प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना और इसकी स्वीकार्यता में आती कमी (PMFBY-Crop Insurance and declinination in It's acceptance)

Posted on October 4th, 2018 | Create PDF File

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देश भर के किसान केंन्द्र सरकार की महत्वाकांक्षी योजना प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को लेकर बहुत कम उत्साहित नजर आ रहे हैं। योजना के चार क्राप सीजन बीत चुके हैं। मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के एक किसान लीलाधर सिंह 2016 में इस योजना के लिए नामांकन कराने वाले किसानों के पहले बैच में से एक हैं। हालांकि उनका नामांकन अपने आप ही हुआ था। कृषि लोन उठाने वाले किसान होने के नाते, उन्हें अनिवार्य रूप से पीएमएफबीवाई के तहत लाया गया था। वह कहते हैं कि- 2016 के खरीफ सीजन का  प्रीमियम मेरे बैंक खाते से अपने आप काटा गया था। मुझे बीमा का अब तक एक रुपया भी नही मिला है। वह इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि अगर उन्हें विकल्प दिया जाये तो वह पीएमएफबीवाई के तहत नही आना चाहेंगे।

 

अप्रैल 2016 में केन्द्र सरकार ने पीएमएफबीवाई लांच की थी। यह योजना फसलों को होने वाले नुकसान के बदले बीमा देती है। यह क्षेत्र और पुनर्गठित मौसम आधारित फसल बीमा योजना के आधार पर फसलों का बीमा करती है। योजना के तहत किसान खरीफ सीजन में खाद्य फसल और तिलहन के लिए बीमा राशि का 2 प्रतिशत और रबी फसल के लिए 1.5 प्रतिशत प्रीमियम का भुगतान करते हैं। वास्तविक प्रीमियम दर और किसान द्वारा देय दर के बीच का अंतर राज्य और केन्द्र सरकार द्वारा समान रूप से साझा किया जाता है।

 

इंडियन काउंसिल आॅफ रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकॉनमिक रिलेशंस की एक शोधकर्ता प्रेरणा टेर्वे कहती हैं कि इस तरह की योजना की सफलता का आंकलन इस तथ्य पर निर्भर करता है कि कितने लोन न लेने वाले किसान इसमें रुचि रखते हैं। क्योंकि उनके लिए यह योजना ऎच्छिक है। उनकी संख्या कम होती जा रही है। जो निश्चित रूप से इस योजना के बारे में अच्छा संकेत नही है। ऐसे किसानों के बीच योजना की शुरुआत के समय काफी हलचल थी लेकिन अब वे इसमें दिलचस्पी नही दिखा रहे हैं।

 

कर्नाटक राज्य किसान संघ के अध्यक्ष चमारसा माली पाटिल गैर-ऋणी किसान हैं।जिन्होंने पहले साल के अनुभव के बाद ही योजना का नामांकन त्याग दिया है। वह चना और जौ की खेती करते हैं। वह कहते हैं कि मैने प्रीमियम के तौर पर 6000 रुपये का निवेश किया था लेकिन  अब तक मुझे बीमा की राशि नही मिली है। उसके बाद से मैने किसी भी तरह की कृषि बीमा योजना में निवेश बंद कर दिया।

 

13 मार्च 2018 में लोकसभा सरकार की ओर दिए एक जवाब से पता चलता है कि इस योजना के प्रति किसानों में कितनी दिलचस्पी कम हुई है ।जवाब के मुताबिक, लोन लेने वाले और लोन नही लेने वाले दोनो तरह के किसानो के नामांकन में भारी गिरावट आई है। 2016-17 में यह संख्या 57.58 मिलियन थी वहीं 2017-18 में घटकर 47.9 मिलियन रह गई है। इनमें से लोन लेने वाले किसानों की संख्या जो बीमा योजना में अनिवार्य रूप से जोड़े गए, 2016-17 की 43.7 मिलियन से घटकर 2017-18 में 34.9 मिलियन रह गई। सरकार के पास इसका एक व्यावहारिक कारण है। भारतीय रिजर्व बैंके अनुसार 2016-17 की तुलना में 2017-18 में कृषिऋण में बहुत कम वृध्दि देखी गई। पिछले वर्ष यह वृध्दि जहां 12.4 प्रतिशत थी , वह 2017-18 में सिर्फ 3.8 प्रतिशत हुई। जाहिर है इससे बीमा का लाभ लेने वाले ऐसै किसानो की संख्या कम हो जाती है।

