एंथ्रोपोसीन यानी मानवयुग और उससे जुड़े पर्यावरण के वैश्विक खतरे ( Anthropocene: the age of human)

Posted on October 1st, 2018 | Create PDF File

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अपने मस्तिष्क के दम पर ही इंसान पृथ्वी का सबसे सफल जीव है। पिछले 12000 वर्षों से आदमी ने जिस तरह पृथ्वी पर कब्जा जमाया हुआ है, वह उसके वर्चस्व को दिखाता है। इस सफलता के लिए उसे समय- समय पर काफी कीमत भी चुकानी पड़ी है और आगे भविष्य में भी चुकानी पड़ सकती है। इसके कुछ एक गंभीर प्रभाव अभी से हमारे ऊपर दिखाई देने लगे हैं, जैसे- जलवायु परिवर्तन और जीवों की प्रजातियों का विलुप्त होना आदि। प्रकृति के साथ हमारी अत्यधिक छेड़खानी हमें एक नये भू-वैज्ञानिक युग – एंथ्रोपोसीन (मानवयुग) में प्रवेश करा चुकी है।

 

 सबसे पहले यह विचार वर्ष 2000 में डच रसायन विज्ञानी पॉल क्रुतजन और अमेरिकी जीव विज्ञानी यूजीन पी. स्टोमर्स ने सामने रखा था। लेकिन इसी विचार को दो साल बाद बल मिला, जब नेचर पत्रिका में क्रुतजन का लेख मानवजाति का भू-विज्ञान प्रकाशित हुआ। इससे पहले मीडिया और अकादमिक जगत में इस पर काफी चर्चा और बहस होती रही। पिछले साल अगस्त में भू-वैज्ञानिकों की एक समिति एंथ्रोपोसीन वर्किंग ग्रुप ने आधिकारिक तौर पर इस विचार का समर्थन किया। प्रस्ताव की वैधता पर विचार-विमर्स के लिए सन 2009 में यह समिति गठित की गई थी। समिति ने सुझाया कि इस युग का प्रारम्भ 1950 के आस-पास माना जाए, जब परमाणु बमों के परीक्षणों की होड़ के चलते पूरी पृथ्वी रेडियोधर्मी किरणों से बुरी तरह घिर गई थी।

 

सन 1950 से शुरू हुए काल को वैज्ञानिक ग्रेट एक्सेलरेशन यानी महान त्वरण के तौर पर देखते हैं। हालांकि इसके लिए शब्द बहुत बाद में क्रुतजन ने ही गढ़ा। यह काल दिखाता है कि कैसे आर्थिक तरक्की और जनसंख्या में हुई अभूतपूर्व वृध्दि ने इस ग्रह का स्वरूप पूरी तरह बदल दिया है। नदियों पर बांध बनाने से लेकर वनों की कटाई, जल, वायु मिट्टी के प्रदूषण से लेकर ओजोन परत के क्षय, प्रजातियों के विलुप्त होने और ग्लोबल वार्मिंग जैसे परिवर्तन शामिल हैं। हजारों साल तक बचे रहने वाले रेडियो न्यूक्लाइड यानी परमाणु परीक्षणों के अवशेष, एंथ्रोपोसीन को परिभाषित करने वाले सबसे प्रबल प्रमाण हैं। लेकिन एथ्रोपोसीन वर्किंग ग्रुप अन्य प्रमाणों की तलाश भी कर रहा है। इसलिए प्लास्टिक प्रदूषण, कृत्रिम उर्वरकों की वजह से मिट्टी में नाइट्रोजन और फास्फोरस की अत्यधिक मात्रा और दुनिया भर में कूड़े के ढ़ेर में दफन घरेलू चिकन की हड्डियों पर भी गौर किया जा रहा है।

 

