भारत में समान नागरिक संहिता और संबंधित विवाद (Uniform Civil Code and Related Debate)
Posted on September 19th, 2018
भारतीय संविधान अपने नागरिकों के साथ समान व्यवहार करने की मूल भावना रखता है। यह किसी भी प्रकार के प्रजातीय, जातिगत, धार्मिक या लैंगिक असमानता के आधार पर भेदभाव की मनाही करता है। इसका उद्देश्य है कि सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हों। लेकिन वैयक्तिक स्तर पर ऐसी समानता होनी चाहिए या नहीं यह चर्चा का विषय है। भारत जैसी विविधता से भरी संस्कृति के संरक्षण और इसकी अखण्डता के लिए अलग- अलग समूहों और समुदायों के लिए निश्चित रूप से व्यक्तिगत कानूनों की आवश्यकता होती है। इसी परिप्रेक्ष्य में हाल ही में विधि आयोग नें परिवार विधि में जारी अपने एक परामर्श पत्र में यह स्पष्ट कर दिया है कि- समान नागरिक संहिता न तो अभी आवश्यक ही है, और न ही वांछनीय। इतना ही नहीं, आयोग ने इस संबंध में एक कदम आगे बढ़ते हुए व्यक्तिगत कानूनों में बदलाव और संशोधन के लिए सिफारिश तक की है।
हमारे संविधान में समानता का सिध्दांत, समान समूहों में अर्थपूर्ण समानता का पक्षधर है। जिसके आधार पर विधि आयोग नें समान नागरिक संहिता के स्थान पर व्यक्तिगत कानूनों में सुधार को प्राथमिकता दी हुई है। मतलब समुदाय के भीतर समानता। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 2000 से ज्यादा नृजातीय समूह निवास करते हैं। इनमें से प्रत्येक समूह या समुदाय अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान की रक्षा करनें तब तक अक्षम है, जब तक भारतीय संस्कृति के मूल तत्व सहिष्णुता को खतरा है। राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए प्रत्येक समुदाय के व्यक्तिगत कानूनों को मान्यता दिए जाने की आवश्यकता है। हालांकि इसका एक अलग विवेचन यह भी है कि- यही व्यक्तिगत कानूनों की विविधता अक्सर राष्ट्रीय एकता के समक्ष एक गंभीर मसला बनती देखी गई है।
यद्यपि इसमें कोई दोराय नहीं कि व्यक्तिगत कानून ही समाज के विभिन्न वर्गों की राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रगति में सहायक होते हैं, फिर भी इन कानूनों का संविधान सम्मत होना परमावश्यक है। हाल ही में मुस्लिम समुदाय से जुड़ा तीन-तलाक का मुद्दा और लैंगिक-न्याय की अवधारणा के बदलते स्वरूपों नें एक बार फिर समान नागरिक संहिता को बहस के केंद्र में ला खड़ा किया है। क्या धार्मिक मान्यताओं में दी गई छूट या संरक्षण, व्यक्ति के संवैधानिक मौलिक अधिकारों की उपेक्षा कर सकते हैं? क्या वाकई धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों को न्यायिक समीक्षा के दायरे के बाहर होना चाहिए? क्या यह लैंगिक भेदभाव संविधान की मूल भावना के विरुध्द नहीं हैं? क्या अनुच्छेद- 25 में वर्णित धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार किसी भी स्थिति में निरपेक्ष नहीं होना चाहिए? यही सब प्रश्न उठ रहे हैं। राज्य के नागरिकों की स्वतंत्रता और राज्य के अधिकारों के बीच एक संतुलित रेखा होनी चाहिए, इसलिए इन मुद्दों को एक वैधानिक दृष्टिकोण अपनाते हुए विवेक से हल किए जाने की आवश्यकता है।
