कार्यस्थलों पर यौन शोषण की खुली दास्तान: मीटू आंदोलन #MeToo (Open spell of sexual abuse at workplaces : MeToo Protest #MeToo )

Posted on October 28th, 2018 | Create PDF File

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कार्यस्थलों पर यौन शोषण की खुली दास्तान: मीटू आंदोलन #MeToo

 

विश्व की जनसंख्या में महिलाओं की भागीदारी लगभग आधी है, किंतु वे विश्व के सकल घरेलू उत्पाद में केवल 33% हिस्सा ही उत्पादित करती हैं। वजहें कई हो सकती हैं, लेकिन सबसे बड़ी वजह महिलाओं की असुरक्षा से जुड़ी हुई है। भारत में महिलाएँ सड़क पर और यहाँ तक कि घर के अंदर भी स्वतंत्र और सुरक्षित नहीं हैं। पहले तो उन्हें सामाजिक रीति रिवाज और धार्मिक प्रतिबंध उबरने नहीं देते, दूसरी बाधा उनके आगे लैंगिक भेदभाव की आती है, जिसमें उन्हें पुरुषों की तुलना में काम के कम अवसर और समान काम के लिए कम वेतन दिया जाता है। तीसरा और सबसे बड़ा मुद्दा महिलाओं का कार्यस्थल पर होने वाला यौन शोषण है। जिस पर बहुत ज्यादा खुलकर कभी बात होने नहीं पाती। मसलन समस्या, समस्या न रहकर नासूर बन जाती है। लेकिन अब ऐसा नही है। आजकल सोशल मीडिया पर हैशटैग मीटू नाम से कुछ इसी प्रकार की एक मुहिम चल रही है, जिसमें महिलाएं अपने साथ हुए दुर्व्यवहारों के खिलाफ खुलकर बोल रही हैं। जिससे महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा एक बार फिर से चर्चा का विषय बना हुआ है। 

मीटू आंदोलन  कई स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं पर होने वाले यौन हमलों के खिलाफ एक आंदोलन है। इसके अंतर्गत विशेष रूप से कार्यस्थल पर किए गए यौन उत्पीड़न को उजागर करने का प्रयास  सोशल मीडिया पर इस्तेमाल किए गए हैशटैग के रूप में हो रहा है। भारत में मी टू कैंपेन शुरू होने के बाद से अब तक कई बड़ी बॉलीवुड हस्तियों के नाम इसमें सामने आ चुके हैं। इनमें नाना पाटेकर, अनू मलिक, विनोद दुआ, विकास बहल, चेतन भगत, रजत कपूर, कैलाश खेर, जुल्फी सुईद, आलोक नाथ, सिंगर अभिजीत भट्टाचार्य, तमिल राइटर वैरामुथु और केंन्द्र सरकार में मंत्री एमजे अकबर शामिल हैं।

दरअसल एलिसा मिलानो नामक अभिनेत्री ने हॉलीवुड के फिल्म निर्माता हार्वी वाइंस्टाइन के खिलाफ सबसे पहले अपनी बात कही थी। ज्ञात हो कि वास्तव में #MeToo हैशटैग का जन्म करीब 11 साल पहले मायस्पेस नामक सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर हो चुका था। तब यह एक जनजागृति अभियान था। उस अभियान का उद्देश्य रंग और लिंग के आधार पर भेदभाव के विरुध्द लड़ना था, लेकिन उस अभियान को उतनी कामयाबी नहीं मिल पाई, जितनी इस अभियान को मिल रही है। इसकी शुरूआत अमेरिकी सिविल राइट्स एक्टिविस्ट तराना बर्क ने की थी। आज #MeToo हैशटैग कम से कम 85 देशों में चला रहा है, जिसमें भारत, पाकिस्तान और यूनाइटेड किंगडम जैसे देश भी शामिल हैं।

