आधुनिक भारत की पहली महिला शिक्षिका-सावित्रीबाई फुले

Posted on January 3rd, 2019 | Create PDF File

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विश्व के किसी भी कोने में जब मानवीय व सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध आवाज उठानी होती है, तब दो बातें मायने रखती हैं- एक उस सामाजिक व्यवस्था की रीतियों के कुप्रभाव को अनुभव करने की समझ और दूसरी महत्वपूर्ण बात कि समझने के बाद निडरता के साथ उसका प्रतिरोध कर सकने की क्षमता का होना। इसके बाद वह विषय भी अर्थ रखता है जिसके विरुदध आवाज उठती है। समस्त विश्व ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है, चाहे वह यूरोप व अमरीका में पूँजीवाद के विकास के साथ-साथ पारिवारिक संरचना में आए परिवर्तनों का दौर रहा हो या फिर एशिया में बराबरी के अधिकार को लेकर उभरे नारी आंदोलन रहे हों। आमतौर पर हर समाज ने प्राकृतिक नारीवाद के नारी सिद्धांतों के तहत स्त्रियों को महज पारिवारिक पालन पोषण करने की बेड़ियों में जकड़कर उनकी प्राकृतिक बौद्धिकता के साथ अन्याय किया। लेकिन वास्तव में जब प्राकृतिक नारीवाद जैसी कोई प्रवृत्ति है ही नहीं, तब उनका कैसा परिसीमन और कैसी बंदिशें। यही वह अनुभूति होती है, जो सावित्री बाई फुले जैसी वीरांगना को समाज में सशक्त आवाज बनने के लिए बाध्य करती है।

 

भारतवर्ष में वैदिककाल में स्त्रियों को देवी के रुप में सम्मान की द़ृष्टि से देखा जाता था। वे अध्ययनों में पारंगत व निपुण थीं। क्रमशः काल और कपाल की विसंगतियों ने समाज को पुरुषसत्तात्मक प्रवृत्ति की ओर मोड़ा और नारियों के प्रति प्राकृतिक नारीवाद जैसी सोच की नकारात्मक ऊर्जा समाज में व्युत्पन्न होने लगी। तब सम्भवतः सावित्री बाई फुले जैसी वीरांगनाएं नहीं हुईँ थीं या कि ऐसी विभूतियों के जन्म लेने की सामाजिक पृष्ठभूमियां नियति तैयार करने में लगी थी। फलतः समाज के निकृष्टतम स्वरुप का प्रादुर्भाव हुआ, जो आज भी कहीं कहीं न्यूनरुप में दृष्टिगोचर हो जाता है। लोग आज अवश्य यह कहते हैं कि वर्णव्यवस्था ने समाज को जातिवाद के दलदल में फँसाया। लेकिन ऐसा वे लोग सिर्फ अपने स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए कहते हैं। समाज में व्यवस्था सिर्फ धनवान और निर्धन को लेकर रही है, वहीं पुरुष और स्त्री के असमान अधिकारों को लेकर भी दिखाई देती है। चारों वर्णों के धनवानों ने जीवन को अपने तरीके से समृद्धता की सीमाओं तक भोगा है और भोग रहे हैं। चारों वर्णों के निर्धन हमेशा से शोषित होते आए हैं और वहीं महिलाओं के लिए ऐसे उद्भवित समाजों में न कभी वर्ण रहा, न जाति रही, न ही धर्म रहा है, वे सिर्फ नारी रही हैं। 

 

पिछली दो शताब्दियों के नारी आंदोलन के इतिहास पर दृष्टि डालें तो सावित्री बाई फुले का नाम सर्वोपरि है। उन्होंने भारतीय समाज में उस दौर में विरोध की आवाज बुलंद की थी, जब भारतीय नारी को समाज में मूलभूत जनवादी अधिकार भी प्राप्त नहीं हुआ करते थे। यह वह समय था जब नारी पितृसत्तात्मक उत्पीड़न व शोषण, उसकी आर्थिक निर्भरता, पुरुष की अधीनता भरी सामाजिक जिंदगी जीती जा रही थी। उन्नीसवीं सदी के आरंभिक अन्य सुधारवादी आंदोलनों का संचालन पुरुषों द्वारा ही किया जाता था। ऐसे में अपवाद स्वरुप जो नाम सामने आता है वह वीरांगना सावित्री बाई फुले का ही है। वे अपने समय की एकमात्र महिला कही जा सकती हैं जिन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर न केवल दलितों व स्त्री शिक्षा के उत्थान के लिए सफल प्रयत्न किए बल्कि तत्कालीन सतीप्रथा, बालविवाह और अशिक्षा के विरुद्ध जमकर संघर्ष किया और विधवा विवाह व बेसहारा औरतों के रहने के लिए आवास गृह भी स्थापित करवाने जैसे सामाजिक कार्य करते हुए इनको  क्रान्तिकारी दिशा की ओर मोड़ा। सावित्रीबाई फुले भारत की प्रथम महिला शिक्षिका, समाज सेविका, कवियत्री और वंचितों की आवाज उठाने वाली सशक्त नारी मानी जाती हैं। 

