भारत में समलैंगिकता और धारा-377 (Homosexuality in India and Article-377)

Posted on September 13th, 2018 | Create PDF File

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भारत में एकबार फिर स्वेच्छा और आपसी सहमति से दो वयस्क नागरिकों द्वारा समलैंगिक यौन संबंध बनाना अपराध के दायरे से बाहर कर दिया गया है। वर्ष 2013 में सुरेश कौशल प्रकरण में दिए अपने ही फैसले को पलटते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 6 सितम्बर 2018 को एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाया। न्यायालय ने कहा कि- समलैंगिक रुझान पूर्णतया स्वाभाविक जैविक घटना हैं। यह किसी व्यक्ति की मानसिक विकृति, विकल्प या विलासिता का परिणाम नहीं हैं। इसलिए इन्हें किसी भी प्रकार के अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता । भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की धारा 377 को असंवैधानिक करार देते हुए मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली 5 जजों की खण्डपीठ नें इसे अनुच्छेद-14 ( समानता का अधिकार), अनुच्छेद-15 ( धर्म, जाति, लिंग अथवा जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध), अनुच्छेद-19 (भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) तथा अनुच्छेद-21  ( जीवन का अधिकार और गोपनीयता का अधिकार) के विपरीत बताया। साथ ही अनुच्छेद-13 (मैलिक अधिकारों का संरक्षण) तथा योग्याकार्टा सिध्दान्तों ( मानवाधिकार समूहों की अंतरराष्ट्रीय बैठक, 2006 इंडोनेशिया में प्रकाशित दस्तावेज, जो लैंगिक अभिविन्यास, लैंगिक पहचान और लैंगिक अभिव्यक्ति से जुड़े हुए हैं) का हवाला देते हुए कहा कि- संवैधानिक नैतिकता को सामाजिक नैतिकता की बलिवेदी पर शहीद नहीं किया जा सकता। न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा नें इस निर्णय में हुई देरी को इतिहास में खेद के साथ दर्ज करने तथा इसके सार्वजनिक प्रकाशन एवं प्रसारण तक की बात कही।

ज्ञात हो कि समलैंगिकता किसी व्यक्ति के समान लिंग के लोगों के प्रति यौन आकर्षण, लिंग के विपरीत व्यवहार एवं सामान्य पुरुष या स्त्री से अलग या मिले-जुले लक्षणों का होना होता है। यह जन्मजात एवं स्वाभाविक प्रवृत्ति है जो मनुष्यों के अतिरिक्त पशुओं जैसे- पेंग्विन, डाल्फिन, चिम्पेंजी आदि में भी पायी जाती है। वे पुरुष जो अन्य पुरुषों के प्रति आकर्षित होते हैं उन्हें ‘पुरुष- समलिंगी’ या ‘गे’ तथा महिला का महिला के प्रति आकर्षण ‘ महिला- समलिंगी’ या ‘लेस्बियन’ कहलाता है। जो महिला एवं पुरुष दोनों के प्रति आर्कषण रखते हैं, वे उभयलिंगी या ‘बाईलैंगुअल’  कहे जाते हैं। इसके अतिरिक्त ट्रांसजेंडर और क्वीयर प्रकार की लैंगिक पहचान वाले लोग भी इसी श्रेणी में आते हैं। इन्हें संयुक्त रूप से LGBTQ (लेस्बियन, गे, बाईलैंगुअल, ट्रासजेंडर और क्वीयर) समुदाय के लोग कहा जाता है। भारत सहित तमाम देशों में इस समुदाय के लोगों की सामाजिक स्थिति संतोषजनक नही है।इनके लिए तरह-तरह के अपमानजनक और फूहड़ शब्दों का प्रयोग कर इन्हें चर्चा और परिहास का विषय बनाया जाता है। साथ ही  बहुत सारे धर्मों में समलैंगिकता को पाप माना गया है। अक्सर समलैंगिक लोग धार्मिक अतिवादियों की असहिष्णुता, भेदभाव व हिंसा तथा बलात्कार तक का शिकार भी बनाये जाते हैं। इन्हें न तो समाज की मुख्य धारा में स्थान दिया जाता है और न ही सामान्य लोगों जितना सम्मान, अधिकार, स्वतंत्रता तथा अवसरों में समानता मिलती है। इसलिए अधिकतर समलिंगी सामाजिक समारोहों में नाच-गाकर मांगने अथवा समाज में अपनी पहचान छुपाये रखनें के लिए बाध्य हैं। 2012 के एक आंकड़े के मुताबिक देश में जाहिर समलैंगिक समुदाय के लोगों की संख्या 25 लाख से ऊपर है। कुछ लोग इसे मानसिक विकृति भी मानते हैं। उनका दावा है कि उचित चिकित्सकीय निदानों द्वारा इसे ठीक किया जा सकता है। वहीं बहुत से वैज्ञानिक और चिकित्सक इस बात पर सहमत हैं कि समलैंगिक व्यवहार को बदला नहीं जा सकता। यह पूर्णतया स्वाभाविक मानसिक संरचना है, जो जैव आनुवंशिकी, शारीरिक हारमोन तथा वातावरण के विशिष्ट समायोजन की देन है। यदि ट्रांसजेंडरों को छोड़ दिया जाये तो भारत में समलैंगिकता को पश्चिमी सभ्यता का विकृत रूप भी माना जाता है, तथा सामाजिक रूप से इसका बहिष्कार किया जाता रहा है। हालांकि कई प्राचीन भारतीय कलाकृतियों व चित्रों में इसके भारत में पहले से ही होने के प्रमाण मिलते हैं, जिनमें दो पुरुषों को अंतरंग संबंध या यौनक्रिया में दिखाया गया है।