 

योजना की सबसे चिंताजनक बात है कि लोन न लेने वाले किसानो की संख्या में गिरावट आना। 2016-17 में ऐसे किसानों की संख्या जहां 13.8 मिलियन थी वही संख्या 2017-18 में घटकर 13 मिलियन तक आ गई। इसका मतलब है कि चमारसा जैसे 0.8 मिलियन लोन न लेने वाले किसानों ने इस अवधि में योजना का लाभ न लेने का फैसला किया है। यह योजना अपने तीसरे वर्ष और 2018 के महत्तवपूर्ण खरीफ सीजन में प्रवेश कर चुकी है। इसलिए सरकार 2018-19 तक इस योजना के तहत देश के संपूर्ण खेतिहर क्षेत्र के 50 प्रतिशत हिस्से को कवर करने के अपने लक्ष्य को लेकर चिंतित है।

 

वर्तमान में, केवल 30 प्रतिशत क्षेत्र ही दायरे मे है। पिछले दो वर्षों मे कुल बीमाकृत क्षेत्र मे भी गिरावट आई है। 2016-17 में 56.8 मिलियन हेक्टेयर खेत बीमित थे, वह घटकर 2017-18 में 49.3 मिलियन हेक्टेयर हो गया है।

 

किसान बताते हैं कि क्लेम प्रोसेसिंग मे देरी और दावों का भुगतान न होना, दो सबसे बड़ी समस्यायें हैं, जो उन्हे इस योजना से दूर करती हैं। इस योजना के तहत पिछले तीन फसल सीजन में किसानों द्वारा किए गए दावों मे से केवल 45 प्रतिशत दावों का भुगतान ही बीमा कंपनियों द्वारा किया गया है। 2017 में इस योजना का मूल्यांकन नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने किया था। कैग ने बताया कि इस योजना में शिकायत निवारण तंत्र का गंभीर अभाव है। ऑडिट कहती है कि सिर्फ 37 प्रतिशत किसान ही इस योजना की बारीकी के बारे में जानते थे। उत्तर प्रदेश के मुबारकपुर गांव के किसान नेता हरपाल सिंह कहते हैं कि मुझे लोन लेने और प्रीमियम कटवाने के लिए बैंक जाना होता था, लेकिन क्लेम का भुगतान न होने पर बैंक मुझे उस कंपनी से संपर्क करने के लिए कहता है, जिसे मैं नही जानता।

 

इस साल मई में इस योजना की राष्ट्रीय निगरानी समिति की बैठक के दौरान सरकार ने स्वीकार किया कि पहले वर्ष में दावा निपटान में 7 माह से अधिक का समय लगा, जबकि दूसरे वर्ष में यह देरी 2 माह  की रही। दरअसल यह समस्या दावों का निपटान करने वाले उस अकेले तंत्र की वजह से है, जिसे क्रॉप कटिंग एक्सपेरीमेंट कहते हैं। यह तंत्र ही समस्या को और बढ़ा रहा है। राज्य सरकारें सीसीई(क्रॉप कटिंग एक्सपेरीमेंट) से फसल का डेटा जुटातीं हैं और बीमा कंपनियों के पास जमा कराती हैं। इसी के आधार पर बीमा कंपनियां फसल क्षति का निर्णय लेती हैं और फिर दावा निपटान पर निर्णय लेतीं हैं। बीमा कंपनियां डेटा मिलने के तीन सप्ताह के भीतर दावों के निपटान के लिए बाध्य हैं।

 