 

सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। इनके पिता का नाम खन्दोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मी था। वे एक ऐसे घर में जन्मी थीं, जहां पिता लड़की के किताब उठाने तक के खिलाफ थे। इस बात की पुष्टि सावित्री के जीवन में घटी उस घटना से स्पष्ट होती है, जब वे एक बार अपने घर में बचपन में किसी अँग्रेजी किताब के पन्ने यूं ही कौतुहलवश पलट रही थीं, तब अचानक उनके पिता ने उनको ऐसा करते देख लिया और उनको बहुत फटकार लगाई। इतना ही नहीं पुस्तक को छीनकर खिड़की से बाहर फेंक दिया, साथ ही दुबारा न पढ़ने की सख्त हिदायत भी दे डाली। उस समय सावित्री पढ़ना भी नहीं जानती थीं और न ही अध्ययन की महत्ता जैसे विषय की गूढ़ता को समझने की उनकी उम्र ही थी। पर कहीं न कहीं इस घटना ने विद्रोह के बीज मन में बो दिए थे, हांलाकि उस समय वे चुप रहीं। सन् 1840 में मात्र नौ साल की उम्र में सावित्रीबाई का विवाह 13 साल के ज्‍योतिराव फुले से हुआ। सम्भवतः यह मिलन सावित्री बाई के इस धरती पर जन्म लेने के उद्देश्य को पूर्ण करने का प्रथम चरण था। बचपन में महज किताब पकड़ने के लिए अपने पिता का प्रतिरोध तक न कर सकने वाली वही मूक सावित्री महात्मा ज्योतिबा फुले की पत्नी बनकर समाज की प्रथम आवाज बनीं। 

 

ज्योतिबा फुले शिक्षा के प्रबल समर्थक थे एवं महिलाओं की आत्मनिर्भरता से लेकर उनकी सामाजिक अन्याय से मुक्ति के लिए शिक्षा को ही अनिवार्य साधन मानते थे। यही कारण था कि सबसे पहले उन्होंने अपनी ही अशिक्षित पत्नी सावित्री को स्वयं शिक्षित ही नहीं किया वरन् उनको अन्य स्त्रियों को पढ़ाने का उत्तरदायित्व भी सौंपा। निःसंदेह यह सावित्री बाई के लिए एक बहुत बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य था। यह वह समाज था, जहां अधिकांश समाज नारियों को शिक्षित करने का विरोधी था। उस समय सिर्फ यह प्रचलन था कि लड़कियों की शादी कराना है, उनको ससुराल भेजकर दायित्वमुक्त होना है और लड़कियों के लिए घरेलू कार्य ही मायने रखते हैं, शिक्षित होने से उनका कोई लेना देना नहीं होना चाहिए। समाज की मानसिकता में गहरे बैठे ऐसे संकीर्ण विचारों की जड़ों तक पहुंचकर उनको खोखला करने जैसे कठिन काम को सावित्री बाई फुले जैसी वीरांगना ही कर सकती थीं। 

 