दरअसल समान नागरिक संहिता राज्य के व्यक्तिगत धार्मिक कानूनों को निरस्त करके सभी सिविल मामलों को एक समान रूप से निस्तारित करने के पक्ष में है। यह सामाजिक संबंधों (जैसे विवाह आदि), विरासत या उत्तराधिकार के कानूनों, तथा अन्य व्यक्तिगत मामलें की समानता की पैरवी करती है। जहां तक अनु. 25 ( धर्म की स्वतंत्रता) का सवाल है, तो यह व्यक्ति के निजी मामलों तक ही सीमित रहना चाहिए, न कि सार्वजनिक मामलों तक । समान नागरिक संहिता और पंथ-निरपेक्षता परस्पर विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। प्रस्तावित संहिता धार्मिक कानूनों में हस्तक्षेप किए बिना सम्पूर्ण राष्ट्र को कानूनन समेकित करने में यकीन रखती है। यह विषय पहले भी संविधान सभा में विवाद का विषय रहा है। पक्षकारों का मानना है कि यह कानून संविधान के अनु. 25 ( धर्म की स्वतंत्रता) तथा राज्य के अल्पसंख्यकों की संस्कृति में हस्तक्षेप को अनुमति प्रदान करता है। ज्ञात हो कि- भारतीय संविधान के अनुच्छेद- 44 के अनुसार राज्य नागरिकों के संपूर्ण राज्य क्षेत्र के लिए समान नागरिक संहिता को लागू करने का प्रयास करेगा। अब तक देश में हिंदू विवाह अधिनियम 1955, भारतीय तलाक अधिनियम 1869, ईसाई विवाह अधिनियम 1872, भारतीय उत्तराधिकार अधि. 1925, पारसी विवाह और तलाक अधि. 1936 आदि व्यक्तिगत धार्मिक कानूनों के अंतर्गत शामिल किए जा चुके हैं।
वर्ष 1994 के एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ मामले में उच्च न्यायालय का कथन है कि – धर्म व्यक्तिगत विश्वास का विषय हैं, इन्हें पंथनिपेक्ष गतिविधियों के साथ शामिल नहीं किया जा सकता। अनु. 25 (2) के तहत राज्य को यह अधिकार है कि वह पंथनिरपेक्ष गतिविधियों ( विवाह, तलाक, दत्तक ग्रहण, उत्तराधिकार आदि) को विनियमित कर सके। इसी प्रकार एक अन्य मामले ( शाहबानों प्रकरण, 1985) में माननीय उच्च न्यायालय ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत तलाक के बाद मुस्लिम महिला को अपने पति से गुजारा भत्ता प्राप्त करने का अधिकार वैध घोषित करते हुए राज्य को एक समान नागरिक संहिता तैयार करने का निर्देश दिया था। इस निर्णय पर उस समय गंभीर विवाद खड़े हुए थे और अंततः अपने राजनैतिक हितों को ध्यान में रखते हुए राजीव गांधी सरकार द्वारा संसद में मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 पास करके न्यायालय के इस निर्णय के निरस्त कर दिया गया था। जिसकी मुस्लिम महिला संगठनों द्वारा आज भी कड़ी निंदा की जाती है। इसके अतिरिक्त मैरी राय बनाम केरल राज्य मामले में उच्च न्यायालय नें स्पष्ट करते हुए कहा था कि- त्रावणकोर ईसाई उत्तराधिकार अधि. 1916 को ( जिसके कुछ प्रावधान अनु. 14 के तहत असंवैधानिक थे) को भारतीय उत्तरादिकार अधि. 1925 के द्वारा हटा दिया गया था। इसी प्रकार सरला मुद्गल बनाम भारतीय संघ, 1995 प्रकरण में न्यायालय ने कहा था कि- कोई भी समुदाय धर्म के आधार पर एक अलग इकाई बने रहने का दावा नहीं कर सकता।
