18वें एशिआई खेल और भारत में खेलों की स्थिति (18th Asian Games)

Posted on September 13th, 2018 | Create PDF File

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2 सितंबर 2018 को इंडोनेशिया के जकार्ता और पेल्वेंग शहरों में आयोजित होने वाले 18वें एशियाई खेलों के औपचारिक समापन की घोषणा की गई। 16 दिनों तक चलने वाले एशियाई खेलों के इस अर्ध्द-कुंभ में भारत ने 15 स्वर्ण, 24 रजत और 30 कांस्य पदकों के साथ कुल 69 पदक प्राप्त किये। पदक-तालिका में चीन (289), जापान (205), कोरियाई प्रायद्वीप (177), उज्बेकिस्तान (70) और ईरान (62)के बाद भारत का 8वां स्थान रहा। वहीं मेजबान इंडोनेशिया 31 स्वर्ण पदकों सहित कुल 98 पदक लेकर चौथे स्थान पर रहा। इस प्रतियोगिता में भारत के कुल 570 एथलीटों नें 36 अलग-अलग खेल प्रतिस्पर्ध्दाओं भाग लिया। इन खेलों के उद्घाटन समारोह में भारत की ओर से नीरज चोपड़ा ध्वज-वाहक रहे जबकि समापन समारोह में रानी रामपाल नें राष्ट्र-ध्वज थामकर भारत की अगुवाई की।

 

19 अगस्त 2018 को पुरुष कुश्ती (65 किलोग्राम भारवर्ग) में पहला स्वर्ण पदक दिलाकर भारत के बजरंग पूनिया ने इन खेलों में पदक जीतने का आगाज किया। उसके बाद 20 अगस्त को विनेश फोगाट ने ( 50 किलोग्राम भारवर्ग) महिला कुश्ती में, 21 अगस्त को सौरभ चौधरी (10 मीटर एयर पिस्टल) शूटिंग में, रानी सोर्नोबत ने शूटिंग (25 मीटर एयर पिस्टल) में, तथा जुवेनाइल थ्रो में नीरज चोपड़ा ने स्वर्ण पदक दिलाये। इनके अतिरिक्त अरपिंदर सिंह, स्वप्ना बर्मन, जिंसन जोंनसन, अमित पंगल, प्रनब- श्रीनिवास और हिमा दास सहित कई नये नाम उभर कर सामने आये। टेबल- टेनिस में जापान को हराकर भारत नें एशियाई खेलों की इस प्रतियोगिता में अपना पहला ऐतिहासिक पदक (कांस्य) हासिल किया। वहीं सेपक थ्रो में (कांस्य), 25 मीटर रैपिड फायर पिस्टल में (स्वर्ण), महिला रेसलिंग ( 50Kg) में स्वर्ण, बैडमिंटन एकल महिला में कांस्य ( साइना नेहवाल) और रजत ( पी.वी. सिंधू), भाला फेंक में स्वर्ण ( नीरज चोपड़ा) जीतकर भारत ने इन खेलों में अपने पदकों का सूखा खत्म किया। विक्रम कृष्ण यादव लगातार तीसरी बार इन खेलों में (बोक्सिंग) पदक जीतने वाले पहले भारतीय बन गये हैं। वहीं 15 साल की एक युवा भारतीय प्रतिभा( शाईल विहान) नें शूटिंग में (रजत) पदक जीतकर इन खेलों में भारत के स्वर्णिम भविष्य के सपने को बल दिया है। इस बार 15 स्वर्ण सहित 69 पदक जीतकर भारत नें एशियाई खेलों में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया है। इससे पहले वर्ष 1951 में भारत ने 15 स्वर्ण सहित कुल 67 पदक जीते थे। जबकि पिछले एशियाई खेलों में (2014) भारत ने कुल 13 पदक ही जीते थे। भारत सरकार नें सभी पदक विजेताओं को नकद पुरस्कार देने की घोषणा की है। जिसके अनुसार स्वर्ण पदक (40 लाख), रजत पदक (20 लाख) तथा कांस्य पदक (10 लाख) की राशियां प्रत्येक विजेताओं को दी जाएगी।

 

