भारत में महिलाओं के कानूनी अधिकार (Legal rights of women in India)

Posted on November 2nd, 2018 | Create PDF File

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महिलाओं को बिना किसी रोक टोक के अपने निर्णय स्वयं लेने के लिए सशक्त बनाना और उन्हें पुरुषों के बराबर मानना राष्ट्र की सर्वांगीण प्रगति के लिए अनिवार्य है। हमारा संविधान अपने सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के समानता की अधिकार की गारंटी देता है। जिसके अनुसार यहां किसी भी नागरिक के साथ रंग, धर्म, लिंग, क्षेत्र, भाषा आदि के आधार पर असमान व्यवहार करने की मनाही है। इसके बावजूद भारत में लैंगिक भेदभाव लगातार चला आ रहा है।

 

हाल के वर्षों में भारतीय उच्च्तम न्यायालय ने इसी विषय से जुड़े कुछ अहम मुद्दों पर काफी ऐतिहासिक निर्णय सुनाए हैं। कोर्ट ने पुरातनपंथी ऐसे कई कानूनों को खत्म करने में सक्रिय भूमिका निभाई है, जो महिलाओं के विपरीत थे। जिसमें भारतीय दण्ड संहिता की बलात्कार संबंधी धारा 376, अप्राकृतिक यौनाचार तथा समलैंगिक संबंधों में लागू होने वाली धारा 377 और व्यभिचार से संबंधित धारा 497 शामिल हैं।

 

धारा 497 के तहत ऐसे किसी भी पुरुष को दंडित किया जाता है, जो किसी अन्य पुरुष की सहमति के बगैर उसकी पत्नी के साथ अवैध संबंध रखता है। यह स्त्रियों के साथ बहुत पक्षपात करने वाला प्रावधान है और संविधान के अनुच्छेद 14 तथा 15 का उल्लंघन भी करता है। पहले तो उसमें महिला को उसके पति की संपत्ति की तरह माना जाता है। यदि ऐसा काम पति की सहमति अथवा मिलीभगत से किया जाए तो उसे अपराध नही माना जाएगा। दूसरी बात अपराध उस पुरुष का माना जाता है, जिसके किसी अन्य पुरुष की पत्नी के साथ अवैध संबंध हैं। लेकिन स्त्री ने पहल की हो तो भी उसे दंड नही दिया जाता, क्योंकि उसे पीड़ित माना जाता है। तीसरी बात अगर पुरुष के विवाहेत्तर संबंध होते हैं तो, न तो उस पर और न ही उस महिला पर मुकदमा चलाया जा सकता है, जसके साथ उसके ऐसे संबंध थे।यह कानून 1860 में ब्रिटिश शासन ने तैयार किया था और उसके बाद से बिना किसी प्रगतिशील संशोधन के यह चलता ही आ रहा है। 1971 में आई 42वीं विधि रिपोर्ट और 2003 की मालीमठ समिति की रिपोर्ट में इस परिभाषा को बदलने और स्त्री और पुरुष दोनों के साथ समान व्यवहार करने की सिफारिश की गई थी, लेकिन उन्हें लागू नही किया गया है।इतना ही नही वर्ष दर वर्ष विभिन्न फैसलों में अदालतों ने इसे संवैधानिक रूप से वैध ठहराया है। यह बात हाल ही में जोसेफ साइन बनाम भारत सरकार मामले में प्रकाश में आई, जिसमें इस मामले की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली एक याचिका उच्च्तम न्यायालय में दाखिल की गई। पीठ ने कहा कि इस प्रावधान में लैंगिक निष्पक्षता का प्रावधान नही है।और जब पति की सहमति या मिलीभगत पर जोर दिया जाता है तो महिला की व्यक्तिगत पहचान को ठेस लगती है। इस प्रकरण में कहा गया कि अब समाज को यह महसूस करने का समय आ गया है कि महिला हर क्षेत्र में पुरुष के बराबर है और इस आधार पर यह प्रावधान पुराना और दकियानूसी लगता है। लेकिन भारत में विवाह की नैतिक पवित्रता पर जोर देते हुए केन्द्र का रूख यही रहा है कि धारा 497 विवाह की संस्था की सुरक्षा और समर्थन करती है। अगर इसे खत्म कर दिया गया तो भारत की उस मूलभूत भावना को आघात पहुंचेगा जो भारत की विवाह संस्था को सबसे ज्यादा महत्व देती है। यह अजीब बात है कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत व्यभिचार ही शादी तोड़ने का इकलौता आधार है और उसे दंडनीय अपराध माना गया है।

