भारत में महिलाओं की स्थिति : कल और आज (Women In India)

Posted on September 13th, 2018 | Create PDF File

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आज आजादी के 70 सालों बाद भी भारत में महिलाओं की स्थिति संतोषजनक नही कही जा सकती। आधुनिकता के विस्तार के साथ-साथ देश में दिन- प्रतिदिन बढ़ते महिलाओं के प्रति अपराधों की संख्या के आंकड़े चौकाने वाले हैं। उन्हें आज भी कई प्रकार के धार्मिक रीति-रिवाजों, कुत्सित रूढ़ियों, यौन अपराधों, लैंगिक भेदभावों, घरेलू हिंसा, निम्नस्तरीय जीवनशैली, अशिक्षा, कुपोषण, दहेज उत्पीड़न, कन्या भ्रूणहत्या, सामाजिक असुरक्षा, तथा उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है। हालांकि पिछले कुछ दशकों में रक्षा और प्रशासन सहित लगभग सभी सरकारी तथा गैर-सरकारी क्षेत्रों में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी, उनकी स्वायत्तता तथा अधिकारों का कानूनी एवं राजनैतिक संरक्षण, तेजी से बदलते सकारात्मक सामाजिक नज़रिये, सुधरते शैक्षणिक स्तर, अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धाओं में उनकी प्रतिभागिता एवं कौशल तथा सिनेमा, रचनात्मकता, व्यापार, संचार, विज्ञान तथा तकनीकि जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में कई बड़े बदलाव भी देखने में सामने आये हैं। लेकिन यह महज शुरुआत भर है। जब तक समाज के प्रत्येक वर्ग में महिलाओं की पुरुषों के बराबर भागीदरी सुनिश्चित नहीं हो जाती, वे हर प्रकार से शिक्षित, सुरक्षित तथा संरक्षित नही हो जातीं, तब तक हमारी आजादी अधूरी मानी जायेगी।

 

कहा जाता है कि-  वैदिक युग में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त थे। उन्हें यज्ञों में सम्मिलित होने, वेदों का पाठ करने तथा शिक्षा हासिल करने की आजादी थी। ऋग्वेद और उपनिषद गार्गी, अपाला, घोषा, मैत्रेयी जैसी कई महिला विदुषियों के बारे में जानकारी प्रदान करते हैं। जैसा कि प्राचीन भारत में कहा जाता रहा है- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता। अर्थात् जहां स्त्रियों का सम्मान होता है, वहां देवता निवास करते हैं। स्मृतियों नें ( खासकर मनुस्मृति) स्त्रियों पर पाबंदियां लगाना शुरु किया। यहीं से महिलाओं की स्थिति में गिरावट आना शुरु हो गई। भारत पर ईस्लामी आक्रमण के बाद तो हालात बद से बदतर हो गये। इसी समय पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह, सती- प्रथा, जौहर और देवदासी जैसी घृणित धार्मिक रूढ़ियां प्रचलन में आईं। मध्ययुग में भक्ति आंदोलन ने महिलाओं की स्थिति को सुधारने के प्रयास जरूर किये, पर वो उस हद तक सफल नहीं रहे। सिर्फ चुनिंदा स्त्रियां, जैसे कि – मीराबाई, अक्का महादेवी, रामी जानाबाई और लालदेद ही इस आंदोलन का सफल हिस्सा बन सकीं। इसके तुरंत बाद सिख- धर्म प्रादुर्भाव में आया। इसनें भी युध्द, नेतृत्व एवं धार्मिक प्रबंध समितियों में महिलाओं एवं पुरुषों की बराबरी के उपदेश दिये। अंग्रेजी शासन ने अपनी तरफ से महिलों की स्थिति को सुधारने के कोई विशेष प्रयास नही किये, लेकिन 19वीं शताब्दी के मध्य में उपजे अनेक धार्मिक सुधारवादी आंदोलनों जैसे- ब्रह्म समाज ( राजा राम मोहन राय), आर्य समाज ( स्वामी दयानंद सरस्वती), थियोसोफिकल सोसाइटी, रामकृष्ण मिशन( स्वामी विवेकानंद),  ईश्वरचंद्र विद्यासागर( स्त्री-शिक्षा), महात्मा ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले (दलित स्त्रियों की शिक्षा) आदि ने अंग्रेजी सरकार की सहायता से महिलाओं के हित में सती प्रथा का उन्मूलन, 1829 (लार्ड विलियम बेंटिक) सहित कई कानूनी प्रावधान पास करवाने में सफलता हासिल की। इतनी प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद इस दौर में युध्द, राजनीति, साहित्य, शिक्षा और धर्म से कुछ सुप्रसिध्द स्त्रियों के नाम उभरकर सामने आते हैं। जिनमें से रजिया सुल्तान ( दिल्ली पर शासन करने वाली एकमात्र महिला साम्राज्ञी), गोंड की महारानी- दुर्गावती, शिवाजी महाराज की माता- जीजाबाई, कित्तूर की रानी- चेन्नम्मा, कर्नाटक की महारानी- अब्बक्का, अवध की सह- शासिका बेग़म हज़रत महल, आगरा की नूरजहां तथा झांसी की महारानी -लक्ष्मीबाई के नाम प्रमुख हैं। भारत का पहला महिला महाविद्यालय बिथयून कालेज, 1879 में खुला। जिससे चंद्रमुखी बसु, कादंबिनी गांगुली और आंनंदी गोपाल जोशी नें वर्ष 1886 में शुरुआती शैक्षणिक डिग्रियां प्राप्त कीं थीं।

