खान अब्दुल गफ्फार खान-'बादशाह खान'
(Khan Abdul Ghaffar Khan-'Badshah Khan')

Posted on February 6th, 2019 | Create PDF File

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स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी के सहयात्री रहे भारत रत्न से सम्मानित महान स्वतंत्रता सेनानी खान अब्दुल गफ्फार खान का आज (06 फरवरी) जन्मदिन है। वह अपनी 98 वर्ष की जिंदगी में कुल 35 साल जेल में रहे। सन् 1988 में पाकिस्तान सरकार ने उनको पेशावर स्थित घर में नज़रबंद कर दिया था और उसी दौरान 20 जनवरी, 1988 को उनकी मृत्यु हो गयी थी। आज के समय में भारत रत्न गफ्फार खान जैसे स्वातंत्र्य योद्धा के त्याग और संघर्ष से हमे मौजूदा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्री राजनीतिक मूल्यों और भटकावों को जानने की दृष्टि मिलती है।

 

अविभाजित हिंदुस्तान के जमाने से भारत रत्न ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को कई नामों से जाना जाता है - सरहदी गांधी, सीमान्त गांधी, बादशाह खान, बच्चा खाँ आदि। एकनाथ ईश्वरन गफ्फार खान की जीवनी 'नॉन वायलेंट सोल्जर ऑफ इस्लाम' में लिखते हैं - भारत में दो गांधी थे, एक मोहनदास कर्मचंद और दूसरे खान अब्दुल गफ्फार खां।

 

अब्दुल गफ्फार खान एक राजनैतिक और आध्यात्मिक नेता थे जिन्हें महात्मा गाँधी की तरह उनके अहिंसात्मक आन्दोलन के लिए जाना जाता है। वो महात्मा गाँधी के परम मित्र थे और ब्रिटिश इंडिया में उन्हें ‘फ्रंटियर गाँधी’ के नाम से भी संबोधित किया जाता था। उन्होंने ‘खुदाई खिदमतगार’ नामक सामाजिक संगठन प्रारंभ किया जिसकी सफलता ने अंग्रेजी हुकुमत को बेचैन कर दिया। उन्होंने सरहद पर रहने वाले उन पठानों को अहिंसा का रास्ता दिखाया, जिन्हें इतिहास में हमेशा ‘लड़ाके’ के तौर पर दर्शाया गया था।  नमक सत्याग्रह के दौरान 23 अप्रैल 1930 को गफ्फार खां के गिरफ्तारी के बाद खुदाई खिदमतगारों ने पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार में एक जुलूस निकाला। अंग्रेजी प्रशासन ने उन पर गोलियां बरसाने का हुक्म दे दिया और देखते ही देखते 200 से 250 लोग मारे गए पर प्रतिहिंसा नहीं हुई। ये कमाल गफ्फार खां के करिश्माई नेतृत्व का था।

 

इस महान नेता ने सदैव ‘मुस्लिम लीग’ द्वारा देश के विभाजन के मांग का विरोध किया और जब अंततः कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकार कर लिया तब वो बहुत निराश हुए और कहा, ‘आप लोगों ने हमें भेड़ियों के सामने फ़ेंक दिया।” विभाजन के बाद उन्होंने पाकिस्तान के साथ रहने का निर्णय लिया और पाकिस्तान के अन्दर ही ‘पख्तूनिस्तान’ नामक एक स्वायत्त प्रशासनिक इकाई की मांग करते रहे। पाकिस्तान सरकार ने उन पर हमेशा ही शक किया जिसके कारण पाकिस्तान में उनका जीवन अक्सर जेल में ही गुजरा।

 

जीवन परिचय-

 

ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान (जन्म:  6 फ़रवरी, 1890; मृत्यु: 20 जनवरी, 1988) महान् राजनेता थे, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और अपने कार्य और निष्ठा के कारण "सरहदी गांधी" (सीमान्त गांधी), "बाचा ख़ान" तथा "बादशाह ख़ान" के नाम से पुकारे जाने लगे। 20वीं शताब्दी में पख़्तूनों (या पठान; पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान का मुसममान जातीय समूह) के सबसे अग्रणी और करिश्माई नेता थे, जो महात्मा गांधी के अनुयायी बन गए और उन्हें ‘सीमांत गांधी’ कहा जाने लगा। अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ाँ का जन्म एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। वह बचपन से ही अत्यधिक दृढ़ स्वभाव के व्यक्ति हैं, इसलिये अफ़ग़ानों ने उन्हें 'बाचा ख़ान' के रूप में पुकारना प्रारम्भ कर दिया। आपका सीमा प्रान्त के क़बीलों पर अत्यधिक प्रभाव था। गांधी जी के कट्टर अनुयायी होने के कारण ही उनकी 'सीमांत गांधी' की छवि बनी। विनम्र ग़फ़्फ़ार ने सदैव स्वयं को एक 'स्वतंत्रता संघर्ष का सैनिक' मात्र कहा, परन्तु उनके प्रसंशकों ने उन्हें 'बादशाह ख़ान' कह कर पुकारा। गांधी जी भी उन्हें ऐसे ही सम्बोधित करते थे। राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग लेकर उन्होंने कई बार जेलों में घोर यातनायें झेली हैं। फिर भी वे अपनी मूल संस्कृति से विमुख नहीं हुए। इसी वज़ह से वह भारत के प्रति अत्यधिक स्नेह भाव रखते थे।

 

ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान का जन्म 6 फ़रवरी, 1890 ई. को पेशावर, तत्कालीन ब्रिटिश भारत वर्तमान पाकिस्तान में हुआ था। उनके परदादा 'अब्दुल्ला ख़ान' बहुत ही सत्यवादी और जुझारू स्वभाव थे। उनके पिता 'बैरम ख़ान' शांत स्वभाव के थे और ईश्वरभक्ति में लीन रहा करते थे। उन्होंने अपने लड़के अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को शिक्षित बनाने के लिए 'मिशनरी स्कूल' में भेजा, पठानों ने उनका बड़ा विरोध किया। मिशनरी स्कूल की पढ़ाई समाप्त करने के बाद वे अलीगढ़ आ गए। गर्मी की छुट्टियों में समाजसेवा करना उनका मुख्य काम था। शिक्षा समाप्त कर वह देशसेवा में लग गए।

 

सन 1910 में बीस साल की उम्र में गफ्फार ने अपने गृहनगर उत्मान जई में एक स्कूल खोला जो बहुत सफल साबित हुआ। 1911 में वो पश्तून स्वतंत्रता सेनानी तुरंग जई के हाजी साहेब के स्वाधीनता आन्दोलन में शामिल हो गए। अंग्रेजी हुकुमत ने उनके स्कूल को सन 1915 में प्रतिबंधित कर दिया। सन 1915 से लेकर 1918 तक उन्होंने पश्तूनों को जागृत करने के लिए लगभग 500 गांवों की यात्रा की जिसके बाद उन्हें ‘बादशाह खान’ का नाम दिया गया।

 

 

गाँधीजी से परिचय-

 

राजनीतिक असंतुष्टों को बिना मुक़दमा चलाए नज़रबंद करने की इजाज़त देने वाले रॉलेट एक्ट के ख़िलाफ़ 1919 में हुए आंदोलन के दौरान ग़फ़्फ़ार ख़ां की गांधी जी से मुलाक़ात हुई और उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया। अगले वर्ष वह ख़िलाफ़त आंदोलन में शामिल हो गए, जो तुर्की के सुल्तान के साथ भारतीय मुसलमानों के आध्यात्मिक संबंधों के लिए प्रयासरत था और 1921 में वह अपने गृह प्रदेश पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत में ख़िलाफ़त कमेटी के ज़िला अध्यक्ष चुने गए।

 

