मनुष्य के सार्वजनिक जीवन में नीतिशास्त्र का क्या स्थान है? (What is the place of ethics In man's social life?)

Posted on March 18th, 2020 | Create PDF File

नैतिकता का दूसरा पक्ष सार्वजनिक जीवन है। सार्वजनिक जीवन का प्रारंभ परिवार नामक संस्था से ही हो जाता हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कोई भी दो व्यक्तियों के मध्य संबंध को सार्वजनिक जीवन की संज्ञा दी जाती है। सभ्यता के विकास के साथ व्यक्तिगत जीवन की परिधि अत्यंत संकीर्ण हो गई है। मनुष्य के वे सभी कार्य जो परोक्ष या अपरोक्ष रूप से दूसरों को प्रभावित करते हैं या प्रभावित करने का प्रयास करते हैं, सार्वजनिक जीवन की श्रेणी में आते हैं। यहाँ तक कि मनुष्य के वे वैचारिक कार्य जो समाज पर प्रभाव डालते हैं, वे भी सार्वजनिक जीवन की श्रेणी में आते हैं।

 

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कानून परिवार नामक संस्था में भी व्यापक हस्तक्षेप करता है। आज परिवार के भीतर पति-पत्नी एवं बच्चों के मध्य संबंध भी पूर्णतः: कानूनी रूप ले चुके हैं। आज महिला शोषण, महिला उत्पीड़न, बाल शोषण एवं बालकों के अधिकार, विवाह, महिलाओं की संपत्ति का अधिकार, बच्चों की शिक्षा का अधिकार आदि सब पूर्णतः: कानूनी रूप से परिभाषित हो गए हैं।

 

अर्थात्‌ सार्वजनिक जीवन का प्रारम्भ परिवार नामक संस्था से ही प्रारम्भ हो जाता है। भारतीय समाज पारंपरिक समाज है। परिवार से संबंधित जितने कानूनों का विधान किया गया है, भारतीय समाज उनका ही उपयोग नहीं करता। आवश्यकता इस बात की है कि इन कानूनों की जानकारी को बढ़ावा दिया जाना चाहिए तथा साथ ही इन कानूनों के उल्लंघन के लिए सामाजिक चेतना को विकसित किया जाना चाहिए |

 

वास्तव में नैतिकता का संबंध व्यक्ति एवं सामाजिक चेतना से है। व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवन में किन नैतिक मूल्यों को स्वीकार करता है। कानून एवं विधियों की अपनी सीमाएं हिं। वास्तव में मनुष्य की नेतिक चेतना का जब तक विकास नहीं होता तब तक उनके क्रिया व्यवहार में परिवर्तन नहीं ला सकता।

 

मनुष्य की सामाजिक चेतना का भी विकास अत्यंत आवश्यक है। सामाजिक चेतना का प्रारंभ परिवार नामक संस्था से होता है। यदि परिवार नामक संस्था में व्यक्ति आत्मकेन्द्रित निर्णय लेता है तो परिवार की सुव्यवस्था को सुस्थापित नहीं किया जा सकता है। परिवार एक आंगिक अवधारणा है। उसमें अधिकार एवं कर्तव्य दोनों निहित होते हैं। यदि किसी व्यक्ति में नैतिक बोध न हो तो उसके सभी निर्णय आत्मकेन्द्रित हो जाते हैं। जिसका प्रभाव परिवार के सभी सदस्यों पर पड़ता है। परिवार, समाज एवं राष्ट्र सभी संस्थाएं मनुष्य की क्रिया-व्यवहारों से प्रभावित होते हैं।

 

सार्वजनिक जीवन में नैतिकता अत्यंत महत्वपूर्ण है। जब तक मनुष्य में नैतिक बोध न हो तो तब तक पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्वों को पूरा करने में सक्षम प्रतीत नहीं होता। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में समाज एक संश्लिष्ट रूप ले चुका है। शासन एवं प्रशासन मनुष्य के दायित्वों को परिभाषित करने का प्रयास करते हैं।लेकिन इन दायित्वों को पूरा करना मनुष्य के नैतिक बोध पर निर्भर करता है।

 