समलैंगिकों के संबंध में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 किसी भी प्रकार के अप्राकृतिक यौन संबंध का निषेध करती है। इसके अनुसार- जो कोई भी स्वेच्छा से प्राकृतिक व्यवस्था के विपरीत किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ मैथुन करता है तो उसे उम्र कैद या फिर एक निश्चित अवधि के लिए कैद; जो 10 साल तक के लिए बड़ाई जा सकती है, की सजा होगी। इसके साथ ही उसे जुर्मान भी देना होगा। धारा 377 में गैर जमानती वारंट तथा किसी गुप्त सूचना के माध्यम से बिना वारंट के गिरफ्तारी का भी प्रावधान है। इस कानून को वर्ष 1861, ब्रिटिश इंडिया में तत्कालीन भारतीय गवर्नर जनरल लार्ड मैकाले द्वारा भारतीय दण्ड संहिता में भाग- 377 के अंतर्गत सामाजिक नैतिकता का हवाला देते हुए जोड़ा गया था। 157 साल बाद वर्ष 2018 में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय नें इसे अप्रासंगिक एवं असंवैधानिक करार देते हुए अमान्य घोषित कर दिया है। भारतीय न्यायिक व्यवस्था में ऐसा दूसरी बार हुआ है जब इस कानून को अमान्य करार दिया गया हो।

दरअसल वर्ष 2001 में नीदरलैंड समलैंगिक विवाह कानून को पारित करने वाला विश्व का पहला देश बना। इससे समलैंगिकों के अधिकारों और समता की चर्चा पूरी दुनिया में एक बार फिर नये सिरे से बहस के केन्द्र में आ गई। उसी वर्ष भारत में समलैंगिकों के एक गैर-सरकारी संगठन (NGO)  ‘नाज़ फाउंडेशन’  नें (वर्ष 2001 में ) दिल्ली उच्च-न्यायालय में एक याचिका दायर की। जिसपर 9 साल तक सुनवाई चली। उसके बाद न्यायालय ने इस संबंध में सरकार का पक्ष मांगा। हालाकि इस मामले पर सरकार का काफी मिलाजुला पक्ष रहा। जहां एक ओर स्वास्थ्य मंत्रालय नें इसे जायज ठहराया वहीं दूसरी ओर गृह-मंत्रालय की तरफ से काफी नकारात्मक रवैया देखने को मिला। वर्ष 2009 में अपना फैसला सुनाते हुए दिल्ली उच्च-न्यायालय ने समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में लाने वाली IPC की धारा- 377 को अवैध घोषित कर दिया। जिसके विरोध में सुरेश कौशल प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल हुआ। 4 साल बाद यानी वर्ष 2013 में सर्वोच्च न्यायालय नें दिल्ली उच्च-न्यायालय के फैसले को अमान्य करार देते हुए पुनः धारा 377 को लागू कर दिया। इसके बाद एक बार फिर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के 30 विद्यार्थियों एवं नाज़ फाउंडेशन की सहायता से माननीय सर्वोच्च न्यायलय के समक्ष पुनर्विचार याचिका दायर की गई जिसे नवतेज सिंह भर बनाम भारतीय संघ के नाम से जाना जाता है। इस मामले पर सुनवाई करते हुए 2 फरवरी 2016 को सुप्रीम कोर्ट की 3 जजों वाली खण्डपीठ नें इसे 5 जजों वाली बड़ी खण्डपीठ को सौंप दिया। वर्ष 2014 में सुप्रीम कोर्ट नें अपने एक निर्णय में (5 अप्रैल) को ट्रांसजेंडरों तीसरे लिंग का दर्जा प्रदान किया साथ ही उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग(OBC)  में रखते हुए आरक्षण का लाभ दिये जाने की भी घोषणा की। इसके बाद 2017 में एक ऐतिहासिक फैसला आया जिसमें निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार माना गया। साथ ही सेक्स- ओरियंटेशन को निजता के दायरे में लाया गया। इसी प्रक्रम में 17 जुलाई 2018 को भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई में जस्टिस आर. एस. नरीमन, जस्टिस डी. वाई. चन्द्रचूड़, जस्टिस खानविलकर तथा जस्टिस इंदु मल्होत्रा वाली पीठ नें समलैंगिकता और धारा 377 के विषय पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। 6 सितंबर 2018 को अपने ही पुराने निर्णय को पलटते हुए सुप्रीम कोर्ट नें एक और ऐतिहासिक निर्णय सुनाया, जिसमें धारा-377 को संविधान के मूल अधिकारों के विरुध्द करार देते हुए अवैध घोषित कर दिया गया। साथ ही न्यायालय नें यह भी स्पष्ट किया कि- धारा 377 पूर्णतया ख़त्म नही की जायेगी। बच्चों और पशुओं से तथा असहमति से बनाये गये अप्राकृतिक यौन संबंध अब भी अपराध की श्रेणी में बने रहेंगे।