किसी भी अन्य आंदोलन की तरह ऑनलाइन आंदोलन मीटू को भी पूरी तरह परिभाषित करना मुश्किल है। हालांकि इस आंदोलन ने महिलाओं को चुप्पी तोड़ने, अपराधियों का खुलकर सामना करने, अंधविश्वास को तोड़ने और तमाम नकाब उतारने का काम किया है। जो कि काफी सराहनीय है। आज स्त्री सुरक्षा के बारे में दुनिया भर में एक नए सिरे से विमर्श शुरू हो चुका है। जिसकी तह में कहीं न कहीं यह मीटू कैंपेन ही है। अगर इसकी दिशा ठीक रहती है, तो यह अभियान वास्तव में भारतीय महिलाओं की मदद कर सकता है।

 

उल्लेखनीय है कि #MeToo की तर्ज पर 15 लोगों के एक समूह ने #ManToo आंदोलन की शुरुआत करते हुए पुरुषों से कहा कि वे महिलाओं के हाथों अपने यौन शोषण के बारे में खुलकर बोलें। इन लोगों में फ्रांस के एक पूर्व राजनयिक भी शामिल हैं जिन्हें 2017 में यौन उत्पीड़न के एक मामले में अदालत ने बरी कर दिया था। #ManToo आंदोलन की शुरुआत गैर सरकारी संगठन चिल्ड्रंस राइट्स इनिशिएटिव फॉर शेयर्ड पेरेंटिंग (क्रिस्प) ने की। क्रिस्प ने कहा कि उनका समूह लैंगिक तटस्थ कानूनों के लिए लड़ेगा। संगठन ने मांग की है कि #MeToo अभियान के तहत झूठे मामले दायर करने वालों को सजा मिलनी चाहिए। इसका दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए

 

अतीत में, भारत में महिलाओं की भूमिका निश्चित रूप से काफी भिन्न थी। प्राचीन युग से ही हमारे समाज में नारी का विशेष स्थान रहा है। हमारे पौराणिक ग्रंथों में नारी को पूज्यनीय एवं देवीतुल्य माना गया है। वे पुरुषों के बराबर अधिकार रखती थीं, लेकिन मध्यकाल के संक्रमण से उपजे रीति-रिवाजों और धर्मिक अतिवादिता नें महिलाओं की सुरक्षा का हवाला देते हुए उन पर कई प्रकार के अनौपचारिक और कड़े प्रतिबंध लगा दिए। जिससे वे घर की चारदीवारी में कैद होकर रह गईं। ऐसा नहीं है कि स्त्रियों ने इस चंगुल से निकलने का प्रयास नहीं किया। समय समय पर पहले भी उनके द्वारा ऐसे कई सुधारवादी और महिला अधिकारों के लिए अभियान चलाए जाते रहे हैं। 

आजकल सोशल मीडिया की शक्ति काफी मजबूत है। यह विचार साझा करने का वैश्विक मंच बन चुका है। यहां कोई भी अपनी बात बिना लाग लपेट के स्वतंत्रतापूर्वक रख सकता है। नतीजतन यहां महिलाओं की कहानियों को विकृत नहीं किया जा सकता। यह उन घटनाओं से भी पर्दा उठाने में सक्षम है, जो प्रभावशाली व्यक्तियों के प्रश्रय में घटी हैं। साथ ही वे कामकाजी महिलाएं जिनपर बाहर जाकर किसी आंदोलन में शरीक होने की मनाही है, या वे खुद अपने व्यस्त समय में से इतना समय नहीं निकाल सकती, वे भी सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी बात दर्ज करवा सकती हैं। इससे इसका दायरा और बढ़ जाता है। इसीलिए इसका प्रभाव इतना अधिक है। आप देख ही रहे होगें कि इस कैंपेन के अंतर्गत लगाए गए लगभग सभी आरोप सोशल मीडिया के माध्यम से ही उठाए गए हैं। 

