नीतिशास्त्र की विषयवस्तु तथ्यात्मक है। बेन्थम जैसे दार्शनिक ने कहा कि प्रकृति ने मनुष्य को सुख और दुख नामक दो विकल्पों के मध्य रखा है। मनुष्य अधिकाधिक सुख प्राप्त करने का एवं दुख से बचने का प्रयास करता है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। बेन्थम इस मनोवैज्ञानिक तथ्य से 'नैतिक सुखवाद' की स्थापना का प्रयास करते हैं। बेन्थम का तर्क है कि यदि मनुष्य अधिकाधिक सुख प्राप्त करने का प्रयास करता है, तो इसे प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। अर्थात् बेन्थम मनोवैज्ञानिक सुखवाद से नैतिक सुखवाद की तार्किक निष्पति का प्रयास करता है। लेकिन बेन्थम के इस तर्क पर हयूम को आपत्ति है।
हयूम का तर्क है कि तथ्यात्मक एवं मूल्यात्मक कथनों के मध्य एक खाई बनी रहती है, जिसे तार्किक रूप से कभी भरा नहीं जा सकता। तथ्यात्मक कथन यह व्यक्त करता है कि मनुष्य क्या करता है, जबकि मूल्यात्मक कथन यह व्यक्त करता है कि मनुष्य को क्या करना चाहिए। मनुष्य अनेक ऐसे कार्य करता है जिसे मूल्यात्मक रूप से स्थापित नहीं किया जा सकता। हयूम ने कहा है कि यहाँ दोहरे मापदंड हैं। हयूम का तर्क है कि यदि एक तथ्य को मूल्य में परिणत किया जा सकता है तो दूसरे तथ्य को भी मूल्य के रूप में स्थापित किया जाना चाहिए। आगे चलकर मूर ने इस प्रकृतिवादीदोष की संज्ञा दी। अर्थात् बेंथभ के इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि मानव-व्यवहार के संबंधित किसी भी तथ्य को मूल्य में परिवर्तित करना इतना सहज एवं सरल नहीं हैं।
नीतिशास्त्र की विषयवस्तु तथ्यात्मक है। बेन्थम जैसे दार्शनिक ने कहा कि प्रकृति ने मनुष्य को सुख और दुख नामक दो विकल्पों के मध्य रखा है। मनुष्य अधिकाधिक सुख प्राप्त करने का एवं दुख से बचने का प्रयास करता है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। बेन्थम इस मनोवैज्ञानिक तथ्य से 'नैतिक सुखवाद' की स्थापना का प्रयास करते हैं। बेन्थम का तर्क है कि यदि मनुष्य अधिकाधिक सुख प्राप्त करने का प्रयास करता है, तो इसे प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। अर्थात् बेन्थम मनोवैज्ञानिक सुखवाद से नैतिक सुखवाद की तार्किक निष्पति का प्रयास करता है। लेकिन बेन्थम के इस तर्क पर हयूम को आपत्ति है।
हयूम का तर्क है कि तथ्यात्मक एवं मूल्यात्मक कथनों के मध्य एक खाई बनी रहती है, जिसे तार्किक रूप से कभी भरा नहीं जा सकता। तथ्यात्मक कथन यह व्यक्त करता है कि मनुष्य क्या करता है, जबकि मूल्यात्मक कथन यह व्यक्त करता है कि मनुष्य को क्या करना चाहिए। मनुष्य अनेक ऐसे कार्य करता है जिसे मूल्यात्मक रूप से स्थापित नहीं किया जा सकता। हयूम ने कहा है कि यहाँ दोहरे मापदंड हैं। हयूम का तर्क है कि यदि एक तथ्य को मूल्य में परिणत किया जा सकता है तो दूसरे तथ्य को भी मूल्य के रूप में स्थापित किया जाना चाहिए। आगे चलकर मूर ने इस प्रकृतिवादीदोष की संज्ञा दी। अर्थात् बेंथभ के इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि मानव-व्यवहार के संबंधित किसी भी तथ्य को मूल्य में परिवर्तित करना इतना सहज एवं सरल नहीं हैं।