भारत में इस मामले पर शुरु से ही राजनैतिक रवैया काफी ढ़ुलमुल रहा है। हालांकि न्यायालय नें सरकार से इस संबंध में जल्द ही संसदीय कानून बनाने और समलैंगिकता के प्रति आम लोगों में जागरूकता बढ़ाने के प्रयास करने की अनुशंसा की है। वर्ष 2014, दिसंबर में संसद के उच्च-सदन (राज्यसभा) में DMK के सांसद तिरुचिशिवा द्वारा “ विपरीतलिंगी व्यक्तियों के अधिकार विधेयक, 2014” पेश किया गया। यह एक निजी विधेयक था। जिसपर अप्रैल 2015 में बहस हुई और राज्यसभा से इस विधेयक को मंजूरी मिल गई। भारतीय संसद के 36 सालों में यह पहला मौका था, जब किसी गैर-सरकारी विधेयक को मंजूरी मिली हो। इससे पहले कुल 14 गैर-सरकारी विधेयकों को ही संसद के किसी सदन में पास किया गया है। हालांकि लोकसभा में इस विधेयक पर चर्चा नही हो सकी। इस विधेयक में कुल 58 प्रावधान थे। जिनमें से प्रमुख हैं- समलैंगिक समुदाय को बराबरी का हक़, उनके मानवाधिकारों की रक्षा, उन्हें आर्थिक और कानूनी मदद मुहैया कराया जाना, उनके लिए शिक्षा और रोजगार के अवसर सृजित करना, व्यावसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था करना, विशेषाधिकार न्यायालयों की स्थापना तथा राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय समलैंगिक आयोगों की स्थापना करना शामिल था। इसी प्रक्रम में 2015 में सरकार अपना विधेयक लेकर आई- ट्रांसजेंडर व्यक्ति ( अधिकार का संरक्षण) बिल, 2016 जिसका मसौदा विधि एवं कानून मंत्रालय के पास सुरक्षित है। सरकार ने इस विषय पर विशेषज्ञों से सुझाव आमंत्रित किये हैं। जुलाई 2016 में केन्द्रीय कैबिनेट की मंजूरी मिल जाने के बाद अगस्त, 2016 में इस बिल को लोकसभा में पेश किया गया। जिसे उस समय मंजूरी नही मिल सकी। मार्च 2016 में दोबारा इस बिल को लोकसभा में लाया गया, लेकिन अब तक यह बिल लोकसभा में पारित होने में असफल रहा है। इससे पहले 12 नवंबर 2015 को केरल सरकार नें ट्रांसजेंडर नीति जारी की थी, जिसे- स्टेट पॉलिसी फॉर ट्रांसजेंडर, 2015 के नाम से जाना जाता है। इसमें लैंगिक अल्पसंख्यकों को सामाजिक कलंक माने की प्रवृत्ति खत्म करने की मांग की गई थी। इसके अतिरिक्त झारखण्ड एवं अन्य प्रादेशिक सरकारों द्वारा LGBTQ- समुदाय के लिए कुछ विशिष्ट राजनैतिक एवं कल्याणकारी प्रयास किए गये हैं।