वर्ष 1962 के बाद, 2018 मे इंडोनेशिया दूसरी बार इन खेलों की मेजबानी करने वाला देश वन गया है। हालांकि आधिकारिक रूप से इस बार के एशियाई खेलों की मेजबानी वियतनाम को करनी थी, लेकिन आर्थिक कारणों का हवाला देते हुए वर्ष 2014 में उसने अपना नाम वापस ले लिया था। इंडोनेशिया के ज़कार्ता शहर में आयोजित होने वाले इन खेलों में 45 देशों के कुल 10000 से ज्यादा एथलीटों ने 39 खेल प्रतियोगिताओं में भाग लिया। जिन्हें 10 हेक्टेयर में फैले खेल गांव में ठहराया गया था। इस खेल गांव में 15 टॉवर की इमारतों में 7424 यूनिटों का प्रबंध था, जिनमें 14000 एथलीटों तथा 3000 ऑफीशियल्स सहित 22272 लोगों के रहने का प्रबंध किया गया था। इस खेल गांव का निर्माण कार्य वर्ष 2016 में ही शुरू कर दिया गया था, जिसमें कुल 238 मिलियन अमेरिकी डालर का खर्चा आया। इस बार इन खेलों का शुभंकर – डेरावा ( स्वर्ग की चिड़िया) तथा लोगो ( एनर्जी ऑफ़ एशिया) था। इससे पहले भिन-भिन, अतुंग और इका इन खेलों के लोकप्रिय शुभंकर रह चुके हैं। ओलंपिक काउंसिल ऑफ एशिया द्वारा 2018 में आयोजित होने वाले इन खेलों के लिए मार्च 2017 की एक बैठक के अनुसार 42 खेलों के अंतर्गत कुल 484 प्रतिस्पर्धाओं का आयोजन किया जाना था, जिसे सितंबर 2017 में घटाकर 40 खेलों (462 प्रतिस्पर्धाओं) तक सीमित कर दिया गया। क्रिकेट और संबो नाम के दो खेलों को एशियाई खेलों में मान्यता नहीं दी गई। वहीं गुंजाओ, 2010 476 प्रतिस्पर्धाओं को सम्मिलित करने वाला अब तक का सबसे बड़ा एशियाई खेल आयोजन है। 19वें एशियाई खेल हांजू, चीन में 2022 में खेले जायेंगे। इससे पूर्व 1990 में भी चीन इन खेलों की मेजबानी कर चुका है।

 

