केंद्रीय बजट : एक यात्रा 1947 से अब तक
(Central Budget: A Journey from 1947 to till now)

Posted on February 13th, 2019 | Create PDF File

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2019 का अंतरिम बजट संसद के पटल पर रख दिया गया है। इस मौके पर हमने पलटे आजादी के बाद से अब तक पेश किए जा चुके सभी बजट के इतिहास के पन्ने और जाना राष्ट्र की मांग पर कितने खरे उतरे ये बजट।

 

उदारीकरण से पहले-

 

खाद्य सुरक्षा पर केंद्रित आजाद भारत के सबसे पहले बजट से लेकर 2019 में वर्तमान राजग सरकार द्वारा पेश किए गए बजट तक, हर बार किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया गया। लेकिन, चुनौतियां और समस्याएं जस की तस रहीं और उनके प्रस्तावित समाधानों में भी कोई बदलाव नहीं आया। यहां विकास के लिहाज से बीते 69 वर्षों के बजट निर्माण पर डाल रहे हैं एक नजर।

 

1948-1949 : भारत का पहला बजट सिर्फ साढ़े सात महीने 15 अगस्त 1947 से 31 मार्च 1948 तक के लिए पेश किया गया था। पहले बजट की प्रमुख बात बजट को पारित करने का फैसला थी। बंटवारे और उसके परिणामस्वरूप उपजी अस्थिरता बजट के प्रावधानों को निर्धारित करने वाले प्रमुख तत्व रहे। इसमें खाद्यान्न उत्पादन, रक्षा सेवाओं और सिविल व्यय, इन तीन चीजों पर सबसे ज्यादा खर्च किया गया। खाद्य उत्पादन बहुत कम था, इसलिए खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता को प्राथमिकता दी गई। इसमें करीब 171 करोड़ रुपये की राजस्व प्राप्ति का लक्ष्य रखा गया था, जिसमें से 15.9 करोड़ रुपये डाक एवं तार विभाग से मिलने की उम्मीद थी। वहीं, बजट में अनुमानित खर्च करीब 197 करोड़ रुपये का था, जिसमें से 92.74 करोड़ रुपये रक्षा विभाग को दिए गए थे। अस्थिरता दूर करने और शरणार्थियों के राहत एवं पुर्नवास कार्यों पर हुए व्यय की वजह से बजट के खर्चों में बढ़ोतरी हुई।

 

1949-1950 : बंटवारे के बाद के हालात इस बजट के भी प्रमुख निर्णायक तत्व बने रहे। बिहार में बाढ़, बॉम्बे में चक्रवात और पश्चिमी तट पर पड़े सूखे का असर बजट में दिखा। समाज के कुछ खास तबकों में खरीददारी की क्षमता बढ़ गई थी। ऐसे में बढ़ती महंगाई के दौर को नियंत्रित कर पाना इस बजट की खासियत रही। इस बजट में खासतौर पर जिन बातों पर ध्यान दिया गया, वही थीं : खाद्य नियंत्रण को फिर से लागू करना, उचित मूल्य पर खाद्यान्न आपूर्ति बढ़ाना और विदेशों से खाद्य सामग्री के आयात को सीमित करना। इसके साथ ही विकास परियोजनाओं के लिए आईबीआरडी/आईएमएफ से डॉलर लोन लेने का प्रस्ताव भी दिया गया। इसमें 338.32 करोड़ रुपये के राजस्व प्राप्ति का अनुमान लगाया गया, जो इस बजट के अनुमानित खर्च 255.24 करोड़ रुपये से 83.08 करोड़ रुपये अधिक था। इसमें रक्षा सेवाओं के लिए 34.35 करोड़ और सिविल व्यय के लिए 48.14 करोड़ रुपये दिए गए। कश्मीर घाटी में अभियानों के चलते रक्षा क्षेत्र में बढ़ोतरी देखने को मिली।

 

