व्यक्ति विशेष समसामियिकी 1 (4-Mar-2021)
लाला हरदयाल
(Lala Hardayal)

Posted on March 4th, 2021 | Create PDF File

hlhiuj

ब्रिटिश राज में समाज के हर तबके ने अपने सामर्थ्य अनुसार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय सहभागिता की। इसमें से कुछ ने अहिंसक प्रतिरोध का मार्ग चुना तो कुछ हिंसक प्रतिरोध का। हिंसक प्रतिरोध का रास्ता चुनने वाले में कुछ चुनिन्दा स्वतंत्रता सेनानी में लाला हरदयाल प्रमुख है जिन्होंने हिंसक क्रांतिकारी गतिविधियों के अलावा अपनी लेखनी के द्वारा भी ब्रिटिश साम्राज्य को उतना ही घाव दिया होगा जितना सशस्त्र हिंसा से।


लाला हरदयाल जी का जन्म 14 अक्टूबर 1884 को दिल्ली में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री गौरी दयाल माथुर और माता का नाम भोली रानी था। कुशाग्र बुद्धि के कारण वे विद्यालय में सदैव प्रथम आते थे। विश्वविद्यालय शिक्षा में भी उन्होंने उच्च रिकॉर्ड बनाया। ब्रिटिश सरकार के द्वारा उन्हें 3-3 छात्रवृत्तियां प्रदान की गई एवं उच्च शिक्षा के लिए ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए भी उन्हें सरकारी छात्रवृत्ति मिली।

 


प्रारंभ से ही लाला हरदयाल आर्य समाज से प्रभावित थे। दिल्ली में पढ़ाई के दौरान ही वह मास्टर अमीरचन्द की गुप्त क्रान्तिकारी संस्था के सदस्य बन चुके थे। तात्कालिक समय में लंदन में श्याम कृष्ण वर्मा के द्वारा देशभक्ति का प्रचार-प्रसार करने के लिए इंडिया हाउस की स्थापना की गई थी। लाला हरदयाल भी इस संस्था से जुड़ गए जहां पर उन्हें भिकाजी कामा, वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय और विनायक दामोदर सावरकर जैसे क्रांतिकारीयों का सानिध्य प्राप्त हुआ।

 


ऑक्सफोर्ड में शिक्षा ग्रहण करते हुए उन्होंने अंग्रेजी सरकार की नीतियों पर प्रश्न उठाते हुए ‘इंडियन सोशलिस्ट’ मैगजीन में लेख लिखें। इसी समय उनको ब्रिटिश सरकार के द्वारा भारतीय सिविल सेवा का प्रलोभन दिया गया लेकिन लाला हरदयाल ने अंग्रेजी शिक्षण पद्धति को पाप समझते हुए ऑक्सफोर्ड की स्कॉलरशिप तक छोड़ दी और वापस भारत आ गए।

 


यहां पर आकर वह बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय से मिले। इसके बाद लाला हरदयाल लाहौर से प्रकाशित होने वाली ‘पंजाब’ नामक पत्रिका के संपादक बन गए एवं अंग्रेज विरोधी लेख लिखने के कारण शीघ्र ही अंग्रेजों की नजर में खटकने लगे। अंग्रेजी सरकार ने उनकी पत्रिका को प्रतिबंधित किया और लाला हरदयाल को गिरफ्तार करने को सोचने लगी। लाला लाजपत राय ने उन्हें सलाह देते हुए भारत को छोड़ने के लिए कहा। लाला हरदयाल1909 में पेरिस पहुंचे। यहां पर मैडम भीकाजी कामा ने ‘वंदे मातरम’ पत्रिका को निकाला जिसके संपादक का कार्यभार लाला हरदयाल ने संभाला। आपको बता दें ‘वंदे मातरम’ पत्रिका पूरी दुनिया में भारतीय क्रांतिकारियों को ऊर्जा प्रदान करती थी। क्रांतिकारियों के अथक प्रयास के बाद भी भारतीय समुदाय के द्वारा व्यापक समर्थन न मिलने से लाला हरदयाल निराश हो गए और वह सन्यासी का जीवन जीने लगे।

 


उसी दौरान भाई परमानंद ने लाला हरदयाल को अमेरिका में आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार के लिए राजी किया। कैलिफ़ोर्निया में लाला हरदयाल मजदूर यूनियन की गतिविधियों से जुड़े। यहीं पर उनकी मुलाकात सिख समुदाय से हुई जो भारत को आजाद कराने के लिए अमेरिका में संघर्ष कर रहे थे। उन्होंने श्याम कृष्ण वर्मा के ‘इंडियन हाउस’ की तर्ज पर कैलिफ़ोर्निया में भी एक संगठन ‘नालंदा भवन’ की स्थापना की जिसका उद्देश्य स्कॉलरशिप पर भारतीय छात्रों को अमेरिका में पढ़ने के लिए बुलाना और क्रांतिकारियों को शरण एवं समर्थन देना शामिल था।

 


1913 में गदर पार्टी की नींव रखी गई। गदर पार्टी के माध्यम से पूरी दुनिया के भारतीय क्रांतिकारियों में आपस में हाथ मिलाया (लंदन में श्याम जी कृष्ण वर्मा, भारत में बाघा जतिन और रास बिहारी बोस और अमेरिका में करतार सिंह सराभा, मौलवी बरकतुल्लाह भोपाली, राजा महेंद्र प्रताप और विष्णु पिंगले)। इन सब क्रांतिकारियों के द्वारा विश्व युद्ध को एक अवसर में देखा गया एवं 1857 की क्रांति के तर्ज पर सशस्त्र विद्रोह योजना बनाएगी। गदर पार्टी के मुख्य पत्र “ हिंदुस्तान गदर” का प्रकाशन किया गया। लाला हरदयाल ने पत्रिकाओं में लेख लिखकर और अपने ओजस्वी भाषणों के जरिए क्रांति का माहौल निर्मित करने लगे। इसके साथ ही वैश्विक समुदाय से भारत की सेवा करने की भी अपील की। ऐसा माना जाता है कि ‘कामागाटामारू’ प्रकरण में भी लाला हरदयाल के विचारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही।

 


गदर आंदोलन का भेद खुलने एवं ब्रिटिश दबाव के कारण अमेरिकी सरकार के द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जमानत से रिहा होने के उपरांत वह अपने मित्र वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय के पास बर्लिन गए जहां पर इन्हें नजरबंद भी कर दिया गया। जल्द ही लाला हरदयाल स्वीडन चले गए जहां उन्होंने 10 साल व्यतीत किए। इसके उपरांत लाला हरदयाल पुनः लंदन पहुंचे और ब्रिटिश कानूनों की खामियों का फायदा उठाते हुए यही रहने लगे। उन्होंने ‘डॉक्ट्रिन्स ऑफ़ बोधिसत्व’ नामक शोध पुस्तक पर अपनी पीएचडी पूरी की। इसके उपरान्त लाला हरदयाल राजनीति को त्याग कर विद्या के क्षेत्र में प्रविष्ट हो गए।

 


लाला हरदयाल को भारत में लाने की काफी कोशिश की गई लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें कभी भारत आने की इजाजत नहीं दी। बाद में सर तेज बहादुर सप्रू और सी एफ एंड्रयूज के प्रयत्नों से उन्हें भारत आने की इजाजत मिली। लेकिन होनी को कुछ और मंजूर था और भारत माता के इस सपूत ने भारत की आजादी के इंतजार में 4 मार्च 1939 को अपने शरीर को अलविदा कह दिया।