संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट और भारत में गरीबी (United Nations Latest Report and Poverty In India)

Posted on October 2nd, 2018 | Create PDF File

hlhiuj

गरीबी किसी भी देश की प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान पर कालिख की तरह होती है। जब तक देश में एक भी नागरिक भूख के कारण दम तोड़ रहा है, तब तक नैतिकता और मानवीय मूल्यों के आधार पर उस देश की अन्य किसी भी प्रकार की तरक्की की सराहना खुले मन से नही की जा सकती। भारत की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा आज भी गरीबी में जीवनयापन करने को मजबूर है।यहां की 30 प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही हैा संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, वित्त वर्ष 2005-06 से 2015-16 के बीच भारत में 27.1 करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकले हैं। बहुआयामी वैश्विक गरीबी सूचकांक (एमपीआई) रिपोर्ट 2018 को संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) और ऑक्सफोर्ड गरीबी एवं मानव विकास पहल (ओपीएचआई) द्वारा संयुक्त रूप से तैयार किया गया है. यह रिपोर्ट भारत में गरीबी के प्रति लड़ाई के प्रति एक आशाजनक संकेत है। इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि- भारत में गरीबी घटने की दर सबसे ज्यादा बच्चों, गरीब राज्यों, आदिवासियों और मुस्लिमों के बीच है। बतौर रिपोर्ट, 2005-06 से लेकर 2015-16 के इन दस  वर्षोंके भीतर देश की गरीबी दर 55 फीसदी से घटकर 28 फीसदी ( लगभग आधी ) हो गई है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया भर में 1.3 अरब लोग बहुआयामी गरीबी में जीवन बिता रहे हैं, जोकि एमपीआई में परिकलित किए गए 104 देशों की कुल आबादी का एक-चौथाई हिस्सा है। वर्ष 1900 के बाद से भारत में लोगों के जीवन जीने की प्रत्याशा 11 साल बढ़ी है। रिपोर्ट में कहा गया, भारत में बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में गरीबों की संख्या सर्वाधिक है। जबकि दिल्ली, केरल और गोवा में गरीबों की संख्या सबसे कम है। इन चारों राज्यों में पूरे भारत के आधे से ज्यादा गरीब रहते हैं, जोकि करीब 19.6 करोड़ की आबादी है। इनके ज्यादातर क्षेत्र या तो बाढ़ प्रवृत है या फिर सूखे जैसी स्थितियों से जूझ रहे हैं। यह स्थितियां बहुत हद तक कृषि के कार्य में बाधा बनती हैं और कृषि पर ही यहां के लोगों की घरेलू आय निर्भर करती है।

 

इससे पहले एक अमेरिकी शोध संस्था ब्रूकिंग्स के ब्लॉग, फ्यूचर डेवलपमेंट में जारी रिपोर्ट में की ओर से भारत में गरीबी को लेकर जारी ताजा आंकड़े भी देश को सुकून देने वाले रहे हैं। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि पिछले कुछ साल में भारत में गरीबों की संख्या बेहद तेजी से घट रहे हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि भारत के ऊपर से सबसे ज्यादा गरीब देश होने का ठप्पा भी खत्म हो गया है। देश में हर मिनट 44 लोग गरीबी रेखा के ऊपर निकल रहे हैं। यह दुनिया में गरीबी घटने की सबसे तेज दर है। रिपोर्ट के अनुसार देश में 2022 तक 03 फीसदी से कम लोग ही गरीबी रेखा के नीचे होंगे। वहीं 2030 तक बेहद गरीबी में जीने वाले लोगों की संख्या देश में न के बराबर रह जायेगी। रिपोर्ट में बताया गया है कि फिलहाल दुनिया में सबसे अधिक गरीब लोगों की संख्या नाइजीरिया में है। वहीं गरीबी के लिहाज से भारत तीसरे स्थान पर है। मई 2018 के अंत तक नाइजीरिया में बेहद गरीब लोगों की संख्या लगभग 8.7 करोड़ रही, वहीं भारत में लगभग 7.3 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे दर्ज किए गए। नाइजीरिया में जहां हर मिनट लगभग छह लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जा रहे हैं वहीं भारत में गरीबी में लगातार कमी आ रही है।  अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी संयुक्त राष्ट्र महासभा के 73वें सत्र में विश्व के नेताओं को संबोधित करते हुए भारत की तारीफों के पुल बांधे. ट्रंप ने लाखों लोगों को गरीबी रेखा से बाहर निकालने के लिए भारत के प्रयासों की सराहना की। वर्ष 2018 में विश्व के गरीबों की कुल अनुमानित संख्या 64 करोड़ मानी जाती है, जिसका अर्थ है कि भारत में अब इसकी 11 प्रतिशत आबादी ही निवास करती है। गरीबी की यह परिभाषा विश्व बैंक द्वारा वर्ष 2015 में निश्चित की गयी थी, जिसके मुताबिक 1.90 डॉलर से कम खर्च करके दिन काटता व्यक्ति गरीब माना गया और सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के अंतर्गत पहला लक्ष्य वर्ष 2030 तक विश्व में गरीबों की संख्या शून्य तक पहुंचा देना तय किया गया।