1950-51: संविधान अपनाकर देश को गणतंत्र घोषित करने के बाद यह पहला बजट था। बजट का मुख्य उद्देश्य योजना आयोग की स्थापना करना था, जो देश के संसाधनों का उपयोग करने के जिए प्रभावी योजनाएं तैयार कर सके। 1950 की शुरुआत में भारतीय बजट सार्वजनिक क्षेत्र और वित्त विभाग के इर्द-गिर्द ही सिमटा रहता था। ऐसे में यह करों, मुद्रास्फीति और सार्वजनिक बचत पर ही निर्भर रहा। इस दौर में कृषि क्षेत्र को प्राथमिकता दी गई। रक्षा और सिविल व्यय चरम पर रहे। देश के विभिन्न हिस्सों में आने वाली प्राकृतिक आपदाओं जैसे कि असम में भकूंप, बिहार की बाढ़ और यूपी व बिहार में सूखा आदि के लिए प्रावधान किए गए। बजट में अधिकतम आयकर की दर को 30 फीसदी से घटाकर 25 फीसदी कर दिया गया। 121,000 रुपये से अधिक आय पर 8.5 आना प्रति रुपये की दर से सुपर टैक्स लागू किया गया। निजी कर की अधिकतम दर 78 फीसदी थी।

 

1951-52: इस अवधि में स्वदेशी वस्तुओं जैसे कि जूट से बने सामान, कच्चे कपास और कच्चे ऊन आदि की मांग में भारी बढ़ोतरी दर्ज की गई। देश में आवश्यक वस्तुएं लाने की अनुमति देने के लिए आयात नियमों में धीरे-धीरे राहत दी गई। 1950 के दौरान कच्चे माल के साथ-साथ आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं जैसे कि दवाओं आदि के आयात की अधिकतम मौद्रिक सीमा में बढ़ोतरी हुई। सितंबर 1949 में रुपये के अवमूल्यन के साथ-साथ बकाए के भुगतान में सुधार शुरू हुआ। बीते वर्षों की तरह इस अवधि में भी खर्च में कमी के साथ-साथ राजस्व प्राप्ति में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई। इस बार अनुमानित राजस्व 387.21 करोड़ रुपये रहा, जबकि खर्च 379.28 करोड़ रुपये था। यह सीमा शुल्क, रेलवे और आयात शुल्क में कमी के चलते राजस्व प्राप्ति में हुए सुधार से संभव हो सका और डाक एवं तार विभाग ने भी मुनाफा कमाया। खर्च में कुल 41.4 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी हुई, जिसमें से 11.45 करोड़ रक्षा सेवाओं और 29.95 करोड़ सिविक व्यय के लिए आवंटित किए गए थे।

 

1952-53: कृषि क्षेत्र के विकास के साथ-साथ खाद्यान्न उत्पादन में भी बढ़ोतरी दर्ज हुई। इसके बाद कीमतों में लगातार गिरावट देखी गई। सीमा शुल्क, उत्पाद शुल्क और आयकर से हुईं प्राप्तियों में असाधारण उछाल के चलते राजस्व में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई। हालांकि, निर्यात में गिरावट के कारण बकाए के भुगतान को लेकर अनुकूल परिणाम नहीं मिले। वहीं, खाद्यान्न, आवश्यक कच्चा माल और पूंजी/उपभोक्ता वस्तुएं अच्छी खासी मात्रा में आयात की जाती रहीं।

 