ख़ुदाई ख़िदमतगार की स्थापना-

 

1929 में कांग्रेस पार्टी की एक सभा में शामिल होने के बाद ग़फ़्फ़ार ख़ां ने ख़ुदाई ख़िदमतगार (ईश्वर के सेवक) की स्थापना की और पख़्तूनों के बीच लाल कुर्ती आंदोलन का आह्वान किया। विद्रोह के आरोप में उनकी पहली गिरफ़्तारी 3 वर्ष के लिए हुई थी। उसके बाद उन्हें यातनाओं की झेलने की आदत सी पड़ गई। जेल से बाहर आकर उन्होंने पठानों को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने के लिए 'ख़ुदाई ख़िदमतग़ार' नामक संस्था की स्थापना की और अपने आन्दोलनों को और भी तेज़ कर दिया।

 

पश्तूनों के उत्थान में संघर्षरत बादशाह खान एक ऐसे भारत की स्थापना चाहते थे जो आज़ाद और धर्मनिरपेक्ष हो। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए उन्होंने ‘खुदाई खिदमतगार’ नामक संगठन बनाया जिसे ‘सुर्ख पोश’ भी कहा गया। खुदाई खिदमतगार की स्थापना महात्मा गाँधी के अहिंसा और सत्याग्रह जैसे सिद्धान्तों से प्रेरित होकर की गयी थी।

 

बादशाह खान के करिश्माई नेतृत्व का कमाल था कि संगठन में लगभग 100000 सदस्य शामिल हो गए और उन्होंने शांतिपूर्ण तरीके से अंग्रेजी पुलिस और सेना का विरोध करना शुरू कर दिया। खुदाई खिदमतगारों ने हड़तालों, राजनैतिक संगठन और अहिंसात्मक प्रतिरोध के माध्यम से अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ सफलता हासिल की और ‘खईबर-पख्तुन्ख्वा’ में एक प्रमुख राजनैतिक शक्ति बन गये। बादशाह के भाई डॉ खान अब्दुल जब्बर खान ने संगठन के राजनैतिक खंड की जिम्मेदारी संभाली और 1920 के दशक के अंतिम सालों से लेकर सन 1947 तक प्रान्त के मुख्यमंत्री रहे।

 

अब्दुल गफ्फार खान बताया करते थे कि 'प्रत्येक खुदाई खिदमतगार की यही प्रतिज्ञा होती है कि हम खुदा के बंदे हैं, दौलत या मौत की हमें कदर नहीं है। हमारे नेता सदा आगे बढ़ते चलते हैं। मौत को गले लगाने के लिए हम तैयार हैं। ...मैं आपको एक ऐसा हथियार देने जा रहा हूं जिसके सामने कोई पुलिस और कोई सेना टिक नहीं पाएगी। यह मोहम्मद साहब का हथियार है लेकिन आप लोग इससे वाकिफ नहीं हैं। यह हथियार है सब्र और नेकी का। दुनिया की कोई ताकत इस हथियार के सामने टिक नहीं सकती।'

 

किस्सा ख्वानी नरसंहार-

 

1930 ई. के नमक सत्याग्रह के दौरान गफ्फार खान को 23 अप्रैल को गिरफ्तार कर लिया गया जिसके स्वरुप खुदाई खिदमतगारों का एक जत्था विरोध प्रदर्शन के लिए पेशावर के किस्सा ख्वानी बाज़ार में इकठ्ठा हुआ। अंग्रेजों ने निहत्थी और अहिंसात्मक भीड़ पर मशीनगनों से गोलियां चलाने का आदेश दिया जिसमे लगभग 200 -250 लोग मारे गए। इसी दौरान गढ़वाल राइफल रेजिमेंट के दो प्लाटूनों ने निहत्थी और अहिंसात्मक भीड़ पर गोलियां चलाने से इनकार कर दिया जिसके परिणामस्वरूप उनका कोर्ट मार्शल किया गया और कठोर सजा सुनाई गयी।