दरअसल इन खेलों की नींव फॉर ईस्टर्न चैम्पियनसिप गेम्स (FECG) के नाम से जापान, चीन और फिलीपींस की सीमा के निकट वर्ष 1912 में रखी गई थी। वर्ष 1913 में मनीला में पहली बार यह खेल आयोजित हुए, जिनमें 6 देशों ने हिस्सा लिया। इस प्रकार 1934 तक ये खेल 10 बार बिना किसी व्यवधान के आयोजित होते रहे। सीनो- चीन युध्द के बाद चीन ने अपनी सदस्यता इन खेलों से वापस ले ली, जिससे 1938 के खेल आयोजनों को रद्द कर देना पड़ा। उसके बाद से ये खेल स्थायी रूप से रद्द हो गये। द्वितीय विश्वयुध्द के बाद 1948 के समर ओलंपिक, लंदन के बाद चीन और फिलीपीस नें इन खेलों को पुनः जीवित करने का प्रस्ताव रखा। जिसपर भारत के गुरुदत्त सोढ़ी नें एशिया महाद्वीप में शुरुआत से नये प्रकार के खेलों की नींव रखने की बात कही। इस प्रकार 13 फरवरी 1949 को नई दिल्ली में एशियन एथलेटिक फेडरेशन की आधिकारिक स्थापना की गई। यहीं 1951 में पहले एशियाई खेलों का आयोजन किया गया। अबतक प्रत्येक 4 वर्ष के बाद इन खेलों को 9 एशियाई देशों द्वारा होस्ट किया जा चुका है, जिनमें एशिया महाद्वीप के (1974 तक इज़रायल समेत) कुल 46 देश हिस्सा ले चुके हैं।  एशियाई खेल जिन्हें एशियाड के नाम से भी जाना जाता है, ओलंपिक खेलों के बाद विश्व के दूसरे सबसे बड़े खेल आयोजन हैं। वर्ष 1978 तक इन खेलों की निगरानी एशियन गेम्स फेडरेशन (AGF) द्वारा की जाती थी। इसके बाद ओलंपिक काउंसिल ऑफ एशिया इनकी बागडोर संभाली। ये खेल अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (IOC) द्वारा अधिकृत हैं। ऐसा नहीं है कि 1951 से लेकर 2018 तक इन खेलों के आयोजनों में कोई व्यवधान नहीं आया। वर्ष 1962 में इंडोनेशिया नें राजनैतिक/ धार्मिक कारणों से इज़राइल और ताइवान के खिलाड़ियों को अनुमति देने से इंकार कर दिया, जिससे IOC  नें अपने संघ से इंडोनेशिया की सदस्यता रद्द कर दी। इसके अतिरिक्त एशियन फुटबाल कान्फेडरेशन (AFC), नेशनल एमेच्योर एथलीट फेडरेशन (NAAF) तथा इंटरनेशनल रेसलिंग फेडरेशन (IWF) ने इन खेलों से अपनी प्रामाणिकता रद्द कर दी। खाड़ी देशों के प्रबल विरोद के बावजूद वर्ष 1974 में पुनः इज़रायल और चीनी ताइपे को इन खेलों में शामिल कर लिया गया। इसी प्रकार वर्ष 1970 में दक्षिण कोरिया नें तथा 1975 में पाकिस्तान नें राष्ट्रीय सुरक्षा कारणों व आर्थिक कारणों का हवाला देते हुए इन खेलों की मेजबानी करने से इंकार कर दिया। 1990 में पर्सियन खाड़ी के युध्द के समय ईराक़ को खेलों से निलंबित कर दिया गया था। तब उत्तरी कोरिया नें इन खेलों का बॉयकाट किया। केवल 7 देश ऐसे हैं जो 1951 से लेकर 2018 तक लगातार बिना किसी रुकावट इन खेलों मे भाग लेते रहे हैं। इनमें भारत, श्रीलंका, जापान, थाईलैंड, इंडोनेशिया, फिलिपींस और सिंगापुर शामिल हैं। एशिआई खेलों में वर्ष 1951 से लेकर 1978 तक जापान की बादशाहत कायम थी। पदकों की सूची में वह शीर्ष पर रहता था। लेकिन बाद में यह स्थिति बदली और वर्ष 1982 से 2018 तक चीन इस मुकाम को कायम रखने में अबतक कामयाब कामयाब रहा है। 2018 के इन एशियाई खेलों में जापान की रिकाको इक्को को मोस्ट वैल्युएबल प्लेयर  का खिताब दिया गया। उन्होने इन खेलो की तैराकी की विभिन्न प्रतिस्पर्धाओं में 4 स्वर्ण पदक हासिल किए। इस बार के एशियाई खेलों में 6 विश्व कीर्तिमान, 18 एशियाई कीर्तिमान, तथा 86 एशियाई खेल कीर्तिमान पुनः स्थापित किए गये। मेजबान देश की आधिकारिक घोषणा के मुताबिक 2018 के इन खेलों के आयोजन में 3.2 बिलियन अमेरिकी डालर का खर्चा आया है।

 