समलैंगिक अधिकारों की हिमायत करने वाले पक्षों का तर्क रहा है कि- संविधान के अनुच्छेद-15 के अनुसार लिंग के आधार पर भेदभाव को उचित नहीं ठहराया जा सकता तथा व्यक्ति की यौन अभिरुचि उसकी अपने निजता के मौलिक अधिकार के दायरे में आती है। इसके अतिरिक्त यह अनुच्छेद- 21 ( जीने का अधिकार, गोपनीयता का अधिकार), अनुच्छेद-14 ( बिना भेदभाव कानूनी संरक्षण) का उल्लंघन है। वहीं प्रतिवादी पक्ष के इसके नकारात्मक पहलुओं जैसे- इसके अप्राकृतिक होने, मानसिक बीमारी करार देने, HIV- एड्स जैसे घातक बीमारी के फैलने, तथा सामाजिक नैतिकता के तर्क दिये जाते रहे हैं। यूं तो हाल ही में आये इस ऐतिहासिक निर्णय से LGBTQ- समुदाय में जश्न का माहौल है, लेकिन फिर भी अभी तक उनकी यह लड़ाई पूरी नही हुई है। जहां एक ओर उन्हें  शादी करने, बच्चे गोद लेने तथा संपत्ति के अधिकारों का न्यायिक रूप में मिलना बाकी है वहीं दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से उन्हें रातों-रात सामाजिक मान्यता नहीं मिली है। इसके लिए इस समुदाय को अभी लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।

यदि बात की जाये इस समाज के वैश्र्विक-परिदृश्य की तो अधिकांश पश्चिमी देशों में समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता मिली हुई है, तथा वहां की सरकार द्वारा इनकी रक्षा- सुरक्षा में खासे इंतजाम किए गये हैं। अमेरिका ( डोंट आस्क, डोंट टेल कानून- 2013), ब्रिटेन( 1967), चीन ( 2002), नार्वे, स्वीडन, आइसलैंड(1996), बेल्जियम, न्यूजीलैंड (2004), स्पेन, कनाडा (2005) सहित विश्व के 196 देशों में से 125 देशों में समलैंगिकता अपराध के दायरे में नही आती, जबकि ईराक, ईरान, सऊदी अरब, पाकिस्तान और रूस सहित अभी भी 72 ऐसे देश हैं जिनमें इसे गुनाह माना जाता है। इस्लामिक देशों में से केवल 2 देशों ( तुर्की और बहरीन ) में समलैंगिकता अपराध घोषित नहीं है, फिर भी यहां इस समुदाय पर कई प्रकार के रूढ़िवादी अलिखित धार्मिक कानून लागू होते हैं। विवाह के बजाय कुछ देशों ( उन 25 देशों को छोड़कर जिनमें समलैंगिक विवाह की अनुमति है) में समलैंगिकों के लिए ‘नागरिक संयोजन’  या  ‘घरेलू भागीदारी’  का प्रावधान है। इन कानूनों के तहत विवाह से संबंधित कुछ सुरक्षा व लाभ मिलते हैं, लेकिन सभी नहीं। जो यह दर्शाते हैं कि इस प्रकार के दंपति उतने महत्त्वपूर्ण या वैध नही हैं, जितने कि विषमलैंगिक दंपति। इस प्रकार के कानूनों की तुलना अमेरिका के नस्ल-भेद के कानून ‘ अलग, लेकिन समान’  से भी की जाती है। हालांकि यह बात स्पष्ट है कि अलग नियम कभी भी समान नही हो सकते। और अब भी समलैंगिक समुदाय को दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता है, जो कि नितांत अनैतिक और भेदभावपूर्ण है।

LGBTQ- समुदाय को समाज की मुख्य धारा से अलग करके कोई भी देश प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अपना अहित ही कर रहा होता है। इससे न केवल देश  के सकल घरेलू उत्पाद पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है बल्कि- देश की संपूर्ण प्रतिभा एवं कौशल तथा युवा मानवीय शक्ति का भी सदुपयोग नहीं होने 

पाता। लोगों को शीघ्र ही इस बारे में शिक्षित एवं जागरूक करके उनकी इस समुदाय के प्रति मानसिक स्थिति को बदलना बहुत जरूरी है। ताकि समाज में बिना किसी दोहराव और भेदभाव के सभी नागरिकों के लिए अवसरों की समानता तथा नागरिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।