 

हालाकि भारत में गरीबी में कमी को ले कर इस रिपोर्ट में प्रस्तुत आंकड़े भारत में दर्ज किए जाने वाले आंकड़ों से मेल नहीं खाते। इसका सबसे बड़ा कारण गरीबी को नापने के अलग - अलग पैमाने हैं। वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2004 से 2011 के बीच भारत में गरीब लोगों की संख्या 38.9 फीसदी से घट कर 21.2 फीसदी रह गई। वर्ष 2011 में भारत में लोगों की क्रय क्षमता 1.9 डॉलर प्रति व्यक्ति के करीब रही। आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि देश में तेज आर्थिक विकास के चलते गरीबी घटी है। पिछले 10 सालों में देश में हुए आर्थिक विकासों पर नजर डालें तों 2030 तक अत्यधिक गरीबी को खत्म करने के लक्ष्य को आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लीए हमें नियमित तौर पर 07 से 08 फीसदी की विकास दर बना कर रखनी होगी। इसके अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र की ओर से भी कई प्रायोजित योजनाएं चलायी जा रही हैं, जिनका उद्देश्य दुनिया में स्थाई विकास लक्ष्यों को प्राप्त कर वैश्विक स्तर पर गरीबी को घटाना है।

 

इन रिपोर्टों के मुताबिक  वर्ष 2022 तक भारत से गरीबी अपनी परिभाषा के अनुसार लगभग खत्म हो चुकी होगी। निर्धनता में कमी की इस दर ने भारत को मलयेशिया, दक्षिण कोरिया एवं चीन जैसे उन दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की पांत में ला दिया है, जिनके ऐसे ही प्रयासों को अत्यंत सफल माना जाता है। हमारे देश में यह काम इतनी देर से होने की प्रमुख वजह यह रही कि यहां आर्थिक सुधार वर्ष 1991 से आरंभ हुए, जबकि चीन इस मामले में हमसे 13 वर्ष आगे था। इसमें कोई संदेह नहीं कि गरीबी घटाने में आर्थिक सुधारों ने अहम भूमिका अदा की। यह तो तय है कि भारत में गरीबी के घटने को लेकर पहले होती रही सभी बहसें अब समाप्त हो चुकी हैं। फिर भी पिछले कई वर्षों में केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन द्वारा प्रकाशित राष्ट्रीय लेखा आंकड़े एवं राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) द्वारा प्रकाशित प्रतिदर्श (सैंपल) सर्वेक्षण आंकड़ों के बीच भिन्नता रही है। पहले का इस्तेमाल राष्ट्रीय जीडीपी, उपभोग एवं निवेश के आकलन में, जबकि दूसरे का उपयोग गरीबी के अनुमित आंकड़ों में किया जाता रहा है। इन दोनों आंकड़ों की भिन्नता एक कटु बहस का मुद्दा रही है। राष्ट्रीय एकाउंट्स शिविर का यह यकीन है कि देश की गरीबी दर सिर्फ इसलिए बढ़ी-चढ़ी दिखती है कि तत्संबंधी सर्वेक्षण के आंकड़े पूरी आय का आकलन नहीं करते। विवाद का एक अन्य आधार आकलन हेतु ली जानेवाली अवधि से संबद्ध रहा है। विवाद का तीसरा आधार स्वयं गरीबी रेखा ही रही है, जिसे व्यक्ति द्वारा खाद्य के रूप में ली जानेवाली कैलोरी को प्रोटीन, अनाजों, दूध, मांस की कीमतों के हिसाब से रुपये में बदल कर तय किया जाता है, मगर इसमें मुद्रास्फीति के सामंजन, कीमतों में क्षेत्रीय भिन्नता तथा खरीदी जानेवाली सामग्रियों की बजाय स्वयं उपजायी गयी सामग्रियों की कीमतों का ख्याल नहीं रखा जाता। यह बहस बहुत लंबी है । बहरहाल, साल 2011 मई में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में सामने आया था कि ग़रीबी से लड़ने के लिए भारत सरकार के प्रयास पर्याप्त साबित नहीं हो पा रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया था कि  भ्रष्टाचार  और प्रभावहीन प्रबंधन की वजह से ग़रीबों के लिए बनी सरकारी योजनाएं सफल नहीं हो पाई हैं। शहरों में रहने वाले जनजातीय लोग, दलित और मजदूर वर्ग अब भी बहुत गरीब हैं।

 