इसमें कोई दोराय नही है कि मनुष्य ने जीवमण्डल को पूरी तरह बदल दिया है। लेकिन यह निश्चित नही है कि यह बदलाव भविष्य में सदियों तक कायम रहेंगे। इसने उन भू-वैज्ञानिकों को दुविधा में डाल दिया है, जो जमीन के नीचे लाखों वर्षों तक संरक्षित किसी संकेत के नाम पर नये युग का नामकरण करते रहे हैं। इस तरह के प्रमाण को गोल्डन स्पाइक कहते हैं। उदाहरण के तौर पर मौजूदा युग के लिए होलोसीन को गोल्डन स्पाइक कहा गया। यह युग लगभग 12 हजार साल पहले आखिरी हिमयुग के बाद शुरू हुआ था। ग्रीनलैंड की वर्फ में इसके प्रमाण 1492 मीटर की गहराई में संरक्षित हैं। इसी प्रकार डायनासोर युग के नाम से मशहूर क्रेटेशियस काल का गोल्डन स्पाइक डायनासोरों को खत्म करने वाले उल्का पिंड का अवशेष, इरीडियम धातु है। हालांकि यह अवधारणा बहुत विवादित रही है। दरअसल युग परिवर्तन को लेकर भूविज्ञानियों में आम सहमति बनना बहुत ही कठिन है। भले ही औपचारिक रूप से होलोसीन को 1885 में ही एक युग के तौर पर मान्यता मिल गई थी। लेकिन भूविज्ञानियों के इसके गोल्डन स्पाइक पर सहमति बनाने में 76 साल लग गए।

 

मानव युग यानी एंथ्रोपोसीन के बारे में अंतिम निर्णय केवल एडब्ल्यूजी पर ही निर्भर नही है। अभी उसकी सिफारिशों का अध्ययन किया जाएगा और भूवैज्ञानिक जगत में तीन स्तरों पर इस अवधारणा की जांच और पुष्टि होना बाकी है। ऐसे मामलों में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ जिओलॉजिकल साइंस का निर्णय ही अंतिम माना जाता है। हालांकि कुछ स्तरक्रम  विज्ञानी (स्टैटिग्राफर्स) मानते हैं कि एंथ्रोपोसीन वर्किंग ग्रुप ने मानव युग को भूविज्ञान के नजरिये से देखकर एक बड़ी भूल की है। क्योंकि यह निश्चित नहीं है कि मानव की गतिविधियों के अवशेष सदियों तक चट्टानों में अपुने निशान छोड़ेंगे। लेखक जेम्स वेस्टकॉट कहते हैं कि हम चट्टानों के पीछे क्यों पड़े हैं, जबकि एतिहासिक प्रमाण हार्ड ड्राइव और सीडी मे मौजूद है। दिग्गज भूवैज्ञानिक एडब्ल्यूजी के प्रस्ताव को समर्थन दें या नहीं, लेकिन एंथ्रोपोसीन का विचार चट्टानों के चंगुल से बाहर निकलने लगा है। डरबन विश्वविद्यालय के टिमोथी क्लार्क के शब्दों में पर्यावरणीय मुद्दों के सांस्कृतिक, नैतिक, दार्शनिक, राजनैतिक संदर्भ व आग्रह सार्वभौमिक हैं।

 

साल 2013 में आई अपनी किताब हायपरआब्जेक्टस् में राइस विश्वविद्यालय में अग्रेजी के प्रोफेसर टिमोथी मॉर्टेन ने एंथ्रोपोसीन की व्याख्या करते हुए इसे स्थलीय भू-विज्ञान और मानव इतिहास का भयावह संयोग बताया है। मानव प्रजाति को उस चीज को समझने की जरूरत है, जिसे वह हायपरऑब्जेक्टस् कहते हैं। यानी ग्लोबल वार्मिंग, प्लास्टिक अथवा रेडियोधर्मी प्लूटोनियम जैसी चीजें, जिनका समय और स्थान में प्रसार मनुष्य के मुकाबले कहीं अधिक व्यापक है।

 

इसी तरह साल 2011 में आई किताब द् टेक्नों ह्यूमन कंडीशन में डैनियल सेरेबिट्ज और ब्रेडन एलनबॉय एंथ्रोपोसीन की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि यह किसी तकनीकि की जटिल जीवन यात्रा के बारे में पूर्वानुमान लगाने की मानव की विफलता का अनायास प्रभाव है। इस बात को समझाने के लिए ऑटोमोबाइल का उदाहरण देते हुए कहते है कि एक तकनीकि जिसने लोगों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता दी, आज एक पर्यावरण खतरे में बदल चुकी है।

 

इकोक्रिटिसिज्म ऑन द एज पुस्तक के लेखक टिमोथी क्लार्क के अनुसार एंथ्रोपोसीन कुछ ऐसी अहम चीजों को धुंधला और यहां तक की उलझा देता है कि जिनके द्वारा लोगों ने अपने जीवन और संसार को लेकर समझ बनाई है। यह संस्कृति और प्रकृति, तथ्य और मूल्य, मनुष्य और भूविज्ञान या मौसम विज्ञानके बीच संकट पैदा करता है।

 