तीन तलाक और बहुविवाह की हालिया घटनाओं के चलते एक बार फिर समान नागरिक संहिता का मुद्दा राजनैतिक बहस का केंद्र बना हुआ है। पक्षकारों का दावा है कि कोई भी कानून पुरातनपंथी रूढ़िवादी धार्मिक प्रथाओं को संरक्षण देकर महिलाओं के अधिकारों, उनकी स्वतंत्रता एवं सामाजिक समानता तथा संविधान में वर्णित लैंगिक न्याय के साथ समझौता नहीं कर सकता। इनके अनुसार भारत एक पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है, इसलिए यह बिना किसी भेदभाव के नागरिकों को समान मूल एवं धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार प्रदान करता है। साथ ही उदारीकरण और विश्वभूमण्डलीकरण के इस दौर में जब महिला सशक्तिकरण और लैंगिक समानता के मुद्दे चरम पर हों, देश की प्रगति के लिए समाज के सभी वर्गों की महिलाओं के आधुनिकीकरण पर जोर देने तथा उन्हें प्रगति के समान अवसर उपलब्ध करवाये जाने की आवश्यकता है।
एक ओर जहां अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल ल़ॉ बोर्ड तथा अन्य मुस्लिम संगठन न्यायपालिका के उसके धार्मिक मामलों मे हस्तक्षेप करने का खण्डन करते आये हैं। वहीं दूसरी ओर कई मुस्लिम संगठन एवं गैर सरकारी संगठन ऐसे भी हैं, जो मुस्लिम महिलाओं के समान अधिकारों तथा समान नागरिक संहिता को लागू के जाने के पक्ष में हैं। आज देश के प्रत्येक नागरिक को संविधान में वर्णित उसके अधिकारों एवं कर्त्तव्यों के बारे में जागरूक किए जाने की आवश्यकता है। साथ ही धार्मिक कानूनों को उचित संरक्षण देते हुए, देश के समेकित विकास में बिना किसी भेदभाव के देश के सभी नागरिको की भागीदारी सुनिश्चित किए जाने तथा उनके समान सामाजिक न्याय एवं विकास को प्राथमिकता दिए जाने की आवश्यकता है।
भारत में समान नागरिक संहिता और संबंधित विवाद (Uniform Civil Code and Related Debate)
भारतीय संविधान अपने नागरिकों के साथ समान व्यवहार करने की मूल भावना रखता है। यह किसी भी प्रकार के प्रजातीय, जातिगत, धार्मिक या लैंगिक असमानता के आधार पर भेदभाव की मनाही करता है। इसका उद्देश्य है कि सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हों। लेकिन वैयक्तिक स्तर पर ऐसी समानता होनी चाहिए या नहीं यह चर्चा का विषय है। भारत जैसी विविधता से भरी संस्कृति के संरक्षण और इसकी अखण्डता के लिए अलग- अलग समूहों और समुदायों के लिए निश्चित रूप से व्यक्तिगत कानूनों की आवश्यकता होती है। इसी परिप्रेक्ष्य में हाल ही में विधि आयोग नें परिवार विधि में जारी अपने एक परामर्श पत्र में यह स्पष्ट कर दिया है कि- समान नागरिक संहिता न तो अभी आवश्यक ही है, और न ही वांछनीय। इतना ही नहीं, आयोग ने इस संबंध में एक कदम आगे बढ़ते हुए व्यक्तिगत कानूनों में बदलाव और संशोधन के लिए सिफारिश तक की है।
हमारे संविधान में समानता का सिध्दांत, समान समूहों में अर्थपूर्ण समानता का पक्षधर है। जिसके आधार पर विधि आयोग नें समान नागरिक संहिता के स्थान पर व्यक्तिगत कानूनों में सुधार को प्राथमिकता दी हुई है। मतलब समुदाय के भीतर समानता। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 2000 से ज्यादा नृजातीय समूह निवास करते हैं। इनमें से प्रत्येक समूह या समुदाय अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान की रक्षा करनें तब तक अक्षम है, जब तक भारतीय संस्कृति के मूल तत्व सहिष्णुता को खतरा है। राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए प्रत्येक समुदाय के व्यक्तिगत कानूनों को मान्यता दिए जाने की आवश्यकता है। हालांकि इसका एक अलग विवेचन यह भी है कि- यही व्यक्तिगत कानूनों की विविधता अक्सर राष्ट्रीय एकता के समक्ष एक गंभीर मसला बनती देखी गई है।