पीएमएफबीवाई की सफलता के लिए व्यापक पारदर्शी और भरोसेमंद सीसीई(क्रॉप कटिंग एक्सपेरीमेंट) की आवश्यकता है। आईसीआरआईईआर के पेपर के मुताबिक 2016-17 में सरकार ने 0.92 मिलियन सीसीई किए थे जबकि दोनों फसल सीजन के लिए लगभग तीन मिलियन की जरूरत थी। हालांकि जैसा कि इस योजना की शुरुआत से ही उम्मीद थी सीसीई को विश्वस्त और समयबद्द बनाने के लिए शायद ही कोई निवेश  किया गया हो। एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कंपनी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि राज्य सरकारों के पास लक्षित हिस्से के आधे हिस्से में भी सीसीई के संचालन के लिए जनशक्ति नही है। कृषि मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक अधिकांश राज्यों ने उपज डेटा भेजने में तीन माह से अधिक की देरी की है।जबकि झारखण्ड, पश्चिम बंगाल और गुजरात जैसे राज्यों ने डेटा दिया ही नही। लेकिन जब भी बीमा कंपनी के साथ डेटा साझा किया गया है, अक्सर यह उनके और राज्य सरकारों के बीच विवाद की एक बढ़ी वजह बना है। विवाद इस बात पर है कि सीसीई के लिए भूखण्ड कैसे चुने जाते हैं और वे कैसे किए जा रहे हैं। पीएमएफबीवाई दिशानिर्देशों के मुताबिक भूखण्ड की सैंपलिंग के लिए रिमोट सेंसिंग तकनीकि का उपयोग किया जाना चाहिए। हालांकि महाराष्ट्र , गुजरात, कर्नाटक, उड़ीसा, तमिलनाडु, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ जैसे कुछ ही राज्यों ने ऐसा किया है और वह भी केस टू केस आधार पर । ऐसा न कर पाने के सवाल पर वे एक मानक प्रोटोकाल न होने का हवाला देते है। पीएमएफबीवाई के परिचालन दिशानिर्देशों में जीपीएस तकनीकि के साथ मोबाइल आधारित तकनीकि का उपयोग सीसीई की पारदर्शिता और गुणवत्ता सुधारने के लिए अनिवार्य किया गया है लेकिन ज्यादातर राज्यों ने आवश्यक संख्या में स्मार्टफोन नही खरीदे हैं।एकबार पारदर्शिता को लेकर सवाल उठते ही सीसीई डेटा की विश्वसनीयता भी सवाल के घेरे मे आ जाती है। महाराष्ट्र के परभणी जिले में करीब 1000 किसान 20 जून से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। उनका कहना है कि सीसीई के लिए चुने गए यूनिट का क्षेत्र गलत था। वे केन्द्रीय कृषिमंत्री राधामोहन सिंह से मिलने दिल्ली आये थे।प्रतिनिधिमण्डल का नेतृत्व करने वाले मावोली कदम कहते हैं कि एक बड़ी इकाई के चयन ने उपज हानि डेचा में विसंगति पैदा कर दी और इसलिए कंपनियों ने किसानों के सही दावों को भी अस्वीकार कर दिया। कृषि मंत्रालय के मुताबिक 10.10 करोड़ रुपये के दावे लंबित हैं। क्योंकि राज्य द्वारा प्रदत्त उपज डेटा ग्राम पंचायत स्तर के बजाय राजस्व सर्कल स्तर का था। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चर एक्सटेशंस मैनेजमेंट के निगरानी और मूल्यांकन निदेशक ए. अमरेन्द्र रेड्डी कहते हैं कि अधिकांश समस्या इसलिए है कि सरकार और बीमा कंपनियां ग्राम स्तर पर सीसीई नही कर रही हैं। यह उनकी प्राथमिकता में नही है।

 