मानवयुग यानी एंथ्रोपोसीन की विभिन्न व्याख्याओं के बावजूद ऐसा प्रतीत होता है कि सभी इसके सबसे उग्र संदेश को व्यक्त कर रहे हैं। यह संदेश है कि यह युग मानव और प्रकृति को विभाजित करने वाली दरार में स्थायी टूट को परिभाषित करता है। दूसरे शब्दों में कहे तो इस नए युग में प्राकृतिक वातावरण के बारे मेंज्यादा बात करने का कोई मतलब नही रह गया है। क्योंकि इस ग्रह पर चेतन या निर्जीव ऐसा कुछ भी नही है जिससे मनुष्य ने छेड़छाड़ न की हो।

 

ड्यूक विश्वविद्यालय में कानून के प्रोफेसर और ऑफ्टर नेचर- ए पॉलिटिक्स फॉर द् एंथ्रोपोसीन पुस्तक के लेखक जेडेडिया परडी के अनुसार अब प्रश्न यह नही रहा कि मानव के हस्तक्षेप से प्रकृति को कैसे बचाया जाए, बल्कि सवाल यह है कि ऐसी दुनिया को हम क्या आकार देंगे, जिसे हम बदलने से नही रोक सकते।

 

पर्यावरण के वर्तमान और भावी खतरों के मद्देनजर रखने वाले मानव युग के किसी भी नए स्वरूप को नैतिकता और राजनीति के जटिल और विवादित सवालों से जूझना होगा। यहां कई बड़े राजनीतिक सवाल खड़े होते हैं। जैसे कि इस नए संसार के निर्माण की कीमत किसे चुकानी होगी। क्या एंथ्रोपोसीन को गढ़ने वाले विकसित संसार को विकासशील दुनिया के उन लोगों की क्षतिपूर्ति नही करनी चाहिए जो ऐसे पर्यावरण संकट की मार झेल रहे हैं, जसमें उनका कोई दोष नही है। क्या भारत और चीन जैसी प्रगतिशील आर्थिक शक्तियों को भी प्रकृति के साथ वैसा ही विश्वासघात करना चाहिए, जिसने हम सबको मौजूदा संकट के दलदल में धकेल दिया है।

 

यहां कई जरूरी और व्यावहारिक सवाल भी खड़े होते हैं।जैसे कि क्या हमें सभी जीवों को संभावित विनाश से बचाना चाहिए । क्या वाकई हम ऐसा कर सकते हैं । क्या उस विज्ञान पर भरोसा किया जा सकता है , जिसने हमारे समाज की खामियों को सुधारने की जिम्मेदारी से बचने के लोभ में मानवता पर उल्टा प्रभाव डाला है। और क्या अपनी भौतिक लालसाओं को कम कर हमें आधुनिकीकरण के झूले से उतर जाना चाहिए ।  और यथासंभव सहज और सरल जीवन जीने की कोशिश करनी चाहिए।

 

एंथ्रोपोसीन के बारे में मुक्तिप्रद विचारों की यह दुनिया मछली बाजार जैसी दिखती है। लेकिन ऐसा न हो यह भी संभव नही है। क्योंकि जब हम मानव युग की बात करते हैं तो किसी एक मानव की बात नही होती। परडी लिखते हैं- यह कहना कि हम मानवयुग में रह रहे हैं, एक तरीका है यह कहने का कि हम जिस तरह की दुनिया बना रहे हैं, उसकी जिम्मेदारियों से भाग नही सकते। यहां तक सब ठीक है। लेकिन समस्या तब शुरू होती है जब मानवयुग का यह आकर्षण और व्यापक विचार इस ग्रह की जिम्मेदारी की बात को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने का जरिया बन जाता है।

 

इस तरह आपके पास नेचर कन्वर्जेंस के मुख्य वैज्ञानिक पीटर कैरीवा  जैसी यथास्थिति है। जिनका मानना है कि कूड़े-करकट के साथ काम की चीज को नही फेंक देना चाहिए। काम की वस्तु से उनका मतलब  विज्ञान और बाजारू पूंजीवाद से है।  उनका तर्क है कि पूंजीवाद को कोसने की बजाय विज्ञान आधारित प्रयासों के जरिए कंपनियों के साथ भागीदार वनना चाहिए ताकि उनके कार्यों और संस्कृति में प्रकृति का फायदों के महत्व को निहित किया जा सके।  उनके कहने का अर्थ है कि हम प्रकृति को  जिस तरह देखते समझते हैं, वह निपट चुकी है और उसे बचाने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि उसकी एक कीमत तय कर दी जाए और बाकी बाजार पर छोड़ दिया जाये। ताज्जुब की बात नही है कि  नेचर कन्वर्जेंस पर्यावरण के मामले में कुक्यात नामों डाऊ, मेनसेंटो, कोका-कोला, पाप्सी, गोल्डमैन सैक्स और खनन कंपनी रियो टिंटो के साथ गलबहियां कर रही है।