1955 से 1957: इन वित्तीय वर्षों की खासियत औद्योगिक विकास रहा, जिससे वार्षिक विकास दर 8 प्रतिशत के अहम स्थान पर पहुंच गई। यह रासायनिक उद्योगों के विकास, लघु उद्योगों को मिले प्रोत्साहन और पूंजी व उपभोक्ता वस्तुओं के क्षेत्र में हुई तरक्की के चलते संभव हो सका। शिक्षा के क्षेत्र में आवंटन में वृद्धि हुई। इसमें राज्यों को प्राथमिक, सामाजिक, माध्यमिक और विश्वविद्यालय शिक्षा के लिए दिए गए अनुदान के साथ-साथ अनुसूचित जाति एवं जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग के छात्रों को छात्रवृत्ति की सुविधा भी शामिल रही। वायु सेना व नौसेना के विस्तार कार्यक्रमों के चलते रक्षा खर्चों में बढ़ोतरी हुई। पूंजी की लागत बढ़ी और बचत के लिए प्रोत्साहित किया गया। राष्ट्रीय स्तर पर उत्पादकता को बढ़ाने और बचत के लिए प्रोत्साहित करने के लिए सतत प्रयास किए गए। घरेलू बचत को बढ़ाने और वाह्य मुद्रा के अंर्तवाह को सुरक्षित रखने की दिशा में प्रगति हुई, ताकि विदेशी मुद्रा की जरूरतों को पूरा किया जा सके। 1953-54 में देश की आर्थिक स्थिति बेहतर हुई और 1955 के दौरान अर्थव्यवस्था और अधिक सुदृढ़ हुई। अधिक से अधिक परिवारों को गरीबी रेखा के स्तर से बाहर निकालकर लोगों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने और गरीबी कम करने पर भी काफी ध्यान दिया गया।

 

1957-58: इस अवधि की प्रमुख बात आयात लाइसेंसिंग व्यवस्था रही, जिसके जरिए आयात पर कठोर प्रतिबंध लगाए गए। सरकार ने कम महत्वपूर्ण परियोजनाओं के लिए आवंटित बजट वापस ले लिया और निर्यातकों को भुगतान से होने वाले जोखिमों को बचाने के लिए एक्सपोर्ट रिस्क इंश्योरेंस कॉर्प का गठन किया। संपत्ति कर, व्यय कर और रेलवे यात्रियों पर शुल्क के तौर पर एक कर पेश किया गया। आबकारी में 400 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई। बजट में पहली बार सक्रिय आय (वेतन या व्यवसाय) और निष्क्रिय आय (ब्याज या किराया) को अलग-अलग चिह्नित करने का प्रयास किया गया। आयकर की दर में बढ़ोतरी हुई।

 

1958 से 1960: औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी जारी रही, लेकिन 1957 की तुलना में इसकी रफ्तार धीमी रही। हालांकि, 1958-59 में कृषि उत्पादन में तेजी देखी गई। जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल रहने के चलते इसे अधिकतम बढ़त के तौर पर आंका गया। इसके साथ ही निर्यात में बढ़ोतरी हुई, जबकि आयात कम हो गया। लेकिन, विदेशी मुद्रा की स्थिति की स्थिरता की एक बड़ी वजह बाहरी सहयोग रहा। 1959 में 7.4 प्रतिशत की दर से औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी दर्ज की गई। यह 1956 और 1957 में क्रमशः 1.7 प्रतिशत और 3.5 प्रतिशत की वृद्धि दर की तुलना में यह उल्लेखनीय सुधार था। लोहे, इस्पात और एल्यूमीनियम के उत्पादन में बढ़ोतरी इस साल की एक और उल्लेखनीय विशेषता थी, जिससे औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक में एक तिहाई से अधिक की बढ़त हुई।

 

1960 से 1965: इस दौरान बजट निर्माण में सबसे अधिक जोर देश की रक्षा क्षमता को बेहतर बनाने पर दिया गया। पिछले बजट के सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए इस अवधि के बजट में विकास, उत्पादन, रोजगार और निवेश पर खर्च को महत्व दिया गया। एक और महत्वपूर्ण पहलू आम आदमी की बचत दर में और सुधार करना था। निर्यात के प्रोत्साहन और विकास के लिए बजट मुहैया कराया गया। औद्योगिक और निवेश क्षेत्रों में वृद्धि हुई। हालांकि, इस दौरान प्रतिकूल जलवायु परिस्थितियों के कारण कृषि उत्पादन में निवेश के अनुसार परिणाम नहीं मिले। इससे खाद्यान्न और कच्चे माल की उपलब्धता में कमी आई और देश में मांग व आपूर्ति के समीकरण बदले। एक और प्रमुख तथ्य रेलवे और उद्योगों को विदेशी सहायता मुहैया करवाना रहा।