 

इसी प्रकार तीन तलाक का मुद्दा है। इसमें सर्वोच्य न्यायालय के सामने एक साथ तीन तलाक देने का मामला सामने आया। इस संबंध में अदालत के सामने सबसे बड़ा सवाल यह था कि क्या यह मसला मुस्लिम पर्सनल लॉ के अंतर्गत आता है या नही। एक साथ तीन तलाक सुन्नी मुसलमानों, विशेषकर हनफी समुदाय के बीच बहुत पहले से चली आ रही प्रथा है। जिसके अंतर्गत कोई भी मुस्लिम पुरुष एक ही बार में तीन बार तलाक शब्द बोलकर अपनी पत्नी को एकतरफा तलाक दे सकता है और उसे बदला भी नही जा सकता। पिछले तमाम वर्षों में मुस्लिम पुरुषों ने मुस्लिम महिलाओं को नुकसान पहुंचाने के लिए इस प्रावधान का दुरुपयोग किया है। जिसमें किसी पति नें टेक्स्ट मैसेज के जरिए, फोन पर या व्हाट्सएप पर अपनी पत्नी को तलाक दे दिया। इससे पहले किसी दबाव में या मजाक में दे दिया गया तलाक भी मान्य और प्रभावी ठहराया गया (राशिद अहमद बनाम अनीसा खातून- एआईआर 1932 पीसी 25)। वैध तलाक के लिए केवल एक ही शर्त जरूरी थी- पति वयस्क हो और तलाक देते समय उसकी मानसिक हालत ठीक हो। यह बात पत्नी को बताने की जरूरत भी नही थी और जैसे ही उसे यह बात पता चलती थी, तलाक लागू हो जाता था( पथायी बनाम मोईदीन- 1968 केएलटी- 763)। लेकिन हिना एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2017 -1 आरसीआर दीवानी) मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा था कि किसी जायज कारण के बिना और दोनों पक्षें में सुलह की कोशिश किए बगैर दिया गया तलाक कानूनी रूप से मान्य नही होगा। शमीम आरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य ( एआईआर- 2002 एससी 3551) के मामले में भी उच्चतम न्यायालय ने यही कहा। इस प्रकार तीन तलाक में भी सोच-विचार और आत्ममंथन की गुंजाइश खत्म नही होती।

 

पाकिस्तान सहित कई मुस्लिम बहुल देशों नें यह प्रथा समाप्त कर दी है। भारत में एक साथ तीन तलाक की संवैधानिक वैधता शायरा बानो बनाम भारत सरकार एवं अन्य ( 2017-9 एससीसी 1) मामले में उच्चतम न्यायालय के सामने आयी इसे 3 अनुपात 2 के बहुमत से असंवैधानिक पक्षपाती और अनुच्छेद 14 के विरुध्द ठहराया गया। लेकिन यह प्रश्न अब भी बाकी है कि क्या तीन तलाक को असंवैधानिक ठहराए जाने से भारत में स्त्री –पुरुष समानता की तस्वीर बदल गई है। तलाक के दूसरे तरीके अब भी मौजूद हैं, जिनमें मुस्लिम पुरुषों के पास कानून का सहारा लिए बगैर ही तलाक देने का अधिकार सुरक्षित है। दिसम्बर 2017 में मुस्लिम महिला (विवाह में अधिकार संरक्षण) विधेयक, 2017 को लोकसभा में प्रस्तुत किया गया, जिसमें एक साथ तीन तलाक को संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध मानने की बात की गई। लोकसभा में इसे बहुमत से पारित कर दिया, लोकिन राज्यसभा में यह अभी भी लंबित है। हालांकि विधेयक को उसके मौजूदा रूप मे त्रुटिरहित नही कहा जा सकता। क्या तीन तलाक को मुस्लिम पुरुषों के लिए संज्ञेय अपराध बनाना उचित है। भारतीय दण्ड संहिता 1980 के अंतर्गत विवाह से जुड़े ऐसे अपराधों को जिनमें पत्नी को शारीरिक नुकसान नही पहुंचाया गया हो, असंज्ञेय करार दिया जाता है, ताकि पीढ़ित पक्ष के कहने पर ही मुकदमा चलाया जा सके । लेकिन एक साथ तीन तलाक को संज्ञेय बनाने का आशय यह है कि मुस्लिम पुरुषों पर मुकदमा उस स्थिति में भी चलाया जा सकता है जबकि उसकी पत्नी ऐसा नही करना चाह रही हो। मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को बढ़ावा देने के प्रयास में यह विधेयक अनजाने में मुस्लिम पुरुषों के अधिकारों को ठेस पहुंचा सकता है और उनके साथ भेदभाव कर सकता है।