राज्य भी इस योजना में उतनी सहायता नही दे रहे हैं जितनी उनसे अपेक्षा की जाती है।शुरुआत से ही कई राज्य भारी वित्तीय भार का हवाला देते हुए बीमा कंपनियों के भुगतान के लिए जाने वाले प्रीमियम में अपने हिस्से का नियमित भुगतान नही कर रही हैं।जब तक राज्य सरकार भुगतान नही करती, तब तक केन्द्र सरकार भी अपने हिस्से का भुगतान नही करती है।लिहाजा बीमा प्रक्रिया की शुरुआत ही नही हो पाती।यह इस योजना की शुरुआत के बाद से ही एक मुद्दा रहा है। 24 राज्यों मे से 10 राज्यो ने 2017 के खरीफ सीजन के लिए अपना हिस्सा नही दिया है। उदाहरण के लिए बिहार ने खरीफ 2017 के लिए प्रीमियम शेयर का भुगतान करने की तुलना में अपनी खुद की योजना शुरु करना पसंद किया।नतीजतन पीएमएफबीवाई के लिए इस सीजन के लिए बिहार के किसी भी किसान को क्लेम नही दिया गया।

 

खरीफ 2016 और रबी 2017 के दावे अभी भी लंबित हैं। पंजाब ने पीएमएफबीवाई को खारिज कर दिया है। और अपनी खुद की नई योजना लांच की है। राज्यों की एक आम शिकायत है कि पीएमएफबीवाई उनके किसानों के लिए अच्छा नही है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि यह केवल बीमा कंपनियों के खजाने भर रहा था। टेर्वे कहती हैं कि राज्य समय पर सब्सिडी नही देते इसलिए दावों का निपटान भी समय पर नही किया जाता। फिर राज्य कहते हैं कि वे लाभांमवित नही हो रहे हैं और तब अगले फसल के मौसम के लिए सब्सिडी देने मे देरी कर देते हैं।

 

योजना के तहत अनुमानित प्रीमियम की उच्च लागत राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार के लिए एक प्रमुख मुद्दा बन रही है।यह पहले से ही केन्द्रीय कृषि सहयोग और किसान कल्याण विभाग के लगभग  एक तिहाई हिस्से के लिए जिम्मेदार है। कई राज्यो का कहना है कि उनके वार्षिक  कृषि बजट का 40 प्रतिशत तक प्रीमियम भुगतान में चला जाता है। खरीफ 2015 में अनुमानित प्रीमियम दरों में बढ़ोत्तरी हुई है। खरीफ 2015 मे बीमित राशि का प्रीमियम 11.6 प्रतिशत था। जो खरीफ 2016 में 12.5 प्रतिशत हो गया। मौसम आधारित फसल बीमा योजना के तहत खरीफ 2016 के लिये राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के लिए अनुमानित प्रीमियम दर 43 प्रतिशत और 33. 5 प्रतिशत थी।

 

राज्यों द्वारा अधिसूचना में देरी से समस्या और बढ़ी है। क्योंकि बीमा कारोबार मुख्य रूप से बदल गया है। एआईसी के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि ज्यादातर बीमा कंपनियां अपने इंश्योरेंस को रि-इंस्योरेंस कंपनियों को स्थानांतरित कर देती हैं। पहले जनरल इंश्योरेंस  कार्पोरेशन ने 50 प्रतिशत से अधिक रि-इंश्योरेंस  किया था। हालांकि अब विदेश में बैठे रि-इंश्योर्स से यह काम थोक में किया जा रहा है। राज्यों द्वारा असामयिक अधिसूचना और देरी से सब्सिडी भुगतान से रि-इंश्योर्स का विश्वास कम होता है। इसलिए वे बहुत अधिक प्रीमियम दर बताते हैं। 13 जून 2018 को पीएमओ में स्टॉक टेकिंग बैठक में भी इस बात को स्वीकार किया गया था। एआईसी के अधिकारी कहते हैं कि- कई राज्य एक ही सीजन में फिर से निविदा जारी करते हैं। जिससे हमें नुकसान होता है. इसके अलावा हर फसम मौसम में बोली लगाने की बजाय इसे तीन साल में एक बार किया जाना चाहिए।  ताकि कंपनियों को ग्राम स्तर पर आधारभूत संरचना बनाने के लिए आत्मविश्वास मिल सके।