 

1965 से 1970: इस अवधि के दौरान कीमतों में बढ़ोतरी व खाद्य आपूर्ति में कमी, औद्योगिक गतिविधियों को पुर्नजीवित करना और निर्यात में सुधार करना आदि प्रमुख चिंताएं बजट में दिखीं। औद्योगिक उत्पादन 6 से 8 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ा। सरकार ने उद्योगों के विकास के लिए नागरिकों की भागेदारी को अत्यधिक प्रोत्साहित किया। इसका प्राथमिक उद्देश्य लोगों की बचत क्षमता को बढ़ाना और उद्योगों के प्रदर्शन को सुधारना था, ताकि निवेश की गई पूंजी के बदले बढ़िया मुनाफा प्राप्त हो सके। बजट में पहली बार नेपाल, भूटान, और अफ्रीकी देशों को आदि को विदेशी सहायता मुहैया कराने के लिए प्रावधान किए गए। तमाम कोशिशों के बावजूद रक्षा खर्चों में बढ़ोतरी जारी रही। 1968-69 के बजट में माल पर आबकारी विभाग के अधिकारियों की स्टैंपिंग और मूल्यांकन करने की अनिवार्यता को खत्म कर दिया। इस लिहाज से इसे जन-संवेदनशील बजट माना जाता है। सरकार ने सभी उत्पादकों के लिए स्व-मूल्यांकन प्रणाली भी शुरू की।

 

1970 से 1975: इस दौरान में बजट की खासियत रोजगार के पर्याप्त अवसर मुहैया कराने की रही। शुष्क खेती वाले इलाकों पर अत्यधिक ध्यान दिया गया। छोटे उद्यमों और उद्यमियों पर खासतौर पर ध्यान दिया गया। 1970-71 के बजट में खासतौर पर उन योजनाओं, जो समाज कल्याण के साथ भविष्य की विकास संभावनाओं पर केंद्रित थीं, के जरिए प्रावधान बनाए गए। वित्तिय संस्थानों ने उद्योगों और कृषि क्षेत्र को भी लंबे समय तक के लिए रोजगार अवसर पैदा करने के लिए सहयोग दिया। जिन अन्य क्षेत्रों पर ध्यान दिया गया, वह थे : शहरी एवं ग्रामीण विकास, पेयजल सुविधाएं और पेंशन योजना। बजट में जनरल बीमा कंपनियों, इंडियन कॉपर कॉर्प और कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण के लिए 56 करोड़ रुपये दिए गए। यह कदम इसलिए उठाए गए ताकि विभिन्न उद्योगों जैसे कि बिजली, सीमेंट और इस्पात आदि में बढ़ती कोयले की मांग को पूरा करने के लिए कोयले की आपूर्ति बिना रुकावट जारी रहे। साथ ही यह भी भरोसा किया गया कि खदानों में काम कर रहे श्रमिकों के हित सरकारी व्यवस्था में ही सबसे अच्छे तरीके से पूरे किए जा सकेंगे। 1973-74 के बजट में करीब 550 करोड़ रुपये के घाटे का अनुमान लगाया गया।

 

1975 से 1980: इस अवधि में कृषि क्षेत्र प्राथमिकता में बना रहा। बजट आवंटन में बढ़िया पैदावार देने वाली अच्छी गुणवत्ता वाली किस्मों के बीजों की आपूर्ति करने का प्रावधान शामिल किया गया। उर्वरक उत्पादन कार्यक्रमों को आगे बढ़ाया गया। यह कार्यक्रम धरती और भूजल का अधिकतम उपभोग करने के लिहाज से तैयार किए गए थे। किसानों की सेवा समितियों का गठन किया गया, ताकि वे किसानों को उनकी उपज के प्रसंस्करण व मार्केटिंग के लिए ऋण उपलब्ध करा सकें। कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण के लाभदायक परिणाम सामने आने लगे। बजट में खाद्य अनुदान को 100 करोड़ से बढ़ाकर 295 करोड़ करने का प्रावधान किया गया। इस अवधि में रक्षा व्यय 2752 करोड़ रुपये तक पहुंच गया, जबकि गैर-योजनागत व्यय 5,908 करोड़ रुपये रहा। 1976-77 के बजट में निवेश क्षेत्र पर काफी ध्यान दिया गया। 1978-79 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के लिए 393 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया, जबकि 1977-78 में यह 284 करोड़ रुपये ही था।