 

संपत्ति का अधिकार और महिला का संपत्ति रखने का अधिकार, भी अदालती न्यायिक फैसलों, संशोधनों तथा कानून की व्याख्या का विषय रहा है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में में हुए संसोधनों ने महिलाओं को माता-पिता और ससुराल दोनों की ही संयुक्त परिवार की संपत्तियों में हिस्सेदारी का अधिकार दिया गया।उससे पहले महिलाओं का सीमित संपत्ति पर अधिकार होता था। कई जनजातीय कानूनों और धार्मिक कानूनों के अंतर्गत महिलाओं को समुदाय से बाहर विवाह करने पर उनकी अपनी संपत्ति के अधिकार से वंचित कर दिया जाता है। छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1908 के अनुसार समुदाय के बाहर विवाह करने वाली महिलाओं को पैतृक संपत्ति पर अधिकार से वंचित मान लिया जाता था। पारसी कानूनों में भी ऐसा ही है, जहां माना जाता है कि समुदाय से बाहर विवाह करने वाली पारसी महिलाओं की धार्मिक पहचान समाप्त मान ली जाती है। इस कानून के मुताबिक समुदाय से बाहर विवाह करने वाले पुरुष की संताने तो पारसी हो सकती हैं, लेकिन अगर स्त्री ऐसा करती है तो उसकी संताने पारसी नही रहती। साथ ही ऐसा करने वाली स्त्री को दखमा(टावर ऑफ साइलेंस ) में भी जाने की अनुमति नही होती। एक पारसी महिला गुरुख गुप्ता ने इसे गुजरात उच्च न्यायलय में चुनौती दी, और अदालत ने उस महिला के खिलाफ निर्णय सुनाते हुए कहा कि किसी भी महिला की धार्मिक पहचान उसके पति के धर्म में मिल जायेगी। तब इस फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई। इसके बाद पारसी समुदाय ने अपनी सदियों पुरानी परंपरा तोड़ दी और कहा कि वह उन्हें उनके माता-पिता के अंतिम संस्कार में आने की अनुमति देगा। अदालत ने समुदाय से प्रश्न किया कि क्या ऐसा कहा जा सकता है कि महिला किसी पुरुष से विवाह करके अपनी धार्मिक पहचान खो देती है, या खुद को उसके पास गिरवी रख देती है।

 