प्रशासन में मनुष्य के उत्तरदायित्व को निर्धारित करने का प्रयास किया जाता है।लेकिन इन उत्तरदायित्वों को पूरा करना मनुष्य के नैतिक बोध पर निर्भर करता है।नैतिक बोध ही मानवीय संबंधों को निर्धारित करते हैं। समाज में प्रत्येक व्यक्ति आंगिक रूप से एक-दूसरे से संबंधित होते हैं। व्यक्ति एवं समाज में परस्पर अंर्तसंबंध बना रहता है।

 

राजनीति विज्ञान में भी व्यक्ति और समाज के मध्य संबंध को अत्यंत प्रमुखता दी जाती है। उदारवादी एवं समाजवादी दोनों प्रमुख विचारधाराएं समाज को प्राकृतिक संस्था के रूप में स्वीकार करती हैं। अर्थात्‌ मानव समाज प्रारंभ से ही विद्यमान रहा है। मनुष्य समाज में ही उत्पन्न होता है, समाज में ही अपने समस्त क्रिया व्यवहार करता है तथा अंततः समाज में ही समाप्त होता है। इसलिए उसके समस्त क्रिया व्यवहारों का मूल्यांकन सामाजिक प्ररिप्रेक्ष्य में किया जाता है। उदारवादी एवं समाजवादी दोनों विचारधाराएं व्यक्ति एवं समाज के मध्य संबंध को भिन्‍न रूप से देखते हैं।

 

उदारवाद व्यक्ति को एक स्वतंत्र इकाई के रूप में स्वीकार करता है। यह व्यक्ति की स्वतंत्रता पर अत्यधिक बल देता है तथा समाज को व्यक्तियों के समूह के रूप में परिभाषित करता है। यद्यपि जो प्रारंभिक उदारवाद व्यक्तिवादी था वह आगे चलकर उत्तर उदारवाद में सामाजिक रूप ले लेता है। लेकिन उदारवाद अपनी मूल मान्यता को त्यागता नहीं। यह समाज को व्यक्तियों को या विभिन्‍न समूहों के समुदाय के रूप में स्वीकार करता है।

 

समाजवादी विचारधारा व्यक्ति के बजाय समाज को प्रमुखता देती है। इसका तर्क है कि समाज व्यक्ति से प्राथमिक है। समाजवाद स्वीकार करता है कि मानव अस्तित्व मानवीय संबंधों में विद्यमान होता है। अर्थात्‌ मानव जीवन का सार तत्व सामाजिक संबंधों में विद्यमान होता हैं। समाजवाद स्वतंत्रता के बजाय समानता पर अत्यधिक जोर देता है। लेकिन कालक्रम में उत्तर उदारवाद समाजवादी स्वरूप को स्वीकार कर लिया गया है। वर्तमान सदी में समाजवाद एवं उदारवाद का यह विरोध उतना प्रखर नहीं रहा।

 

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सार्वजनिक जीवन को प्रशासनिक गतिविधियों के रूप में देखा जाने लगा है। इसका मुख्य कारण है कि प्रायः सभी राज्य उदारवादी लोकतांत्रिक है। ऐसी स्थिति में राजनैतिक विवाद समाप्त हो गए हैं तथा उसका स्थान प्रशासनिक गतिविधियों ने ले लिया है। लोक प्रशासन समाज के विभिन्‍न व्यक्तियों,विभिन्‍न समूहों एवं प्रशासनिक तंत्र के विभिन्‍न अंगों के अधिकार एवं कर्तव्य के सुचारू संचालन के लिए विभिन्‍न सिद्धान्तों को परिभाषित करता है। अर्थात्‌ लोक प्रशासन मानवीय व्यवहार को प्रशासनिक परिक्षेत्र में निर्धारित करने का प्रयास करता है लेकिन महत्वपूर्ण प्रश्न ये है कि लोक प्रशासन मानवीय गतिविधियों को सैद्धान्तिक रूप से परिभाषित करता है। लेकिन जब तक मनुष्य में अपने अधिकार एवं कर्तव्यों के प्रति अपने नैतिक बोध का विकास नहीं होता तब तक ये सिद्धान्त अधूरे सिद्ध होते हैं। जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में शासन एवं प्रशासन के ध्यान का केन्द्रीय बिन्दु है।