 

1980 से 1985: इस दौरान अनुसूचित जातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में सुधार, विकास नीतियों का प्रमुख तत्व बना रहा। राज्यों की योजनाओं, केंद्रशासित प्रदेशों की योजनाओं और पहाड़ों, जनजातीय क्षेत्रों की उप योजनाओं, अनुसूचित जातियों के लिए विशेष घटक योजनाएं, उत्तर पूर्वी काउंसिल की योजनाओं, ग्रामीण विद्युतीकरण निगमों और प्राकृतिक आपदाओं में केंद्रीय सहायता के तौर पर 3,094 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था। 20 सूत्रीय आर्थिक कार्यक्रम के तहत भूमिहीन और कमजोर वर्ग के लिए 50 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया। जनजातीय उप योजना के तहत आदिवासियों और उनके क्षेत्रों में विकास कार्यों के लिए 70 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया। औद्योगिक विकास की दर इस दौरान 4.5 प्रतिशत तक बढ़ गई। भूमिहीन और कमजोर वर्गों के लिए 20 सूत्री आर्थिक कार्यक्रम के हिस्से के रूप में लगभग 50 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था। आदिवासी उप-योजना के तहत आदिवासी लोगों और क्षेत्रों के विकास के लिए 70 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था। कृषि और ग्रामीण विकास पर परिव्यय काफी हद तक बढ़ाया गया था। औद्योगिक विकास दर बढ़कर 4.5 प्रतिशत हो गई।

 

1985 से 1990: संशोधित मूल्य वर्धित कर (MODVAT) पेश किया गया। इसने माल के अंतिम मूल्यों पर करों के व्यापक प्रभाव को कम करने के लिए, अंतिम उत्पाद के लिए भुगतान किए गए कर के निमित्त, कच्चे माल पर भुगतान किए गए कर के क्रेडिट सेट-ऑफ की अनुमति दी। इस दौरान बजट में लघु उद्योग विकास बैंक, नगर निगम के सफाईकर्मियों और रेलवे पॉर्टर्स के लिए दुर्घटना बीमा योजना, रिक्शा चालाकों, मोचियों और ऐसे ही स्वरोजगार कर रहे लोगों के लिए अनुदान सहित बैंक ऋण योजना के प्रावधान को प्रस्तावित किया गया। सरकार ने यूनिट ट्रस्ट ऑफ इंडिया के म्यूचुअल फंउ और महानगर टेलीफोन लिमिटेड की स्थापना का प्रस्ताव भी रखा। सरकार ने लाइसेंस राज खत्म करने के अपने इरादे की भी घोषणा की। कर चोरों पर शिकंजा कसने के लिए वित्त मंत्रालय के प्रवर्तन निदेशालय का गठन किया गया। मिनिमम कॉरपोरेट टैक्स, जिसे आज मैट या न्यूनतम वैकल्पिक कर के तौर पर जाना जाता है, लगाया गया, ताकि उच्च आय वाली उन कपंनियों को भी कर के दायरे में लाया जा सके, जो अब तक कानूनी तरीकों को इस्तेमाल कर कर अदा करने से बचती रही थीं।

 

उदारीकरण के बाद का दौर-

 