 

केरिएवा के थोड़ा बायें तरफ जाने पर पर्यावरण आधुनिकतावादी हैं।जो ऐसे वैज्ञानिकों पर्यावरणविदों का समूह है, जिनका दावा है कि पर्यावरण पारिस्तितिकी तंत्र और सेवाओं का प्रभावी उपयोग कर आधुनिक तकनीकि जीवमण्डल पर इंसानी प्रभावों को कम कर सकती है।इस तरह की तकनीकों को अपनाकर एक बेहतर मानवयुग के रास्ते तलाशे जा सकते हैं।

 

थोड़ा और बायीं तरफ़ जाने पर आपके  स्माल इज ब्यूटीफुल, थिंक ग्लोबल, एक्ट लोकल, में यकीन रखने वाले प्रकृतिप्रेमी मिलेंगें।जिनमें दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों तरह के लोग शामिल हैं। इनका मानना है कि टिकाऊ मानवयुग अल्प तकनीकि, श्रम आधरित उत्पादन और विवेकपूर्ण उपभोग पर आधारित होने चाहिए।

 

एंथ्रोपोसीन में दिलचस्पी रखने वालों में आपको ऐसे लोग भी मिलेंगे जो मानवयुग की अवधारणा पर ही सवाल उठाते हैं। पर्यावरण इतिहासकार जेंम्स डब्ल्यू मूर ऐसे ही व्यक्ति हैं। उनका तर्क है कि तकनीकि और मानवता महज बलि के बकरे हैं। असली गुनहगार तो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थायें हैं। जिनका पर्यावरण और संस्कृति के प्रति रवैया वर्तमान संकट की ओर ले जाता है। इस वर्तमान युग को वह वास्तव में केपिटलोसीन कहना पसंद करते हैं। उनका कहना है कि सबसे पहले हमें गैर-बराबरी वाले सत्ता संबंधों को दुरुस्त करने की जरूरत है, जो एंथ्रोपोसीन को संचालित करते हैं।

 

आखिर में जर्मन समाजशास्त्री और टेक्नोह्यूमन कंडीशन पुस्तक के लेखक स्वर्गीय  उलरिच बेग जैसे भाग्यवादी भी हैं, जो मानते हैं कि दुनिया मनुष्य के हाथ से निकल चुकी है। उलरिच बेच के शब्दों में- न विज्ञान न सत्तासीन राजनीति, न मास मीडिया न व्यापार, न कानून और यहां तक की सेना भी इस खतरे को समझने  और इसे नियंत्रित करने की स्थिति में नही हैं। फिर ऐसी वैचारिक अराजकता की स्थिति में आदमी क्या कर सकता है। सिवाय इसके कि व्यक्तिगत कल्पना के बिल में घुस जाये। इस मानव युग मे जो कुछ भी दांव पर लगा है, उसे संरक्षित करने का शायद यही एकमात्र तरीका है। ऐसी जीवन शैली जो खास तरह के राजनैतिक , नैतिक और सौन्दर्य मूल्यों को संरक्षित करती है। जैसा कि परडी लिखते हैं- एंथ्रोपोसीन के बारे में कोई भी पुनर्विचार जीवन से जुड़े ऐसै सवालों के जबाब देगा जैसे कि जीवन का मोल क्या है। लोग एक-दूसरे के कितने कर्जदार हैं। और संसार में ऐसा अद्भुत और सुंदर क्या है कि जिसे बचाया या फ़िर से संवारा जाना ही चाहिए। इन सवालों के जबाब या तो मौजूदा असमानता को बढ़ायेंगे या पिर सत्ता के एक अलग तर्क को गति प्रदान करेंगे। या तो यहग मानव युग बहुत ही लोकतांत्रिक होगा, या फिर बहुत भयावह। ऐसी अनिश्चितता की की स्थिति में उम्मीद की जा सकती है कि मानवयुग कम से कम लोकतांत्रिक जरूर हो। क्योंकि परड़ी के ही शब्दों में – सामाजिक कार्यकर्ता, विचारक और राजनेता ऐसी चुनौतियां और समाधान गढ़ते हैं, जो हममें से कुछ लोगों को थोड़े बेहतर या बदतर संसार के करीब पहुंचा देते हैं।