सावित्री ही वे नारी हो सकती थीं, जिन्होंने सन् 1848 में पुणे में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की मात्र नौ छात्राओं को लेकर पूना में पहला लड़कियों का स्कूल स्थापित किया, जहाँ वे स्वयं प्रथम शिक्षिका भी बनीं। उन्होंने अपने अलावा महिला शिक्षिकाओं का एक दल भी तैयार किया, कहते हैं कि इस दल में फातिमा शेख नामक महिला ने उनको भरपूर सहयोग दिया था। इस पहली नारी शाला के लिए पुस्तकों का प्रबंध सदाशिव गोवंदे ने किया था। सावित्री बाई स्वयं इतनी अच्छी शिक्षिका थीं कि कुछ ही दिनों में उनकी शाला पूना का उत्कृष्ट स्कूल बनने लगा। अतः उसकी बढ़ती महत्ता के कारण फिर कुछ लोगों ने अत्याचार करने आरम्भ कर दिए, इससे कुछ समय के लिए सावित्री को अपना स्कूल बंद करना पड़ा था। लेकिन उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति, अपार पराक्रमी प्रवृत्ति और अदम्य उत्साह ने शीघ्र ही दुबारा एक नया स्कूल एक नयी जगह आरम्भ कर दिया। 

 

निश्चित रुप से उस काल में स्त्री शिक्षा को लेकर जो विद्रोही कदम सावित्री बाई ने उठा लिए थे, उसका बेहद विरोध उन्होंने सहन करने की पराकाष्ठा तक सहा। वे जब पढ़ाने के लिए स्कूल के लिए निकलतीं, तो अपशब्दों के साथसाथ उन पर फेंके जाने वाले अपशिष्टों को भी उन्होंने झेला। परन्तु चूंकि वे अपने निःस्वार्थ और निश्चल सामाजिक नारी जागृति के पवित्र कार्य में संलग्न थीं, अतः ऐसे कृत्यों ने उन्हें जरा भी अपने कर्तव्यपथ पर डिगने नहीं दिया। वे अपने साथ एक दूसरी साड़ी लेकर जाती थीं और स्कूल पहुंचकर साफ साड़ी पहनकर अपना अध्यापन धर्म का निर्वहन करती थीं। यहां यह उनके व्यक्तित्व की एक बात उभरकर सामने आती है कि उन्होंने ऐसी बाधाओं को सहन नहीं किया, वरन् दूसरी साड़ी ले जानेके विकल्प के माध्यम से यह जताने का सफल प्रयास किया कि ऐसी निरर्थक सामाजिक बाधाओं के लिए सावित्री की सोच जैसी सकारात्मक ऊर्जा का व्यय व्य़र्थ के विरोध में नष्ट न करके अपना पूरा ध्यान नारी शिक्षा जैसे उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाना अधिक न्यायानुकूल होगा। निःसंदेह वे विजयी हुईँ और अपने पति महात्मा फुले के साथ मिलकर लड़कियों के लिए स्थापित किए गए कुल अठारह स्कूल इस विजय के सजीव हस्ताक्षर बने। 

 

सावित्री बाई ने नारियों से जुड़े तत्कालीन हर उस पहलू को गहनता से अनुभव करते हुए उनके समाधानों को स्थापित किया, जो सिर्फ शिक्षा तक ही सीमित नहीं थे, वरन् कई कई सामाजिक विसंगतियों से सम्बद्ध भी थे।

 

सावित्री बाई ने अपने सामाजिक व नारीसुधारों के आंदोलनों की शुरुआत भले ही उस समय की अस्पृश्यतावादी निम्नस्तरीय सामाजिक सोच के चलते की थी, लेकिन जैसे जैसे उनके सुधारकार्य प्रगति पथ पर सफल होते जा रहे थे, वे अपने कामों में वृहत् होती जा रहीं थीं। उन्होंने उस समय सभी जातियों की विधवाओं पर किए जा रहे अत्याचारों के खिलाफ भी बुलंद आवाज उठाई। 28 जनवरी 1853 को उन्होंने ऐसी पीड़ित नारियों के लिए बाल हत्‍या प्रतिबंधक गृह की स्‍थापना की। सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले ने सामाजिक सुधार हेतु किए जाने वाले अपने समस्त परिवर्तनगत कार्यों की शुरुआत अपने घर से करके समाज के समक्ष आदर्श प्रस्तुत किए। उन्होंने स्वयं एक विधवा ब्राह्मण महिला काशीबाई के बच्चे को गोद लेकर अपने इस दत्तक पुत्र यशवंत राव को डॉक्टर बनाया और उसका अन्तर्राजातीय विवाह करवाकर जाति व वर्ग से परे सुशिक्षित-सुविचारों वाले एक सुमृद्ध व सुदृढ़ समाज की स्थापना के अपने महान विचारों को समाज के समक्ष रखा।