 

भारत का विभाजन-

 

एक धर्मनिरपेक्ष इंसान होने के नाते गफ्फार खान ने हमेशा ही भारत के विभाजन का विरोध किया जिसके कारण लोगों ने उन्हें मुस्लिम-विरोधी भी कहा और 1946 में पेशावर में उनपर जानलेवा हमला भी हुआ। जब कांग्रेस भारत का विभाजन रोकने में असफल रही तब गफ्फार खान बहुत आहत हुए। उन्होंने गाँधी और कांग्रेस के अन्य नेताओं से कहा, ‘आप लोगों ने हमे भेड़ियों के सामने फेंक दिया’।

 

सन 1947 में जब ‘खईबर-पख्तुन्ख्वा’ को पाकिस्तान में शामिल होने के मसले पर जनमत संग्रह कराया गया तब कांग्रेस और गफ्फार खान ने इसके विरोध किया और जनमत संग्रह में शामिल होने से इनकार कर दिया जिसके परिणामस्वरुप ‘खईबर-पख्तुन्ख्वा’ ने बहुमत से पाकिस्तान में शामिल होने के पक्ष में मत दिया।

 

पकिस्तान और गफ्फार खान-

 

हालांकि देश के विभाजन से गफ्फार खान किसी प्रकार से भी सहमत नहीं थे पर बंटवारे के बाद उन्होंने पाकिस्तान में शामिल होने का निर्णय लिया और देश के प्रति अपनी निष्ठा भी प्रकट की लेकिन पाकिस्तानी हुकुमत को उनकी निष्ठा पर सदैव संदेह रहा। विडम्बना ऐसे रही की इस महान देशभक्त और स्वतंत्राता सेनानी की इच्छाओं को पाकिस्तान की सरकार ने अनसुना कर दिया और सरकार खान एवं उनके समर्थकों को पाकिस्तान की विकास और प्रगति में बाधा मानते रहे।

 

साल 1948 से 1956 के बीच पाकिस्तान सरकार ने उन्हें कई बार गिरफ्तार किया। साल 1956 में पाकिस्तान सरकार पश्चिमी पाकिस्तान के सभी प्रोविंस को जोड़कर एक बड़ा राज्य बनाने का काम कर रही थी और खान साहब सरकार के इस कदम के खिलाफ खड़े हो गए। इसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया। 1960-70 के दशकों में उन्होंने ज्यादातर वक्त जेल या फिर निर्वासन में गुजारा। 1988 में जब उनका निधन हुआ उस समय भी वह पेशावर के हाउस अरेस्ट थे। उनकी इच्छा के अनुसार मृत्यु के बाद उन्हें अफगानिस्तान के जलालाबाद में दफनाया गया।

 

सन 1987 में भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया।

 

शांतिप्रिय बादशाह ख़ान-

 

*पेशावर में जब 1919 ई. में अंग्रेज़ों ने 'फ़ौजी क़ानून' (मार्शल लॉ) लगाया। अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान अंग्रेज़ों के सामने शांति का प्रस्ताव रखा, फिर भी उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया।


*1930 ई. में सत्याग्रह आंदोलन करने पर वे पुन: जेल भेजे गए और उन्हें गुजरात (उस समय पंजाब का भाग) की जेल भेजा गया। वहाँ पंजाब के अन्य बंदियों से उनका परिचय हुआ।

*उन्होंने जेल में सिख गुरुओं के ग्रंथ पढ़े और गीता का अध्ययन किया।


*हिंदू मुस्लिम एकता को ज़रूरी समझकर उन्होंनें गुजरात की जेल में गीता तथा क़ुरान की कक्षा लगायीं, जहाँ योग्य संस्कृतज्ञ और मौलवी संबंधित कक्षा को चलाते थे। उनकी संगति से सभी प्रभावित हुए और गीता, क़ुरान तथा गुरु ग्रंथ साहब आदि सभी ग्रंथों का अध्ययन सबने किया।