1991 से 2000: 1991-92 में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत हुई। आयात-निर्यात नीति को संशोधित किया गया और विदेशों से प्रतिस्पर्धा करने के लिए भारतीय उद्योग पर से आयात शुल्क घटाए गए। सरकार ने सीमा शुल्क को 220 प्रतिशत से घटाकर 150 प्रतिशत करके कर संरचनाओं को सुसंगतपूर्ण करना शुरू कर दिया। ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि बकाए का भुगतान अनिश्चित था। सरकार ने 1994 के बजट में सेवा कर को पहली बार पेश किया और तीव्र तकनीकी विकास के जरिए विकास पर अपना दांव लगाया। 1997 के बजट में व्यक्तियों और कंपनियों को कर दरों में राहत दी गई। इससे कंपनियों को बाद के वर्षों में कर देनदारी को लेकर पहले के वर्षों में भुगतान किए गए एमएटी को समायोजित करने की सहूलियत मिली। सरकार ने काले धन को लाने के लिए स्वैच्छिक प्रकटीकरण आय योजना (वीडीआईएस) की शुरुआत की। इसने बजट घाटे को कम करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले अनौपचारिक ट्रेजरी बिलों को चरणबद्ध तरीक से खत्म किया। 1997 के बजट में कर आधार को व्यापक बनाने का लक्ष्य रखा गया था। देश में 1960 के दशक के अंत और 1970 के शुरुआती दशक में उच्च आयकर दर 97.5 प्रतिशत था। दरों में संतुलन से इसके अनुपालन में समग्र सुधार आया, क्योंकि जो लोग पहले इन दरों को अधिक मानते थे, उन्होंने भी अपनी आय छिपाने की जगह कर देना शुरू कर दिया। व्यक्तिगत आयकर संग्रह 1997-98 की तुलना में 18,700 करोड़ रुपये से बढ़कर अप्रैल 2010-जनवरी 2011 के दौरान 100,100 करोड़ रुपये हो गया। वीडीआईएस ने लगभग 10,000 करोड़ रुपये जुटाए। करदाताओं द्वारा अधिक संख्या में कर देने से बाजार में मांग उत्पन्न करने में मदद मिली। इस राजस्व का इस्तेमाल सामाजिक कल्याण और बुनियादी ढांचे पर सार्वजनिक खर्च बढ़ाने के लिए किया गया।

 

2000 से 2011: इस अवधि के दौरान सॉफ्टवेयर निर्यातकों के लिए प्रोत्साहन को खत्म कर दिया गया था। 1991 के बजट में सॉफ्टवेयर निर्यात से होने वाली आय को तीन साल के लिए कर-मुक्त कर दिया गया था और फिर 1995 के बजट में कर छूट को बढ़ा दिया गया था। यह जीडीपी के कर अनुपात में सुधार करने और विश्व में भारत को सॉफ्टवेयर विकास के प्रमुख केंद्र के रूप में बढ़ावा देने के लिए किया गया था। सॉफ्टवेयर निर्यात क्षेत्र में इस कर छूट के बाद भारतीय आईटी उद्योग में असाधारण वृद्धि हुई। 2001-02 में स्थानांतरण मूल्य निर्धारण नियम भी पेश किए गए थे, जो संबंधित उद्यमों के बीच लेनदेन में पारदर्शिता के लिए जरूरी थे। विनियमन ने भारत में कर आधार में गिरावट को रोकने में बड़ी भूमिका निभाई। 2010-11 में अनुमानित सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 8.6 प्रतिशत की दर से बढ़ा। अर्थव्यवस्था में उल्लेखनीय रूप से लचीलापन दिखा। हालांकि, खाद्य कीमतों का लगातार उच्च स्तर पर बने रहना चिंता का एक मुख्य विषय था। खाद्य पदार्थों की बेहतर उपलब्धता के कारण कीमतों में गिरावट के बावजूद उपभोक्ताओं को इसका लाभ नहीं मिल सका। इससे वितरण और विपणन प्रणालियों में कमियों का खुलासा हुआ। वित्त वर्ष 2010-11 के बजट में कृषि क्षेत्र को पुनर्जीवित करने का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन जैविक उर्वरकों और टिकाऊ खेती के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए। आने वाले महीने में महंगाई कम करने के लिए मौद्रिक नीति में सुधार की उम्मीद थी। निर्यात में 29.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि आयात में अप्रैल से जनवरी 2010-11 के दौरान 17.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई।

