सामजिक समसामियिकी 1 (18-Feb-2019)
संरक्षण की लड़ाई में हमेशा बच्चों का नुकसान होता है, वे भारी कीमत चुकाते हैं: न्यायालय
(Children are always at a disadvantage in the fight for protection, They pay a heavy price: Courts)

Posted on February 18th, 2020 | Create PDF File

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उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि संरक्षण की लड़ाई में हमेशा ही बच्चों को नुकसान होता है और वे इसकी भारी कीमत चुकाते हैं क्योंकि वे इस दौरान अपने माता पिता के प्यार और स्नेह से वंचित रहते हैं जबकि इसमें उनकी कोई गलती नहीं होती है।

 

शीर्ष अदालत ने बच्चों के अधिकारों का सम्मान करने की आवश्यकता पर जोर देते हुये कहा कि वे अपने माता पिता दोनों के प्यार और स्नेह के हकदार होते हैं। न्यायालय ने कहा कि विवाह विच्छेद से माता पिता की उनके प्रति जिम्मेदारी खत्म नहीं हो जाती है।

 

न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की पीठ ने कहा कि संरक्षण के मामले पर फैसला करते समय अदालतों को बच्चे के सर्वश्रेष्ठ हित को ध्यान में रखना चाहिए क्योंकि संरक्षण की लड़ाई में वही पीड़ित’ है और अगर मध्यस्थता की प्रक्रिया के माध्यम से वैवाहिक विवाद नहीं सुलझता है तो अदालतों को इसे यथाशीघ्र सुलझाने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि इसमें लगने वाले हर दिन के लिए बच्चा बड़ी कीमत चुका रहा होता है।

 

पीठ ने लंबे समय से वैवाहिक विवाद मे उलझे एक दंपति के मामले में अपने फैसले में यह टिप्पणियां कीं। पीठ ने कहा, ‘‘संरक्षण के मामले में इसका कोई मतलब नहीं है कि कौन जीतता है लेकिन हमेशा ही बच्चा नुकसान में रहता है और बच्चे ही इसकी सबसे बड़ी कीमत चुकाते हैं क्योंकि जब अदालत अपनी न्यायिक प्रक्रिया के दौरान उनसे कहती है कि वह माता पिता में से किसके साथ जाना चाहते हैं तो बच्चा टूट चुका होता है।’’

 

शीर्ष अदालत ने बच्चे के संरक्षण के मामले का फैसला करते हुये कहा , ‘‘बच्चे की भलाई ही प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा होता है और यदि बच्चे की भलाई के लिये आवश्यक हो तो तकनीकी आपत्तियां इसके आड़े नहीं आ सकतीं।’’

 

पीठ ने कहा, ‘‘हालांकि, बच्चे की भलाई के बारे में फैसला करते समय माता पिता में से किसी एक के दृष्टिकोण को ध्यान में नहीं रखना चाहिए। अदालतों को बच्चे के सर्वश्रेष्ठ हित को सर्वोपरि रखते हुये संरक्षण के मामले में फैसला करना चाहिए क्योंकि संरक्षण की इस लड़ाई में ‘पीडि़त’ वही है।’’

 

पीठ ने पेश मामले में कहा कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने पहले बच्चे के सर्वश्रेष्ठ हित को ध्यान में रखते हुये माता पिता के बीच विवाद सुलझाने का प्रयास किया था, लेकिन अगर पति पत्नी अलग होने या विवाह विच्छेद के लिये अड़े होते हैं तो बच्चे ही इसकी सबसे बड़ी कीमत चुकाते हैं और वे ही इसका दंश झेलते हैं।’’

 

न्यायालय ने कहा, ‘‘ऐसे मामले में फैसला होने में विलंब से निश्चित ही व्यक्ति को बड़ा नुकसान होता है और वह अपने उन अधिकारों से वंचित हो जाता है जो संविधान के तहत संरक्षित हैं और जैसे जैसे दिन गुजरता है तो वैसे ही बच्चा अपने माता पिता के प्रेम और स्नेह से वंचित होने की कीमत चुका रहा होता है जबकि इसमें उसकी कभी कोई गलती नहीं होती है लेकिन हमेशा ही वह नुकसान में रहता है। ’’

 

पीठ ने कहा कि इस मामले में शीर्ष अदालत ने विवाद का सर्वमान्य समाधान खोजने का प्रयास किया लेकिन माता-पिता का अहंकार आगे आ गया और इसका असर उनके दोनों बच्चों पर पड़ा।

 

पीठ ने पति पत्नी के बीच छिड़ी वैवाहिक विच्छेद की जंग पर टिप्पणी करते हुये कहा कि इस दौरान उनके माता पिता अपने बच्चों के प्रेम और स्नेह से ही वंचित नहीं हुये बल्कि वे अपने पौत्र पौत्रियों के सानिध्य से भी वंचित होकर इस संसार से विदा हो गये।

 

पीठ ने कहा कि बहुत ही थोड़े ऐसे भाग्यशाली होते हैं जिन्हें अपने जीवन के अंतिम क्षणों में जिनके बच्चों को अपने दादा दादी का सानिध्य मिलता है।

 

शीर्ष अदालत ने कहा कि सितंबर, 2017 में उसके अंतरिम आदेश में की गयी व्यवस्था और बाद के निर्देश जारी रहेंगे। न्यायालय ने इस अंतरिम आदेश में कहा था कि दशहरा, दीवाली और शरद अवकाश ये बच्चे किस तरह से अपने माता पिता के साथ रहेंगे।

 

न्यायालय ने संबंधित पक्षकारों को अवयस्क बच्चे के संरक्षण के लिये अलग से सक्षम अदालत में कार्यवाही शुरू करने की छूट प्रदान की।

 

पीठ ने कहा कि पति द्वारा संबंधित अदालत में दायर तलाक की याचिका पर 31 दिसंबर, 2020 तक फैसला किया जाये।

 

इस मामले की सुनवाई के दौरान न्यायालय ने मार्च, 2017 में आदेश दिया था कि बच्चों को बोर्डिंग स्कूल में रखा जाये क्योंकि उनका अपने माता पिता में से किसी एक के पास रहना उनके लिये हितकारी नहीं है।