यद्यपि इसमें कोई दोराय नहीं कि व्यक्तिगत कानून ही समाज के विभिन्न वर्गों की राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रगति में सहायक होते हैं, फिर भी इन कानूनों का संविधान सम्मत होना परमावश्यक है। हाल ही में मुस्लिम समुदाय से जुड़ा तीन-तलाक का मुद्दा और लैंगिक-न्याय की अवधारणा के बदलते स्वरूपों नें एक बार फिर समान नागरिक संहिता को बहस के केंद्र में ला खड़ा किया है। क्या धार्मिक मान्यताओं में दी गई छूट या संरक्षण, व्यक्ति के संवैधानिक मौलिक अधिकारों की उपेक्षा कर सकते हैं? क्या वाकई धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों को न्यायिक समीक्षा के दायरे के बाहर होना चाहिए? क्या यह लैंगिक भेदभाव संविधान की मूल भावना के विरुध्द नहीं हैं? क्या अनुच्छेद- 25 में वर्णित धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार किसी भी स्थिति में निरपेक्ष नहीं होना चाहिए? यही सब प्रश्न उठ रहे हैं। राज्य के नागरिकों की स्वतंत्रता और राज्य के अधिकारों के बीच एक संतुलित रेखा होनी चाहिए, इसलिए इन मुद्दों को एक वैधानिक दृष्टिकोण अपनाते हुए विवेक से हल किए जाने की आवश्यकता है।
दरअसल समान नागरिक संहिता राज्य के व्यक्तिगत धार्मिक कानूनों को निरस्त करके सभी सिविल मामलों को एक समान रूप से निस्तारित करने के पक्ष में है। यह सामाजिक संबंधों (जैसे विवाह आदि), विरासत या उत्तराधिकार के कानूनों, तथा अन्य व्यक्तिगत मामलें की समानता की पैरवी करती है। जहां तक अनु. 25 ( धर्म की स्वतंत्रता) का सवाल है, तो यह व्यक्ति के निजी मामलों तक ही सीमित रहना चाहिए, न कि सार्वजनिक मामलों तक । समान नागरिक संहिता और पंथ-निरपेक्षता परस्पर विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। प्रस्तावित संहिता धार्मिक कानूनों में हस्तक्षेप किए बिना सम्पूर्ण राष्ट्र को कानूनन समेकित करने में यकीन रखती है। यह विषय पहले भी संविधान सभा में विवाद का विषय रहा है। पक्षकारों का मानना है कि यह कानून संविधान के अनु. 25 ( धर्म की स्वतंत्रता) तथा राज्य के अल्पसंख्यकों की संस्कृति में हस्तक्षेप को अनुमति प्रदान करता है। ज्ञात हो कि- भारतीय संविधान के अनुच्छेद- 44 के अनुसार राज्य नागरिकों के संपूर्ण राज्य क्षेत्र के लिए समान नागरिक संहिता को लागू करने का प्रयास करेगा। अब तक देश में हिंदू विवाह अधिनियम 1955, भारतीय तलाक अधिनियम 1869, ईसाई विवाह अधिनियम 1872, भारतीय उत्तराधिकार अधि. 1925, पारसी विवाह और तलाक अधि. 1936 आदि व्यक्तिगत धार्मिक कानूनों के अंतर्गत शामिल किए जा चुके हैं।