हालाकि भारत का खेलों में प्रदर्शन पिछले कई वर्षों में पहले की अपेक्षा काफी सुधरा है, फिर भी 1.25 बिलियन जनसंख्या वाला देश होने के नाते ( जिसमें 60 प्रतिशत से ज्यादा युवा हो) यह खेलों के मामले में विश्व में काफी पिछड़ा हुआ है। यहां खेल संस्कृति का नितांत अभाव पाया जाता है। पढ़ोगे- लिखोगे तो बनोगे नबाब, खेलो कूदोगे तो बनोगे खराब। खेलों के प्रति भारत की इस मानसिकता के होने की कई वजहें हैं। दरअसल यहां शुरू से ही खेलों के नाम पर खाना पूर्ति होती रही है। किसी भी खेल की सफलता मुख्यतया तीन बातों पर निर्भर करती है- संगठन, प्रबंधन और प्रशासन। खेलों के प्रशासनिक ढ़ाचे अक्सर विवाद और चर्चा का विषय रहे हैं। उदाहरण के लिए इंडियन हॉकी फेडरेशन और ह़ॉकी इंडिया के बीच हमेशा से यह विवाद रहा है कि आखिर भारतीय ह़ॉकी का वास्तविक संचालक निकाय कौन सा है ? ज्यादातर खेल संघों का अपना कोई कानून या संविधान नहीं है। इनके सम्पूर्ण क्रियांन्वयन में ही पारदर्शिता का अभाव पाया जाता है। चुनाव, फंडिंग, योग्यता निर्धारण और विभिन्न प्रशासनिक पदों पर बने रहने की समय सीमा के नियमों में काफी अनिश्चिततायें रहती हैं। कुप्रबंधन, अपारदर्शिता, और खिलाड़ियों के प्रति निष्पक्षता का अभाव आदि कई कारण हैं, जो भारत को पदक तालिका में पीछे रखे हु ए हैं। नईदिल्ली के राष्ट्रमण्डल खेल, 2010 अपने खिलाड़ियों की सुरक्षा, भृष्टाचार, डेंगू संबंधी स्वास्थ्य भय, साफ-सफाई, इंटरनेट की उपलब्धता और आयोजन स्थलों की अव्यवस्था के चलते विश्वभर में काफी चर्चा में रहे थे। खेल संघों के प्रशासनिक निकायों में भूतपूर्व खिलाड़ियों का प्रतिनिधित्व कम होना भी एक बहुत बड़ी वजह रही है। होता यही है कि प्रशानिक पदो पर काम कर रहे गैर-खिलाडी खेल की बारीकियों से अपरिचित होते हैं, जिससे वे उतने सटीक और प्रभावशाली निर्णय़ लेने में अक्षम हो ते हैं, जितने कि कोई पूर्व-खिलाड़ी ले सकता है। इसके अतिरिक्त खिलाड़ियों पर निर्णयों को थोपे जाने की बजाय, उनकी सलाह पर गौर किया जाना चाहिए। जमीनी स्तर से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक भारत में खेलों के पदानुक्रम की अनुपस्थिति भी खेलों के पिछड़ेपन की एक वजह रही है। यहां ऐसा कोई सुगठित तंत्र नही है जो प्रतिभावान खिलाड़ियों को स्कूल, ब्ल़ॉक, प्रखण्ड एवं जिला स्तर से राज्यीय और फिर राष्ट्रीय स्तर तक ले जा सके । साथ ही खेल के संसाधनों का भारी अभाव और वित्तीय- पोषण विकसित देशों की तुलना में कापी नगण्य है। भारत में खेल संविधान की समवर्ती सूची का विषय माने जाते हैं, इसलिए राज्यों के अंतर्गत आते हैं। वहीं इनपर आर्थिक निवेश भी राज्य सरकारों के अधीन है। जबकि बाहर ऐसी स्थिति नहीं है, वहां निजी कंपनियां और फर्में खिलाड़ियों पर निवेश करते हैं। भारत में खेलों मे लैंगिक भेदभाव भी हावी रहता है। यहां पुरुषों के मुकाबले महिला एथलीटों को कम वरीयता दी जाती है। खिलाड़ियों में सामुदायिक कोचिंग और उचित पोषण की जागरुकता का अभाव रहता है। जिससे वे डोपिंग, निलंबन और मेडल छीने जाने तक की शर्मनाक परिस्थितियों का सामना करने को बाध्य होते हैं। यह बात सच है कि कोई भी खेल भूख को रिप्लेस नहीं कर सकता। इसलिए खिलाड़ियों की आर्थिक चिंताओं, फंड आवंटन में वृध्दि, कर में छूट, पूर्व खिलाड़ियों को पेंशन, उच्च शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण, खेलों को कैरियर के रूप में विकसित करना होगा।  इसके लिए समय-समय पर फिटनेस कैंप, PPP मॉडल, मेडिकल चेकअप, डायटीशियन, विश्वस्तरीय अवसंरचनाओं और सुविधाओं की उपलब्धता, खेल तकनीकि और व्यय में पारदर्शिता लाकर काफी हद तक सुधार किया जा सकता है।

 

