खेल समसामियिकी 1 (15-Sept-2019)
‘पहले जीन को समझें, फिर खेल चुनें ’
('Understand the genes first, then choose the game')

Posted on September 15th, 2019 | Create PDF File

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130 करोड़ आबादी वाले भारत को ओलम्पिक और अन्‍य प्रतिष्ठित मंचों पर अगर वाकई ‘मैदान मारना’ है तो उसे खेल महाशक्तियों के नक्‍शेकदम पर चलते हुए जीन की गुणवत्‍ता के आधार पर एथलीट के लिये खेल चुनना होगा।

 

यह कहना है, भारतीय जूनियर हॉकी टीम के पूर्व फिजियो और स्‍पोर्ट्स मेडिसिन स्‍पेशलिस्‍ट डॉक्‍टर सरनजीत सिंह का। वह कहते हैं कि खेल के चयन में खिलाड़ी की अनुवांशिकी का भी गहरा दखल होता है। हिन्‍दुस्‍तान में जीन के आधार पर खेल का चयन अब भी ख्‍वाब-ख्‍याल की बात लगती है, जबकि खेल की महाशक्ति माने जाने वाले देशों के लिये यह कोई नयी बात नहीं है।

 

डॉक्‍टर सिंह कहते हैं कि दुनिया का दूसरा सबसे ज्‍यादा आबादी वाला भारत, ओलम्पिक जैसे अंतरराष्‍ट्रीय मंच पर कभी वैसी कामयाबी नहीं हासिल कर सका जैसी कि उससे उम्‍मीद की जाती है। ओलम्पिक में भारत को अब तक मिले पदकों की संख्‍या इसकी तस्‍दीक करती है। सबसे बड़ी कमी यहीं पर है कि हमारे देश में खेल का चयन खिलाड़ी के जीन के आधार पर नहीं होता।

 

उन्होंने बताया कि जीन की पहचान कर खेल का चयन नहीं होने का नतीजा यह होता है कि खिलाड़ी जिस खेल में सर्वश्रेष्‍ठ प्रदर्शन कर सकता है, दुर्भाग्‍य से वह उसे खेल ही नहीं रहा होता है। या फिर टीम में वह उस पोजीशन पर नहीं होता, जहां उसे जेनेटिक फायदे मिल सकते थे।

 

डा . सिंह ने बताया कि गर्भ में पल रहे बच्‍चे का एम्ब्रियोनिक फ्लूइड निकालकर या फिर किसी भी उम्र के व्‍यक्ति की ‘मसल बायोप्‍सी’ करके पता लगाया जा सकता है कि वह भविष्‍य में किस खेल में अपना सर्वश्रेष्‍ठ प्रदर्शन कर पायेगा।

 

सिंह ने कहा कि खिलाड़ी को मेडल तक पहुँचाने की शुरुआत उसके खेल के चुनाव से होती है और फिर उसकी नैसर्गिक प्रतिभा को कई तरह के ट्रेनिंग सिस्टम्स जिनमें उसकी साइकोलॉजिकल ट्रेनिंग, फिजिकल ट्रेनिंग, स्किल ट्रेनिंग, स्पोर्ट्स न्यूट्रिशन और सप्‍लीमेंटशन, कई तरह की चिकित्सीय साधनों और वैज्ञानिक तौर-तरीकों से निखारा जाता है।

 

भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) के रिसोर्स परसन रह चुके सिंह ने बताया कि कोई खिलाड़ी भविष्य में अपने खेल में कैसा प्रदर्शन करेगा, यह उस खेल में इस्‍तेमाल होने वाली मांसपेशियों की जैविक संरचना से तय होता है।

 

उनका कहना है कि खेलों को तेज़, मध्यम और धीमी गति वाले स्पोर्ट्स में बांटा जा सकता है। इन सभी में अलग-अलग ऊर्जा स्रोत का इस्तेमाल होता है। एथलेटिक्स इसका बहुत अच्छा उदाहरण है जिसे 100 मीटर, 400-800 मीटर और मैराथन दौड़ों से समझा जा सकता है। क्रिकेट में इसे तेज गेंदबाज, मध्‍यम गति के गेंदबाज और स्पिनर से भी समझा जा सकता है। इसी तरह हॉकी और फुटबॉल में भी अलग-अलग पोजीशन्स के लिए अलग-अलग तरह की मसल सरंचना की ज़रुरत होती है और ये फॉर्मूला हर उस खेल में इस्तेमाल होता है जिसमें शारीरिक दम-ख़म की ज़रुरत होती है।

 

सिंह कहते हैं कि खिलाडि़यों की मांसपेशियों के फास्‍ट और स्‍लो फाइबर से यह तय होता है कि कौन सा खिलाड़ी अच्‍छा स्प्रिंटर, मध्‍यम दूरी का धावक या मैराथन धावक बन सकता है। इसी तरह कौन सा खिलाड़ी फुटबॉल या हॉकी में अच्छा फॉरवर्ड, अच्‍छा मिडफील्‍डर अथवा डिफेंडर बन सकता है। इसी तरह क्रिकेट में, खिलाड़ी के कन्धों की मांसपेशियों में इन फाइबर्स के अनुपात जान कर ये बताया जा सकता है कि अगर वो गेंदबाज बनना चाहता है तो वो किस तरह के बॉलर (तेज, मध्‍यम गति या स्पिनर) के रूप में सफल हो सकता है। इस जानकारी के बाद अगर इन मसल्स अनुपात के अनुसार खिलाड़ी की तैयारी कराई जाये तो उसकी धार को और भी तेज़ किया जा सकता है।

 

उन्‍होंने कहा कि जीन के आधार पर खेल का चुनाव ना किया जाना भी भारत के खेलों में पिछड़े होने का एक बड़ा कारण है।