहिंसा को जन्म देती है। हिंसा से शांति की स्थापना संभव नहीं है। शांति और हिंसा परस्पर विरोधी है। शांति की स्थापना केवल अहिंसा से ही संभव है। गांधी ने अहिंसा को साधन और सत्य को साध्य के रूप में स्वीकार किया ।

 

मार्क्स का कथन है कि साध्य, साधन के औचित्य को सिद्ध करता है। मार्क्स का तर्क है यदि साध्य शुभ है तो कोई भी साधन अपनाए जा सकते हैं। मार्क्स साध्य की शुभता पर केन्द्रित हैं। मार्क्स का साध्य है वर्गहीन, राज्यहीन, साम्यवादी समाज । मार्क्स अपने इस आदर्श के लिए हिंसा के साधन को भी स्वीकार करने में हिचकते नहीं है। मार्क्स का तर्क है कि मनुष्य स्वभावतः: अपने अधिकारों को त्यागता नहीं है। इसके लिए जोर जबरदस्ती या हिंसा आवश्यक प्रतीत होती है। इसलिए मार्क्स क्रांतिकारी समाजवाद के पक्षधर है। मार्क्स ने पूंजीपतियों को अपदस्थ करने के लिए सर्वहारा की तानाशाही को परिभाषित एवं स्वीकार किया है। 

 

वास्तव में मार्क्स एवं गांधी दोनों समाजवादी, आदर्शवादी एवं क्रांतिवादी हैं। लेकिन दोनों दार्शनिकों में मूल मान्यताएं स्पष्टतः भिन्‍न हैं। गांधी मनुष्य को नैतिक प्राणी,जबकि मार्क्स इसे जैविक प्राणी स्पीकार करते हैं। गांधी का दर्शन जहाँ अध्यात्मवादी है, वहीं मार्क्स का दर्शन भौतिकवादी है। गांधी का समाजवाद 'सर्वोदय' की आधारणा पर जबकि मार्क्स का समाजवाद 'साम्यवाद' पर आधारित है। गांधी की क्रांति 'ह्र्दय परिवर्तन' पर जबकि मार्क्स की क्रांति व्यवस्था परिवर्तन" पर आधारित है। गांधी की क्रांति के केन्द्र में 'व्यक्ति' जबकि मार्क्स की क्रांति के केन्द्र में 'समाज' है। गांधी का अराजकतावाद 'न्यूनतम राज्य' है जबकि मार्क्स का 'अराजकतावारद' राज्यविहीन समाज' पर आधारित है। गांधी लघुउद्योग, पंचायती राज एवं ट्रस्टीशिप सिद्धान्त के पक्षधर हैं, जबकि मार्क्स बड़े उद्योगों, व्यापक उत्पादन और साम्यवाद के पक्षधर हैं। अर्थात्‌ कहा जा सकता है कि गांधी एवं मार्क्स दोनों के आदर्श एक होते हुए भी दोनों के सिद्धान्तों में पर्याप्त भेद है, जिसका मूल कारण भौतिकवाद एवं अध्यात्मकवाद दो भिन्‍न दर्शन है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में दोनों के समन्वय की आवश्यकता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात्‌ नेहरू ने इन दो विरोधी सिद्धान्तों के मध्य का मार्ग अपनाया। नेहरू ने जहॉ एक तरफ गांधी के पंचायती राज, लघु उद्योग एवं ट्रस्टीशिप को स्वीकार किया वहीं दूसरी तरफ उन्होंने मार्क्स के भौतिकवाद समाजवाद, बड़े उद्योग, व्यापक उत्पादन आदि को भी महत्व दिया।मिश्रित अर्थव्यवस्था एवं राष्ट्रीय विषयों का समाजीकरण वस्तुतः इन दो विरोधी सिद्धान्तों के समन्वय का ही प्रयास है। वैश्विक परिदृश्य में भौतिकवाद एवं सापेक्षवाद पूर्णतः दार्शनिक रूप से मान्य हो चुके हैं। इस एकध्रुवीय विश्व में इस चिंतन का विरोध संभव नहीं है। आवश्यकता इस चिंतन के अनुरूप अपने लक्ष्यों का निर्धारित एवं उन्हें प्राप्त करने की है।