भारत में गरीबी का मुख्य कारण बढ़ती जनसंख्या दर है। इससे निरक्षरता, खराब स्वास्थ्य सुविधाएं और वित्तीय संसाधानों की कमी की दर बढ़ती है। इसके अलावा उच्च जनसंख्या दर से प्रति व्यक्ति आय भी प्रभावित होती है और प्रति व्यक्ति आय घटती है। एक अनुमान के मुताबिक भारत की आबादी सन् 2026 तक 1.5 बिलियन हो सकती है और भारत विश्व का सबसे अधिक आबादी वाला राष्ट्र हो सकता है। भारत की आबादी जिस रफ्तार से बढ़ रही है उस रफ्तार से भारत की अर्थव्यवस्था नहीं बढ़ रही। इसका नतीजा होगा नौकरियों की कमी। इतनी आबादी के लिए लगभग 20 मिलियन नई नौकरियों की जरुरत होगी। यदि नौकरियों की संख्या नहीं बढ़ाई गई तो गरीबों की संख्या बढ़ती जाएगी। बुनियादी वस्तुओं की लगातार बढ़ती कीमतें भी गरीबी का एक प्रमुख कारण हैं। इसके अतिरिक्त भारत में गरीबी का एक प्रमुख कारण जाति-व्यवस्था और संसाधनों का असमान वितरण भी है। इसके अलावा पूरे दिन मेहनत करने वाले अकुशल कारीगरों की आय भी बहुत कम है। असंगठित क्षेत्र की एक सबसे बड़ी समस्या है कि मालिकों को उनके मजदूरों की कम आय और खराब जीवन शैली की कोई परवाह नहीं है। उनकी चिंता सिर्फ लागत में कटौती और अधिक से अधिक लाभ कमाना है। उपलब्ध नौकरियों की संख्या के मुकाबले नौकरी की तलाश करने वालों की संख्या अधिक होने के कारण अकुशल कारीगरों को कम पैसों में काम करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। सरकार को इन अकुशल कारीगरों के लिए न्यूनतम मजदूरी के मानक बनाने चाहिये। इसके साथ ही सरकार को यह भी निश्चित करना चाहिये कि इनका पालन ठीक तरह से हो। हर व्यक्ति को स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार है इसलिए भारत से गरीबी को खत्म करना जरुरी है।

 

भारत में गरीबी बहुत व्यापक है किन्तु बहुत तेजी से कम हो रही है। योजना आयोग के साल 2009-2010 के गरीबी आंकड़े कहते हैं कि पिछले पांच साल के दौरान देश में गरीबी 37.2 फीसदी से घटकर 29.8 फीसदी पर आ गई है। भारत में शहर में 28 रुपए 65 पैसे प्रतिदिन और गाँवों में 22 रुपये 42 पैसे खर्च करने वाले को गरीब नहीं कहा जा सकता। नए फार्मूले के अनुसार शहरों में महीने में 859 रुपए 60 पैसे और ग्रामीण क्षेत्रों में 672 रुपए 80 पैसे से अधिक खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है। हालाकि भारत में ग़रीबों की संख्या पर विभिन्न अनुमान हैं। आधिकारिक आंकड़ों की मानें, तो भारत की 37 प्रतिशत आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे है। जबकि एक दूसरे अनुमान के मुताबिक़ ये आंकड़ा 77 प्रतिशत हो सकता है। भारत में महंगाई दर में लगातार बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। कई विश्लेषकों का कहना है कि ऐसे में मासिक कमाई पर ग़रीबी रेखा के आंकड़ें तय करना जायज़ नहीं है। वैसे भी यह न्यूनतम खर्च केवल प्राण रक्षा ही कर सकता है। इसलिए, अब हमें अपनी गरीबी रेखा स्वयं निर्धारित करने की जरूरत है। हमें शहरी गरीबी पर तो गौर करना ही होगा, साथ ही नयी परिभाषा में गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्यचर्या, पेयजल, प्राथमिक शिक्षा एवं स्वच्छता तक पहुंच को भी शामिल करना ही होगा। विश्लेषकों का कहना है कि योजना आयोग की ओर से निर्धारित किए गए ये आंकड़े भ्रामक हैं और ऐसा लगता है कि आयोग का मक़सद ग़रीबों की संख्या को घटाना है ताकि कम लोगों को सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का फ़ायदा देना पड़े। हमारी खुशहाली के इन नये संकेतकों को लेकर हमारी प्रगति मापने में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) हमारी मदद कर सकता है।  इसके अलावा, हम बड़ी तादाद में नौकरी और आजीविकाओं के सृजन तथा विषमता की समाप्ति को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते। देश में अत्यधिक गरीबी को 2030 तक खत्म करने के लिए स्थाई विकास लक्ष्यों को तय करके उन पर चुनौतीपूर्ण ढंग से काम करना होगा। तभी हम अपने निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करने में सफल हो सकेंगें, तथा देश को एक गरीबीमुक्त देश होने का गौरव दिला सकने में सक्षम होगें।