महात्मा गाँधी का नैतिक दर्शन (Mahatma Gandhi's moral philosophy)

Posted on March 18th, 2020 | Create PDF File

गांधी अहिंसा को साधन और सत्य को साध्य के रूप में परिभाषित करते हैं। उनकी दृष्टि में अहिंसा और सत्य में कोई भेद नहीं है। पूर्ण अहिंसा ही सत्य है। किसी को किसी भी प्रकार से क्षति या कष्ट न पहुंचाना ही हिंसा है। गांधी ने यहाँ तक कहा कि अकारण किसी पत्ते को तोड़ना भी हिंसा है जबकि किसी महान लक्ष्य के लिए आत्म बलिदान करना अहिंसा है। लेकिन आत्महत्या गांधी की दृष्टि में जघन्य अपराध है। यह ईश्वर का निषेध है।

 

गांधी का नैतिक चिंतन गीता के लोक कल्याण की अवधारणा पर आधारित है। गांधी के चिंतन के मुख्यतः तीन पक्ष हैं-नैतिक, राजनैतिक एवं आर्थिक। नैतिक चिंतन में गांधी ने सत्य और अहिंसा नामक सिद्धान्त की स्थापना की जिस पर उपर्युक्त विचार किया जा चुका है। गांधी का राजनेतिक चिंतन उनके पंचायती राज, स्वराज एवं ट्रस्टीशिप सिद्धान्त पर आधारित है। गांधी ने रामराज्य को ही स्वराज्य या ग्रामराज्य की संज्ञा दी है। गांधी का तर्क है कि भारत के प्रत्येक गाँव राजनैतिक, आर्थिक एवं वैधानिक रूप से आत्मनिर्मर होने चाहिए। अर्थात्‌ ये तीनों आवश्यकताएं ग्राम के स्तर पर ही पूरी हो जानी चाहिए। इसके लिए गांधी ने पंचायती राज का सिद्धान्त प्रस्तुत किया, जिसे आगे चलकर संविधान में अंगीकार किया गया।

 

गांधी का कथन है कि सत्ता एवं धन का केंद्रीयकरण शोषण का साधन है। इसलिए वे शक्ति एवं धन दोनों के विकेन्द्रीकरण के पक्षधर थे। राजनीति के संदर्भ में गांधी की दूसरी महत्वपूर्ण अवधारणा ट्रस्टीशिप सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार केन्द्रीय सत्ता के प्रतिनिधि शक्ति के स्वामी नहीं, बल्कि शक्ति के वाहक मात्र हैं।वास्तविक शक्ति जनता में निहित रहती है। जनप्रतिनिधि शक्ति के केवल ट्रस्टी हैं।

 

गांधी अंततः अराजकतवादी हैं। उनका अराजकतावाद 'प्रबुद्ध अराजकतावाद' कहलाता है। उनका कथन है कि न्यूनतम राज्य ही सर्वश्रेष्ठ राज्य है। राज्य व्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास संभव नहीं होता। इसलिए वही राज्य सर्वश्रेष्ठ है जो वैयक्तिक स्वतंत्रता में न्यूनतम हस्तक्षेप करता है।

 

गांधी का आर्थिक चिंतन लघु उद्योग एवं धन के विकेन्द्रीकरण पर आधारित है।गांधी का तर्क है कि बड़े उद्योग प्रकृति के दोहन पर आधारित होते हैं तथा ये साधारण व्यक्ति के शोषण के साधन बनते हैं। ये पूंजीपति एवं श्रमिक का विभाजन करते हैं। इसलिए गांधी लघु उद्योग के पक्षधर थे। यद्यपि नेहरू तत्कालीन परिस्थिति में गांधी के इस सिद्धान्त से बहुत सहमत नहीं थे।

 