#MeToo जैसे ऑनलाइन अभियान, दुनिया भर के युवा और बुजुर्ग दोनों लोगों तक पहुंचते हैं। यह उन सभी मुद्दों के बारे में अधिक जानने में मदद करता है जो भारत में यौन उत्पीड़न की कहानियों और यौन हिंसा की दैनिक घटनाओं जैसे सभी यौन उत्पीड़न कहानियों के पीछे स्थित हैं। भले ही यह आंदोलन अभी भी दुनिया के लिए नया है, फिर भी उसने महिलाओं को शर्मिंदगी से लड़ने में मदद की है। यह भारत तथा विश्व की सभी महिला संबंधी असमानताओं को दुनिया के बाकी हिस्सों तक पहुंचाने में मदद कर सकता है। जिससे सभी जिम्मेदार और संवेदनशील इकाईयों का ध्यान इस ओर आकृष्ट होगा और इस दिशा में उचित कदम उठाए जाने का वैश्विक दबाव बनेगा, जो कि महिलाओं के हित में होगा।

कालांतर में देश पर हुए अनेक आक्रमणों के पश्चात् भारतीय नारी की दशा में भी परिवर्तन आने लगे । नारी की स्वयं की विशिष्टता एवं उसका समाज में स्थान हीन होता चला गया । अंग्रेजी शासनकाल के आते-आते भारतीय नारी की दशा अत्यंत चिंतनीय हो गई । उसे अबला की संज्ञा दी जाने लगी तथा दिन-प्रतिदिन उसे उपेक्षा एवं तिरस्कार का सामना करना पड़ा । नारी के अधिकारों का हनन करते हुए उसे पुरुष का आश्रित बना दिया गया । दहेज, बाल-विवाह व सती प्रथा आदि इन्हीं कुरीतियों की देन है । पुरुष ने स्वयं का वर्चस्व बनाए रखने के लिए ग्रंथों व व्याख्यानों के माध्यम से नारी को अनुगामिनी घोषित कर दिया ।

 

आज का युग परिवर्तन का युग है । भारतीय नारी की दशा में भी अभूतपूर्व परिवर्तन देखा जा सकता है । स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् अनेक समाज सुधारकों समाजसेवियों तथा हमारी सरकारों ने नारी उत्थान की ओर विशेष ध्यान दिया है तथा समाज व राष्ट्र के सभी वर्गों में इसकी महत्ता को प्रकट करने का प्रयास किया है । फलत: आज नारी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है । विज्ञान व तकनीकी सहित लगभग सभी क्षेत्रों में उसने अपनी उपयोगिता सिद्‌ध की है । उसने समाज व राष्ट्र को यह सिद्‌ध कर दिखाया है कि शक्ति अथवा क्षमता की दृष्टि से वह पुरुषों से किसी भी भाँति कम नहीं है ।

आजकल महिलाओं पर अत्याचार अखबारों की सुर्खियां बन रहे हैं, जो सभ्य समाज के लिए बेहद शर्मनाक है। पिछले कुछ सालों से महिला सुरक्षा का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। महिलाओं को ही यौन हिंसा, दहेज हत्या, मारपीट का शिकार होना पड़ता है। उनके ऊपर तेजाब फेंकना, देह व्यापार कराना जैसी घटनाएं आम बात हैं। कहा जाता है कि हिंसा, असुरक्षा की आखिरी शरण है। वे लोग जो अपने अपराधों को स्वीकार करने की बजाय हिंसा और प्रतिष्ठा के सवालों पर उतर आते हैं, अब इस कैंपेन के आगे खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। यही इस आंदोलन की वास्तविक शक्ति है। 