 

2012: बजट को गरीब हितैषी के रूप में पेश किया गया, जबकि विकास कार्यक्रमों पर खर्च के लिए उधार को न बढ़ाकर गोपनीय तरीके से बाजार में यह खेल खेला गया। सरकार ने आसान क्रेडिट तक पहुंच के साथ स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर की घोषणाओं को बदलने की कोशिश की। सबसे पहले इसने स्पष्ट रूप से गरीब लोगों की क्रेडिट तक पहुंच को बढ़ाया और उसे सुगम बनाया। 2012-13 में कृषि ऋण का लक्ष्य 100,000 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 575,000 करोड़ रुपये कर दिया गया। दूसरा, राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम 2003 (एफआरबीएम अधिनियम) में संशोधन जैसे विभिन्न राजकोषीय पहलों के माध्यम से बजट ने निजी क्षेत्र को यह संदेश दिया कि कम-से-कम सरकार के प्रत्यक्ष बाजार से उधार लेने जैसी गतिविधियों को प्रभावित करने वाले मामले में सुधार कार्यक्रम पटरी पर हैं। हालांकि, बजट निजी डीजल कारों में रियायती डीजल के उपयोग को रोकने में विफल रहा।

 

2013: यूपीए-2 के आखिरी पूर्ण बजट में वित्त मंत्री का मुख्य मंत्र समावेशी और टिकाऊ विकास था, लेकिन देश में पारिस्थितिक रूप से टिकाऊ विकास के लिहाज से बजट में इसके लिए आवंटन कम था। बजट में कृषि और महत्वपूर्ण विकास कार्यों के लिए आवंटन में वृद्धि की गई। संशोधित अनुमान के अनुसार कृषि बजट में 22 प्रतिशत की वृद्धि की गई थी, लेकिन किसानों को ऋण-ग्रस्त स्थिति से किसानों का जीवन स्तर बेहतर बनाने के लिए या कृषि के लिए कोई ठोस और टिकाऊ पहल नहीं की गई। महिलाओं और युवाओं को प्राथमिकता मिलने लगी। बजट में विशेष रूप से देश की महिलाओं को लुभाने की कोशिश की गई थी। वित्त मंत्री ने 16 दिसंबर, 2012 के बलात्कार और हत्या की शिकार युवती की याद में 1,000 करोड़ रुपये के “निर्भया” फंड की घोषणा की। महिला बैंक की भी घोषणा की गई। युवाओं के लिए कौशल विकास के लिए 1,000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे, जबकि गरीबों के लिए देश भर में प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण योजना शुरू करने का वादा किया गया था। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक को पारित किया गया और खाद्य सब्सिडी पर आने वाली लागत को पूरा करने के लिए 10,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया। ग्रामीण विकास के लिए बजट में 46 प्रतिशत की वृद्धि हुई। हालांकि, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायर्नमेंट की महानिदेशक सुनीता नारियन के अनुसार, बजट में हमने अवसरों को गवां दिया।

 

एनडीए शासन-

 

2014: भाजपा सरकार का पहला बजट किसानों के लिए निराशाजनक था। अरुण जेटली ने देश में कृषि क्षेत्र में बढ़ते तनाव को दूर करने और कृषि संकट को हल करने के लिए कुछ खास घोषणा नहीं की। हालांकि, स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए कई घोषणाएं की गईं, लेकिन वे भी चिकित्सा शिक्षा और संस्थानों के निर्माण पर केंद्रित थीं। निवारक या प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल का कोई जिक्र नहीं किया गया। जेटली ने ऊर्जा क्षेत्र में बड़ी सौर परियोजनाओं पर जोर दिया, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों के लिए विकेंद्रीकृत मिनी और माइक्रो ग्रिड सौर परियोजनाओं की उपेक्षा की गई। सरकार ने एक एकीकृत गंगा संरक्षण मिशन- नमामि गंगे का प्रस्ताव रखा और मिशन के लिए 2,037 करोड़ रुपये आवंटित किए।