 

यूं तो पहले भी माता तपस्विनी, मैडम कामा, और सरला देवी जैसी कई क्रांतिकारी महिलायें भारत के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय थीं, किंतु गांधी जी के आवाहन के बाद यह संख्या कई गुना और बढ़ गई। शांति घोष, स्मृति चौधरी, बीना दास, प्रीतिलता वाडेडकर, बनलतादास गुप्ता, विजयलक्ष्मी पंण्डित, राजकुमारी अमृत कौर, अरुणा आसफ अली, सुचेता कृपलानी, कस्तूरबा गांधी, दुर्गाबाई देसमुख, कैप्टेन लक्ष्मी सहगल, तथा सरोजिनी नायडू भारत की आजादी के संघर्ष में शामिल होने वाली प्रमुख महिलायें हैं। इनके अतिरिक्त कई विदेशी महिलाओं- मीरा बेन ( मेडलीन स्लेड), सरला बेन( कैथरीन मेरी हीलमेन), एनी बेसेंट, भगिनी निवेदिता आदि ने भी इस आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

 

आजादी के बाद के वर्षों में महिलाओं के लिए समान अधिकार ( अनुच्छेद-14), राज्य द्वारा कोई भेदभाव नही करने( अनु.-15), अवसरों की समानता ( अनु.-16), समान कार्य के लिए समान वेतन ( अनु.-39), अपमानजनक प्रथाओं के परित्याग के लिए ( अनु.- 51(ए)(ई)), प्रसूति सहायता के लिए ( अनु.- 42) जैसे आदि अनेक प्रावधान भारतीय संविधान में किए गये। इसके अतिरिक्त अनैतिक व्यापार( निवारण) अधिनियम 1956, दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961, कुटुम्ब न्यायालय अधिनियम 1984, महिलाओं का अशिष्ट रूपण ( प्रतिषेध) अधिनियम 1986, सती निषेध अधिनियम 1987, राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम 1990, गर्भधारण पूर्वलिंग चयन प्रतिषेध अधिनियम 1994, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005, बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006, कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न ( प्रतिषेध) अधिनियम 2013, दण्डविधि (संशोधन) 2013 भारतीय महिलाओं को अपराधों के विरुध्द सुरक्षा प्रदान करने तथा उनकी आर्थिक एवं सामाजिक दशा में सुधार करने के लिए बनाये गए प्रमुख कानूनी प्रावधान हैं। कई राज्यों की ग्राम व नगर पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों का प्रावधान भी किया गया है।

 