आजादी से पहले भारते में सिर्फ तीन खेलों- हॉकी, क्रिकेट और फुटबाल को ही  केवल मुख्य खेलों के रूप में वरीयता प्राप्त थी। अन्य सभी खेल शुरू से ही उपेक्षा का शिकार रहे। हालाकि वर्तमान में सिनेमा और मीडिया की सकारात्मक भूमिका ने काफी हद तक इस मिथक को तोड़ा है, फिर भी बाकी अन्य खेल आम जनमानस में उतनी जगह नही बना पाये हैं । यदि बात की जाये भारत में खेलों के प्रशासनिक तंत्र को लेकर तो सबसे पहले 1950 के दशक में खेलों के गिरते स्तर को सुधारने के लिए अकिल भारतीय खेल परिषद् की स्थापना की गई। 1958 में इस परिषद् की सहायता के लिए एक अस्थायी समिति का गठन किया गया जिसने खिलाड़ियों के प्रशिक्षण के लिए कोचिंग संस्थान बनाने की सिफारिश की। 1961 में परिषद् की सिपारिशों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय खेल संस्थान का गठन किया गया। 1982 में राष्ट्रीय कल्याण कोष की स्थापना हुई जो खेलों के विकास के लिए खिलाडियों को वित्तीय मदद प्रदान करता था। इसी वर्ष खेल विभाग की भी स्थापना की गई। 1984 में राष्ट्रीय खेल नीति बनाई गई, जिसके अंतर्गत खेल विषयक 16 विषयों को प्राथमिकता दी गई। वर्ष 1985 में खेल विभाग का नाम बदलकर खेल और युवा कल्याण विभाग कर दिया गया, जिसे 7 मई 2000 को स्वतंत्र मंत्रालय के रूप में जगह दी गई। 2001 में देश में नई राष्ट्रीय खेल नीति लागू की गई। 30 अप्रैल 2008 को खेल और युवा कल्याण मंत्रालय दोनों अलग कर दिए गये। तथा भारतीय खेल प्राधिकरण (SAI) का गठन किया गया। यही संस्था आजकल खेलों के लिए प्रतिभायें चुनने और उन्हें अतरराष्ट्रीय स्तर तक ले जाने के लिए कार्य करती है। जैसा कि पहले भी बताया भारतीय संविधान में खेल समवर्ती सूची का हिस्सा हैं। वर्ष 1988 में एक संविधान संशोधन द्वारा इसे ठीक करने की कोशिश की गई, जो कि विफल रही।

 

भारत में खेलों के स्तर सुधारने लिए 20 सितंबर 2017 को केन्द्र सरकार द्वारा दिल्ली के इंदिरा गांधी इनडोर स्टेडियम में ‘खेलो इंडिया’ की शुरुआत की गई।  यह राजीव गांधी खेल अभियान, अर्बन इंफ्रास्ट्रक्टर और नेशनल स्पोर्ट्स टैलेंट सर्च स्कीम का मिलाजुला रूप है। इसके तहत 8 फरवरी 2018 को खेलो इंडिया स्कूल गेम्स का आयोजन किया गया, जिसके अंतर्गत विभिन्न खेल प्रतिस्पर्धाओं में देश भर के स्कूलों से चुने गये 17 वर्ष से कम आयु के बच्चों नें शिरकत की। इसका प्रमुख उद्देश्य भारतीय जनमानस का खेलों के प्रति नजरिये में बदलाव व नई युवा खेल प्रतिभाओं का विकास करना है। खेलो इंडिया के तहत खेलों के अतरराष्ट्रीय विकास के लिए एक राष्ट्रीय खेल कार्यक्रम बनाया गया है। तथा अखिल भारतीय खेल छात्रवृत्ति की घोषणा की गई है, जिसके अंतर्गत चुनिंदा खेलों से चयनित 1000 प्रतिभावान एथलीटों को 8 वर्ष तक 5 लाख रुपये वार्षिक की आर्थिक दिये जाने का प्रबंध किया गया है। इस छात्रवृत्ति के लिए प्रतिवर्, 1000 नये एथलीटों को चुना जायेगा। साथ ही खेलो इंडिया नीति के तहत देश भर में 150 विद्यालयों, तथा 20 विश्वविद्यालयों को खेल उत्कृष्टता केन्द्रों के रूप मे विकसित किए जाने का लक्ष्य रखा गया है। इसी कड़ी में वर्ष 2018 में असम में भारत का पहला खेल विश्वविद्यालय बनाने का प्रस्ताव भी रखा गया, जो अबतक लोकसभा में पारित हो चुका है। खेलो इंडिया नीति के तहत देश में खेल प्रशिक्षण की सुनिश्चितता, शैक्षणिक पाठ्यक्रम में ढ़ील, खेलों में व्यापक भागीदारी एवं उत्कृष्टता, सारीरिक फिचनेस, महिलाओं हेतु खेलों का आयोजन, जम्मू-कश्मीर राज्य में शांति के लिए खेल, स्वदेशी एवं जनजातीय खेल, दिव्यांगों के लिए खेल संवर्ध्दन, नये खेल मैदानो का विकास, सामुदायिक कोचिग की व्यवस्था, तथा वार्षिक खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन करना शामिल है। सरकार का कहना है कि इससे ग्राम एवं जिला स्तर पर खेलों में युवाओं की भागीदारी सुनिश्चित हो सकेगी साथ ही भविष्य में अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भारत का प्रदर्शन सुधरेगा। खेलों इंडिया नीति का विस्तृत उद्देश्य 10-18 आयुवर्ग के 20 करोड़ बच्चों की खेल संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करते हुए उनकी प्रतिभाओं को निखारना, संवारना और उन्हें प्रशिक्षित करना है। इससे न केवल देस में खेलों का आधार विस्टृट होगा वरन् आर्थिक सहयता के द्वारा खिलाड़ियों की जरूरतें भी पूरी हो सकेंगी। इस नीति का वित्तीयन, मार्गदेशन, पर्यवेक्षण और निगरानी खेल विभाग करेगा। तथा इसका क्रियांवयन SAI के माध्यम से किया जायेगा।