 

2015: एनडीए सरकार के पहले पूर्ण बजट में भी सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के भविष्य के बारे में सवाल के जवाब नहीं मिले। विशेषज्ञों के अनुसार, केंद्रीय बजट 2015-16 ट्रांसमिशन इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए निवेश को प्राथमिकता देने में विफल रहा था। यह 2020 तक 175 गीगावॉट नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन के सरकार के इरादे के उलट था। इस बजट की एकमात्र बड़ी बात 100 रुपये प्रति टन से 200 रुपये प्रति टन कोयले पर सेस यानी उपकर की वृद्धि रही है। हालांकि, ग्रामीण विकास के लिए आवंटन में कटौती हतोत्साहित करने वाला था। खासकर ऐसे समय में जब अधिकांश गांवों में ग्रामीण पलायन में कमी देखी जा रही थी और ग्रामीण मजदूरी में कमी बढ़ती जा रही थी। बजट में न केवल सूखाग्रस्त मराठवाड़ा की अनदेखी गई, बल्कि सिंचाई में सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) का भी प्रस्ताव किया, जो विनाशकारी साबित हो सकता है, क्योंकि इससे निजी क्षेत्र पानी पर नियंत्रण हासिल कर सकते हैं। बजट में स्वतंत्र रूप से परियोजनाओं के वित्तपोषण के बजाय राष्ट्रीय अनुकूलन कोष के दायरे को व्यापक बनाने के बारे में बात नहीं की गई।

 

2016: भारत में स्वच्छता की स्थिति को देखते हुए केंद्र ने 2016-17 के बजट में ग्रामीण स्वच्छता के लिए स्वच्छ भारत अभियान के मद में 9,000 करोड़ रुपये आवंटित किए। पिछले वर्ष की 3,625 करोड़ रुपये की तुलना में इस मद में बढ़ोतरी की गई थी। ग्रामीण स्वच्छता के अलावा, सिंचाई को भी बढ़ावा मिला, क्योंकि सरकार ने त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम के तहत 89 सिंचाई परियोजनाओं को पुनर्जीवित करने की घोषणा की। जेटली ने स्वास्थ्य बीमा योजना के दायरे को बढ़ाने का प्रस्ताव रखा, लेकिन उन्होंने कई मौजूदा स्वास्थ्य कार्यक्रमों के आवंटन में वृद्धि का रास्ता नहीं चुना। प्रमुख बीमारियों के इलाज के लिए लिए पर्याप्त सीमा क्या होगी, यह भी स्पष्ट नहीं थी। वित्त मंत्री के बड़े वादों में एक 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करना था। यह लक्ष्य अत्यधिक महत्वाकांक्षी लग रहा था, क्योंकि लगातार दो साल सूखा झेलने की वजह से 9 करोड़ किसान परिवारों की वार्षिक औसत कमाई प्रभावित हुई थी।

 

2017: यह बजट नोटबंदी के कुछ महीनों बाद आया था। वित्त मंत्री ने नोटबंदी को उपलब्धि के तौर पर पेश किया। इसे काला धन पर लगाम लगाने वाला कदम बताया। लेकिन समय के साथ साबित हो गया कि नोटबंदी ने भारतीय अर्थव्यवस्था को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है। इसने बड़ी संख्या में लोगों को बेरोजगार बना दिया। ध्यान रखने की बात यह है कि इस बजट में अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने की बात की गई थी। बजट में डिजिटल इंडिया और कैशलेस इकॉनमी पर जोर दिया गया।

 

2018: यह बजट किसानों और स्वास्थ्य पर केंद्रित रहा। आयुष्मान भारत योजना को सरकार ने बड़ी उपलब्धि बताया। साथ ही किसानों को लागत का डेढ़ गुना दाम देने का भरोसा भी दिया था लेकिन देश में जगह जगह हो रहे प्रदर्शन बताते हैं कि किसानों को अब भी अपनी उपज का वाजिब दाम नहीं मिल रहा है।