विडम्बना तो यह है कि इतने सारे कानूनी प्रावधानों के होने के बावजूद देश में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों में कमी होने की बजाय वृध्दि हो रही है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो( NCRB) की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में प्रतिदिन 100 महिलाओं का बलात्कार हुआ और 364 महिलाऐं यैन उत्पीड़न का शिकार हुईं। इस वर्ष केवल बलात्कार के 36735 मामले दर्ज किए गये जो 2012 में दर्ज ( 24923) मामलों से कहीं ज्यादा अधिक थे। यूनिसेफ की रिपोर्ट ‘हिडेन इन प्लेन साइट’ के मुताबिक भारत में 15 साल से 19 साल की उम्र वाली 34 प्रतिशत विवाहित महिलाऐं ऐसी हैं जिन्होंने अपने पति/ साथी के हाथों यौन हिंसा झेली है। इंटरनेशनल सेंटर- रिसर्च ऑन वीमेन के अनुसार भारत में 10 मे से 6 पुरुषो ने कभी न कभी पत्नी अथवा प्रेमिका के साथ हिंसक व्यवहार किया है। गृहमंत्रालय भारत सरकार द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक 2014 से 2016 के बीच देश भर में बलात्कार 1,10,333 मामले दर्ज किए गये हैं। NCRB के अनुसार पिछले 10 वर्षों में महिलाओं के विरुध्द हुए अत्याचारों में दो- गुने से ज्यादा की बढ़ोत्तरी हुई है। इस संबंध में देश में हर घंटे करीब 26 आपराधिक मामले दर्ज किए जाते हैं। यह स्थिति बेहद ही भयावह है। इसके अतिरिक्त कई अन्य चिंतायें भी जैसे- स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सरोकार, घर के महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने में भूमिका की कमी, दोहरा सामाजिक रवैया, प्रशिक्षण का अभाव, पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता, गरीबी एवं धार्मिक प्रतिबंध शामिल हैं। यूएनडीपी (मानव विकास रिपोर्ट) 1997 के अनुसार भारत में 88% महिलायें रक्ताल्पता का शिकार हैं। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रजनन क्षमता पर नियंत्रण पाने के बहुत कम उपाय प्रयोग किये जाते हैं, जिससे बार- बार गर्भधारण और शारीरिक अक्षमता के चलते कई प्रकार की स्वास्थ्य समस्याऐं आये दिन देखनें में आती रहतीं हैं।

 

हालाकि कुछ महिलायें इन सभी चुनौतियों से पार पाकर विभिन्न क्षेत्रों में देश के सम्माननीय स्तरों तक भी पहुंची हैं, जिनमें श्रीमती इंदिरा गांधी, प्रतिभादेवी सिंह पाटिल, सुषमा स्वराज, निर्मला सीतारमण, महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान, अमृता प्रीतम, महाश्वेता देवी, लता मंगेशकर, आशा भोषले, श्रेया घोषाल, सुनिधि चौहान, अल्का याज्ञनिक, सुश्री मायावती, जयललिता, ममता बनर्जी, मेधा पाटकर, अरुंधती रॉय, चंदा कोचर, पी.टी. ऊषा, साइना नेहवाल, सानिया मिर्जा, साक्षी मलिक, पी. वी. सिंधू, हिमा दास, झूलन गोस्वामी, स्मृति मंधाना, मिथाली राज, हरसन प्रीत कौर, गीता फोगाट तथा मैरी कॉम आदि नाम उल्लेखनीय हैं।

 

भारत जैसे पुरुष-प्रधान देश में 70 के दशक से महिला सशक्तिकरण तथा फेमिनिज्म शब्द प्रकाश में आये। जिनमें 1990 के भूण्डलीकरण तथा उदारवाद के बाद विदेशी निवेश द्वारा स्थापित गैर-सरकारी संगठनों के रूप में अभूतपूर्व तेजी आई। इन संगठनों ने भी महिलाओं को जागृत कर उनमें उनके अधिकारों के प्रति चेतना विकसित करने तथा उन्हें सामाजिक/ आर्थिक रूप से सशक्त बनाने में महती भूमिका अदा की है। साथ ही मुस्लिम महिलाओं में प्रचलित निकाह- हलाला, तथा तीन तलाक जैसे पुरातनपंथी धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ कानूनी लड़ई लड़ने में मदद की है। हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर-प्रदेश आदि में कन्या-भ्रूण हत्या को रोककर लिंग अनुपात के घटते स्तर को संतुलित करने तथा शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति सुधारने के प्रक्रम को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार द्वारा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना चलाई जा रही है। तथा लोकसभा एवं विधानसभा के चुनावों में 33% महिला सीचों के आरक्षण का विधेयक लंबित है।

 

स्त्री- सुरक्षा और समता में उठाया गया हमारा प्रत्येक कदम किसी न किसी हद तक स्त्रियों की दशा सुधारनें में कारगर साबित हो रहा है, इसमें कोई दोराय नहीं, किंतु सामाजिक सुधार की गति इतनी धीमी है कि इसके यथोचित परिणाम स्पष्ट रूप से सामने नहीं आ पाते। हमें और भी द्रुत गति से इस क्षेत्र में जन-जागृति और शिक्षा पहुंचाने का कार्य करने की आवश्यकता है। शिक्षा सभी दोषों से छुटकारा दिलाने का आधारभूत साधन है। एक शिक्षित स्त्री न केवल अपना बल्कि परिवार की परिवार की तीन पीढ़ियों का सर्वतोभद्र कल्याण कर सकती है। इसलिए शिक्षा को केन्द्र बनाकर तथा समुचित साधन और कानूनों का पालन सुनुश्चित करके देश को महिला अपराध मुक्त बनाया जा सकता है।