 

वैदिक काल से ही भारत में खेलों को शारीरिक विकास और मनोरंजन के रूप में प्रयोग करने के प्रमाण मिलते रहे हैं। केंन्द्र सरकार का लक्ष्य है कि वह खेलो इंडिया के माध्यम से भुला दिये गये खेलों को पुनर्जीवित करने और उन्हें विश्वस्तरीय प्रतिभा उकेरनें में कामयाब होगी। इस नीति के लिए जहां वर्ष 2016 में 140 करोड़ के बजट का प्रावधान किया गया था वहीं वर्ष 2017 में बढ़ाकर 350 करोड़ रुपये कर दिया गया है। हालेंकि यह राशि विकसित देशों की तुलना में केलों पर खर्च किए जाने वाले व्यय से बहुत कम है। एक आंकड़े के मुताबिक अमेरिका अपने प्रत्येक खिलाड़ी पर प्रति दिन 22 रुये खर्च करता है, जबकि भारत में यह आंकड़ा 3 पैसे है। खेल निवेश में दयनीय स्थिति की समीक्षा करने वाली संसद की स्थायी समिति का कहना है कि खेलों को बढ़ावा देने से जुड़े राष्ट्रीय विकास कोष ( NSDF) में खुद सार्वजनिक उपक्रम योगदान नहीं दे रहे। कंपनियों में CSR और NSDF को लेकर भारी भ्रम है। इसके अतिरिक्त विकासशील देशों को अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में बेहतर प्रदर्शन करने के लिए ओलंपिक सोलिडेरिटी द्वारा भी फंड मुहैया कराये जाते हैं। हालांकि विकासशील देशो के लिए स्वाभाविक रूप से खेलों से ज्यादा उनके आधारभूत ढ़ांचागत विकास जैसे सड़क, शिक्षा, पानी, बिजली, उद्योग आदि में निवेश करने की ही प्राथमिकता अधिक रहती है।

 

ज्ञात हो कि पिछले रियो ओलंपिक, 2016 में भारत 67वें स्थान पर रहा था। आजादी के बाद से अबतक भारत नें ओलंपिक में (एथलेटिक्स में) कोई पदक नही जीता है। देश में जबतक एक खेल समन्वयक संस्कृति का उद्भव नहीं होगा, तबतक आपेक्षित सफलता मिलना मुश्किल है। इसमे कोई दोराय नहीं कि आजकल खेल व्यक्ति के निजी, सामूहिक, आर्थिक और राष्ट्रीय विकास का उपकरण बन सकते हैं। खेल देश के मेडिकल खर्चें में कमी करके, नैतिक जीवन में अनुशासन, प्रबंधन, तथा सामाजिक समरसता बढ़ाने में भी कारगर सिध्द होते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेल सॉफ्ट-पावर उपकरण के रूप में कूटनीति तय करने तथा छवि सुधारने में भी मदद करते हैं। इसके अतिरिक्त रोजगार निर्माण, अंतर्राष्ट्रीय प्रवाह, पर्यटन, विदेशी मुद्रा की अवसंरचना में वृध्दि खेलों के महत्त्व को और अधिक कर देती है। निकट भविष्य में भारत भी विश्व में एक बड़ी खेलशक्ति बनकर उभरे, तथा अपने सभी आंतरिक गतिरोधों के निराकरण में कामयाबी पाये, इस दिशा में निरंतर प्रयास और कामना की जानी चाहिए।