बलात्कार के मामलों में भी ऐसी ही समस्याऐं बनी हुईं हैं। चूंकि भारत में दर्ज होने वाली बलात्कार की घटनाऐं बहुत बढ़ गई हैं, इसलिए अदालतों और विधायिका ने इस संदर्भ में विभिन्न संशोधन किए हैं। 2013 से पहले भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के तहत बलात्कार की परिभाषा बहुत ही संकीर्ण थी और केवल यौनसंबंध ही इसके दायरे में आते थे। कुख्यात निर्भया सामूहिक बलात्कार कांड के बाद आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 2013 ( बलात्कार रोधी विधेयक) पारित हो गया। जिसके अंतर्गत बलात्कार की परिभाषा को विस्तार दिया गया, और गुप्तांग में शरीर का कोई अंग प्रविष्ट कराने, कोई वस्तु प्रविष्ट कराने आदि को इसमें शामिल कर लिया गया। उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में आरोपित 6 में से 4 व्यक्तियों को मृत्युदंड को 2018 में बरकरार रखा। एक आरोपित अवस्यक था और सबसे क्रूर होने के बाद भी उसे 3 वर्ष बाद सिर्फ इसलिए छोड़ दिया गया क्योंकि उसकी उम्र 18 वर्ष से कुछ महीने कम थी। इस घटना के बाद किशोर न्याय अधि. 2015 पारित किया गया, जिसमें कहा गया कि जघन्य अपराध करने वाले 16 वर्ष या उससे अधिक उम्र के लोगों पर वयस्कों के समान मुकदमे चलाए जायेंगे।

 

कठुआ सामूहिक बलात्कार कांड के बाद आपराधिक कानून(संशोधन) अध्यादेश 2018 को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई, जिसके तहत बलात्कार, विशेष रूप से 16 वर्ष से कम उम्र की बच्ची के साथ बलात्कार के मामले में दंड बढ़ा दिया गया। हालांकि अजीब बात यह है कि अभी भी वैवाहिक बलात्कार को तब तक अपराध नही माना जाता है जब तक कि पत्नी की उम्र 15 वर्ष से कम न हो। इसके पक्ष में तर्क यह दिया जाता है कि इससे विवाह संस्था कमजोर होगी।

 

भारत की प्रस्तावना कहती है कि हम भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक,गणराज्य बनाने के लिए दृढ़संकल्प होकर...पंथ निरपेक्षता का अर्थ है राज्य द्वारा सभी पंथ के सापेक्ष एक समान व्यवहार किया जाए। सभी नागरिको के धर्म पर विचार किए बगैर उनके निजी मामलो पर नियंत्रण करने वाली समान नागरिक संहिता ही सच्ची पंथनिरपेक्षता की धुरी है। ऐसी संहिता की आवश्यकता है क्योंकि भारत में प्रचलित विभिन्न पर्सनल लॉ महिलाओं के साथ भेदभाव करते हैं। अनु. 14 के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति पर पर्सनल लॉ के अलावा एक समान फौजदारी और दीवानी के कानून लागू होते हैं। भारतीय संविधान के अनु. 44 (राज्य के नीति निर्देशक तत्व) में समान नागरिक संहिता के प्रावधान की बात है। इसमें कहा गया है कि राज्य भारत की सीमाओं के भीतर नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास करेगा। उच्चतम न्यायालय ने मोहम्मद खान बनाम शाहबानो बेगम एवं अन्य के मामले में कहा है कि यह अफसोस की बात है कि हमारे संविधान का अनु. 44 नाममात्र का ही है। इस मामले में स्वयं ही पहल और बदलाव करने का जोखिम शायद कोई भी समुदाय नही उठायेगा। इसीलिए राज्य के पास यह अधिकार है, और विधायी शक्तियां भी हैं, जो समान नागरिक संहिता को लागू करवा सकती हैं। अगर संविधान को सार्थक बनाए रखना है तो कठिनाइयां होने के बाद भी शुरुआत करनी होगी। इसके अलावा न्यायालय ने सरला मुद्गल बनाम भारत सरकार प्रकरण में भी समान नागरिक संहिता की जरूरत पर बात की थी। भारत जैसे विविधता बरे देश में समान नागरिक संहिता की राह में कम मुश्किलें नही हैं।ऐसा फैसला चाहे कितना भी प्रगतिशील क्यों न हो उसे लोगों पर तब तक थोपा नही जा सकता जबतक वे इसे स्वीकार नही करते।

 

इस प्रकार पिछले कई वर्षों में सुधार की जरूरत महसूस की जा रही है। और न्यायालय इसमें अपनी रचनात्मक भूमिका निभा रहा है। फिर भी महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिलाने का सिलसिला अभी धीमा है, और हमें इसे और गति देने की आवश्यकता है।