गांधी का सामाजिक चिंतन पारंपरिक-सामाजिक व्यवस्था पर आधारित है। गांधी वर्ण व्यवस्था के पक्षधर थे। गांधी का तर्क था कि उद्योग व्यक्तिगत लाम के नहीं, बल्कि सामाजिक सहयोग के लिए होना चाहिए। गांधी का यहाँ तक मानना था कि पारंपरिक वर्णव्यवस्था में विद्यमान उद्योगों को ज्यों का त्यों बने रहना चाहिए। यद्यपि गांधी के चिंतन का यह सबसे कमजोर पक्ष है। इसी बिन्दु पर गांधी और अंबेडकर के मध्य विवाद गहरा गए।

 

 

गांधी का जीवन स्वतः एक जीवन्त दर्शन था। उनकी कथनी और करनी में कोई भेद नहीं था। पाश्चात्य दार्शनिकों में प्रायः उनके आचरण और विचार में भेद पाया जाता है। गांधी ने अपनी जीवन को स्वयं सत्य का प्रयोग कहा। गांधी अध्यात्मवादी थे। गांधी का दर्शन मुख्यतः: गीता पर आधारित है। यद्यपि वे टॉलस्टाय, थ्योरो आदि से प्रभावित थे। गांधी की दृष्टि में जीवन का लक्ष्य आत्मपूर्णता की प्राप्ति है और आत्मपूर्णता की प्राप्ति लोक कल्याण करते हुए महान नेतिक मूल्यों को साकार रूप देना है। गांधी कर्मयोगी थे। गांधी ने गीता के कर्म मार्ग को अपनाया तथा वैयक्तिक मुक्ति के बजाय सामूहिक मुक्ति को वरीयता दी। गांधी ने आत्मसाक्षात्कार के बजाय आत्मपूर्णता को स्वीकार किया। गांधी का यह व्यापक चिंतन सामाजिक दायित्व की प्रेरणा देता है।

 

गांधी गीता के इस दर्शन में अटूट आस्था रखते थे कि मनुष्य का अधिकार केवल कर्म पर है फल पर नहीं। इसलिए वे कर्म की पूर्णता पर ही ध्यान रखते थे। इसीलिए गांधी ने कहा कि साधन की पूर्णता ही साध्य है। इस संदर्भ में निःसंदेह गांधी की महानता प्रकट होती है। गीता के निष्काम कर्म को साकार रूप देना गांधी जैसे व्यक्ति के लिए ही संभव है। गांधी गीता के “अनासक्ति योग' से भी अत्यधिक प्रभावित थे। गांधी ने कहा कि हमें अपनी आवश्यकताओं को न्यूनतम करना चाहिए तथा अपने पास उतना ही रखना चाहिए जितना अन्यों के लिए सुलभ हो। गांधी ने कहा कि प्रकृति सभी मनुष्य की आवश्यकता को पूर्ण कर सकती है लेकिन एक भी व्यक्ति के लालच को नहीं। वास्तव में गांधी के इस दार्शनिक चिंतन का व्यावहारिक पक्ष आर्थिक समता एवं शोषण का अभाव था। गांघी ने स्वयं कहा कि आर्थिक समता ही स्वराज्य की कुंजी है। गांधी किसी भी प्रकार के शोषण के विरुद्ध थे। चाहे वह मनुष्य का हो या प्रकृति का। इस संदर्भ में गांधी के आर्थिक समता का सिद्धानत निःसंदेह प्रासांगिक था।

 

वास्तव में गांधी का दर्शन भविष्य में निहित है। रोमां रोला एवं डोरिक वाल्काट जैसे चिंतकों ने कहा कि वास्तव में गांधीवाद भविष्य का दर्शन है। जब पूंजीवाद अपने चरम परिणति को प्राप्त कर लेगा तो गांधीवाद स्वतः जीवन दर्शन बन जाएगा। आइंस्टीन ने भी कहा कि 500 वर्ष पश्चात्‌ शायद ही कोई यह विश्वास करेगा कि हाड़-मांस का यह पुतला गांधी कभी इस धरती पर विद्यमान था।