*बादशाह ख़ान (ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान) आंदोलन भारत की आज़ादी के अहिंसक राष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन करते थे और इन्होंने पख़्तूनों को राजनीतिक रूप से जागरूक बनाने का प्रयास किया।


*1930 के दशक के उत्तरार्ध तक ग़फ़्फ़ार ख़ां महात्मा गांधी के निकटस्थ सलाहकारों में से एक हो गए और 1947 में भारत का विभाजन होने तक ख़ुदाई ख़िदमतगार ने सक्रिय रूप से कांग्रेस पार्टी का साथ दिया ।


*इनके भाई डॉक्टर ख़ां साहब (1858-1958) भी गांधी के क़रीबी और कांग्रेसी आंदोलन के सहयोगी थे।


*सन 1930 ई. के गाँधी-इरविन समझौते के बाद अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को छोड़ा गया और वे सामाजिक कार्यो में लग गए।


*1937 के प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस ने पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत की प्रांतीय विधानसभा में बहुमत प्राप्त किया। ख़ां साहब को पार्टी का नेता चुना गया और वह मुख्यमंत्री बने। 1942 ई. के अगस्त आंदोलन में वह गिरफ्तार किए गए और 1947 ई. में छूटे।


*देश के विभाजन के विरोधी ग़फ़्फ़ार ख़ां ने पाकिस्तान में रहने का निश्चय किया , जहां उन्होंने पख़्तून अल्पसंख़्यकों के अधिकारों और पाकिस्तान के भीतर स्वायत्तशासी पख़्तूनिस्तान (या पठानिस्तान) के लिए लड़ाई जारी रखी।


*भारत का बँटवारा होने पर उनका संबंध भारत से टूट सा गया किंतु वह भारत के विभाजन से किसी प्रकार सहमत न थे। पाकिस्तान से उनकी विचारधारा सर्वथा भिन्न थी। पाकिस्तान के विरुद्ध 'स्वतंत्र पख़्तूनिस्तान आंदोलन' आजीवन चलाते रहे।


*उन्हें अपने सिद्धांतों की भारी क़ीमत चुकानी पड़ी, वह कई वर्षों तक जेल में रहे और उसके बाद उन्हें अफ़ग़ानिस्तान में रहना पड़ा।


*1985 के 'कांग्रेस शताब्दी समारोह' के आप प्रमुख आकर्षण का केंद्र थे। 1970 में वे भारत भर में घूमे। 1972 में वह पाकिस्तान लौटे ।


*इनका संस्मरण ग्रंथ "माई लाइफ़ ऐंड स्ट्रगल" 1969 में प्रकाशित हुआ।

 

निधन-

 

खान अब्दुल गफ्फार खान का निधन सन 1988 में पेशावर में हुआ जहाँ उन्हें घर में नजरबन्द रखा गया था। उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें उनके जलालाबाद (अफगानिस्तान) स्थित घर में दफनाया गया। उनके अंतिम संस्कार में 2 लाख से भी ज्यादा लोग शामिल हुए जो उनके महान व्यक्तित्व का परिचायक था।

 

सुपुर्द-ए-खाक का वो दिन-

 

खान अब्दुल गफ्फार खान की मृत देह को पेशावर में खैबर पास के जरिए जलालाबाद ले जाया गया। उन्हें अंतिम विदायी देने के लिए हजारों लोग इकट्ठा थे, लेकिन दो बम विस्फोटों ने गमगीन माहौल को और भी गमगीन बना दिया। इन बम धमाकों में 15 लोगों की जान चली गई थी। यह भी गौर करने वाली बात है कि अफगानिस्तान में उस वक्त सोवियत संघ की कम्यूनिस्ट आर्मी और मुजाहिद्दीनों के बीच जंग चल रही थी। लेकिन फ्रंटियर गांधी को सुपुर्द के खाक किए जाने के दौरान दोनों तरफ से सीज फायर की घोषणा की गई थी।