वर्ष 1994 के एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ मामले में उच्च न्यायालय का कथन है कि – धर्म व्यक्तिगत विश्वास का विषय हैं, इन्हें पंथनिपेक्ष गतिविधियों के साथ शामिल नहीं किया जा सकता। अनु. 25 (2) के तहत राज्य को यह अधिकार है कि वह पंथनिरपेक्ष गतिविधियों ( विवाह, तलाक, दत्तक ग्रहण, उत्तराधिकार आदि) को विनियमित कर सके। इसी प्रकार एक अन्य मामले ( शाहबानों प्रकरण, 1985) में माननीय उच्च न्यायालय ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत तलाक के बाद मुस्लिम महिला को अपने पति से गुजारा भत्ता प्राप्त करने का अधिकार वैध घोषित करते हुए राज्य को एक समान नागरिक संहिता तैयार करने का निर्देश दिया था। इस निर्णय पर उस समय गंभीर विवाद खड़े हुए थे और अंततः अपने राजनैतिक हितों को ध्यान में रखते हुए राजीव गांधी सरकार द्वारा संसद में मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 पास करके न्यायालय के इस निर्णय के निरस्त कर दिया गया था। जिसकी मुस्लिम महिला संगठनों द्वारा आज भी कड़ी निंदा की जाती है। इसके अतिरिक्त मैरी राय बनाम केरल राज्य मामले में उच्च न्यायालय नें स्पष्ट करते हुए कहा था कि- त्रावणकोर ईसाई उत्तराधिकार अधि. 1916 को ( जिसके कुछ प्रावधान अनु. 14 के तहत असंवैधानिक थे) को भारतीय उत्तरादिकार अधि. 1925 के द्वारा हटा दिया गया था। इसी प्रकार सरला मुद्गल बनाम भारतीय संघ, 1995 प्रकरण में न्यायालय ने कहा था कि- कोई भी समुदाय धर्म के आधार पर एक अलग इकाई बने रहने का दावा नहीं कर सकता।
तीन तलाक और बहुविवाह की हालिया घटनाओं के चलते एक बार फिर समान नागरिक संहिता का मुद्दा राजनैतिक बहस का केंद्र बना हुआ है। पक्षकारों का दावा है कि कोई भी कानून पुरातनपंथी रूढ़िवादी धार्मिक प्रथाओं को संरक्षण देकर महिलाओं के अधिकारों, उनकी स्वतंत्रता एवं सामाजिक समानता तथा संविधान में वर्णित लैंगिक न्याय के साथ समझौता नहीं कर सकता। इनके अनुसार भारत एक पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है, इसलिए यह बिना किसी भेदभाव के नागरिकों को समान मूल एवं धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार प्रदान करता है। साथ ही उदारीकरण और विश्वभूमण्डलीकरण के इस दौर में जब महिला सशक्तिकरण और लैंगिक समानता के मुद्दे चरम पर हों, देश की प्रगति के लिए समाज के सभी वर्गों की महिलाओं के आधुनिकीकरण पर जोर देने तथा उन्हें प्रगति के समान अवसर उपलब्ध करवाये जाने की आवश्यकता है।
एक ओर जहां अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल ल़ॉ बोर्ड तथा अन्य मुस्लिम संगठन न्यायपालिका के उसके धार्मिक मामलों मे हस्तक्षेप करने का खण्डन करते आये हैं। वहीं दूसरी ओर कई मुस्लिम संगठन एवं गैर सरकारी संगठन ऐसे भी हैं, जो मुस्लिम महिलाओं के समान अधिकारों तथा समान नागरिक संहिता को लागू के जाने के पक्ष में हैं। आज देश के प्रत्येक नागरिक को संविधान में वर्णित उसके अधिकारों एवं कर्त्तव्यों के बारे में जागरूक किए जाने की आवश्यकता है। साथ ही धार्मिक कानूनों को उचित संरक्षण देते हुए, देश के समेकित विकास में बिना किसी भेदभाव के देश के सभी नागरिको की भागीदारी सुनिश्चित किए जाने तथा उनके समान सामाजिक न्याय एवं विकास को प्राथमिकता दिए जाने की आवश्यकता है।