 

सावित्री बाई फुले एक अध्यापिका और समाजसुधारक होने के साथ साथ एक कवियत्री और प्रकृतिप्रेमी भी थीं। उनकी लेखनी विलक्षण थी। सन् 1854 में उनकी पहली पुस्तक ‘काव्य फुले’ प्रकाशित हई थी। उनकी अधिकांश कविताओं के विषय नारी, शिक्षा, जाति और परतंत्रता की समस्याओं को लेकर थे। उन्होंने प्रकृति पर भी कुछ कविताएं लिखीं। उनका बावन कशी सुबोध रत्नाकर नामक एक महत्वपूर्ण काव्य संग्रह भी है। यह उनके पति महात्मा फुले की जीवनी पर आधारित है, जो 1891 में प्रकशित हुआ था। इनके अलावा मेधा की प्रतिमूर्ति सावित्री बाई फुले ने ज्योतिबा फुले के भारतीय इतिहास पर व्याख्यान संबंधी विषय की चार पुस्तकों का संपादन किया। साथ ही 1892 में उन्होंने स्वयं के भाषणों का भी सम्पादन किया। उन्होंने सभी के लिए एक बहुत अच्छा संदेश बिल्कुल सरल भाषा में दिया कि “कड़ी मेहनत करो, अच्छे से पढाई करो और अच्छा काम करो”। 

 

28 नवंबर 1890 को उनसे नियति ने उनके पति महात्मा फुले को छीन लिया। अंदर ही अंदर टूटीं लेकिन बाहर से अटल वीरांगना सावित्री ने एक बार फिर समाज के समक्ष एक उदाहरण बनते हुए अंतिम संस्कार की रूढ़ीवादी सामाजिक परम्पराओं को नकारते हुए अपने जीवन के सबसे बड़े संरक्षक और गुरु महात्मा फुले का अंतिम संस्कार अपने हाथों से किया। भारतीय इतिहास में वे पहली ऐसी महिला बनीं जिन्होंने अंतिम संस्कार जैसी रीतियों में भी नारी के समान अधिकार होने की अप्रत्यक्ष पैरवी कर डाली थी। महात्मा फुले के बाद सावित्री बाई फुले ने उनके भी अधूरे सभी समाजसुधारक कार्यों का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया था। 1896 के भीषण अकाल के दौरान उन्होंने पीडितो के सहयोग के लिए अथक कार्य किए। इसके एक साल बाद ही 1897 में पूरा पूना प्लेग की चपेट में आ गया था, तब सावित्री बाई फुले ने स्वयं को रोगियों की सेवा में पूरी तरह समर्पित कर दिया। वे रोगियों की दिनरात सेवा करतीं थीं, प्रतिदिन लगभग दो हज़ार बच्चो को खाना खिलाया करती थी और सभी बच्चों की सेवा अपने बच्चे समझकर करती थीं। उनके मातृत्व की छांव में प्लेग पीड़ित बच्चे स्वस्थ हो रहे थे, लेकिन स्वयं सावित्री बाई प्लेग की चपेट में आ गईं थीं। 10 मार्च 1897 को भारत की यह वीरांगना अपने जीवन के उद्देश्यों को सफलतापूर्वक पूर्ण कर अपने जीवन की अंतिम सांसों तक समाज और नारियों की सेवा करते हुए चिरसमाधि में लीन हो गईं। 

 

सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका बनीं, उन्होंने जाति और धर्म विशेष की संकीर्णताओं से कहीं ऊपर उठकर देश की समस्त दलित, शोषित और पीड़ित स्त्रियों के उत्थान के लिये जीवन पर्यन्त काम किया। सावित्रीबाई फुले की नारी चेतना के सफल प्रयासों ने आज विशेषरूप से शिक्षित मध्यवर्गीय नारियों को उन व्यवसायों और पदों पर प्रतिष्ठित किया है, जिन पर पहुंचने की सोच कभी हुआ ही नहीं करती थी। जाति और धर्म की सीमित मानसिकता से कहीं ऊपर सर्वे भवन्तु सुखिनः... की सोच रखने वाली महान भारत पुत्री को सीमाओं में बांधना उनकी स्तुत्य महानता के साथ न्याय नहीं करता।