अब महिलाओं को अपनी सुरक्षा के लिए पुरुषों पर निर्भरता छोड़नी होगी। उन्हें आत्मरक्षा की तकनीक सीखनी होगी। इसके लिए उन्हें अपने मनोबल को ऊंचा बनाना होगा ताकि विपरीत परिस्थितियों में भी किसी तरह की परेशानी न हो। यद्यपि महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को रोकने के लिए अनेक स्वयंसेवी संस्थायें स्थापित की गई हैं, उनके लिए अदालतें बनाई गई हैं किन्तु ये निश्चित रूप से कारगर नहीं हो पा रही हैं क्योंकि इन्हें भी अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है । हमारी सरकार को इस ओर विशेष ध्यान देना चाहिए । स्वयं महिलाओं को भी अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों, शोषण, हिंसाओं को रोकने के लिए हिम्मत जुटानी चाहिए । तभी वह समाज एवं राष्ट्र में अपनी पहचान बना सकेंगी ।

महिलाओं के प्रति हिंसा की समस्या कोई नवीन समस्या नहीं है । समाज में प्रचलित प्रतिमानों विचारधाराओं एवं संस्थागत रिवाजों ने उनके उत्पीड़न में अत्यधिक योगदान दिया है । स्वतन्त्रता के पश्चात् हमारे समाज में महिलाओं के समर्थन में बनाए गए कानूनों महिलाओं में शिक्षा के प्रसार और महिलाओं की धीरे-धीरे बढ़ती हुई आर्थिक स्वतन्त्रता के बावजूद असंख्य महिलाएँ अब भी हिंसा की शिकार हैं । उनको मारा-पीटा जाता है, उनका अपहरण किया जाता है, उनके साथ बलात्कार किया जाता है, उनको जला दिया जाता है या उनकी हत्याएं कर दी जाती हैं ।

गरीब लड़कियाँ ही अकेली बलात्कार का शिकार नहीं होती अपितु मध्यम वर्ग की कर्मचारी महिलाओं को भी मालिकों द्वारा अपमानित किया जाता है । जेल में कैद महिलाओं के साथ अधीक्षकों द्वारा, अपराध संदिग्ध महिलाओं के साथ पुलिस अधिकारियों द्वारा, महिला मरीजों के साथ अस्पताल के कर्मचारियों द्वारा और रोजाना वेतनभोगी महिलाओ के साथ ठेकेदारों और बिचौलियों द्वारा बलात्कार किया जाता है । यहां तक कि बहरी, पागल, अंधी तथा भिखारिन महिलाओं तक को नहीं छोड़ा जाता । निम्न मध्यम श्रेणी से आई हुई महिलाएँ जोकि अपने परिवारों का प्रमुख रूप से भरण-पोषण करती हैं, लैंगिक दुर्व्यवहार को खामोशी से और बिना विरोध किये सहन करती रहती हैं। यदि वह विरोध करती हैं तो उन्हे सामाजिक कलंक और अपमान का सामना करना पड़ता है। अगर हमें आगे बढ़ना है तो इन समस्याओं से निजात पानी होगी। स्त्री स्वतंत्रता वाकई एक बहुत बड़ा प्रश्न है और यह तभी सुलझ सकता है, जब स्त्रियां आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होगीं। इसके लिए कार्यस्थलों पर उनकी सुरक्षा, सहजता और अनुकूल वातावरण निर्माण करने की दिशा में प्रयत्न किए जाने की आवश्यकता है।

कोई भी परिवार, समाज अथवा राष्ट्र तब तक सच्चे अर्थों में प्रगति की ओर अग्रसर नहीं हो सकता जब तक वह नारी के प्रति भेदभाव, निरादर अथवा हीनभाव का त्याग नहीं करता है। भारतीय समाज में पराम्परागत तौर पर पुरुषों का वर्चस्व रहा है। सभी सामाजिक व्यवस्थाओं का संचालन करने का अधिकार तथा अन्य विशेषाधिकार पुरूषों को ही प्राप्त हुए हैं। मौजूदा समय में समाज को चाहिये कि वह अतार्किक, गैर-जरूरी और विभेदकारी व्यवस्थाओं को तिलाँजलि दे तथा महिलाओं सहित सभी वर्गों को प्राप्त विधिक अधिकारों का सम्मान करें।