सर चंद्रशेखर वेंकटरमन - राष्ट्रीय विज्ञान दिवस की प्रेरणा
(Sir Chandrasekhar Venkataraman - Inspiration of National Science Day)

Posted on February 28th, 2019 | Create PDF File

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सन् 1921 की बात है। एक भारतीय वैज्ञानिक को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, इंग्लैंड से विश्वविद्यालयीन कांग्रेस में भाग लेने के लिए निमंत्रण प्राप्त हुआ। इसी सिलसिले में वह इंग्लैंड गया। जब वह वापस पानी के जहाज से भारत लौट रहा था, तब रास्ते-भर वह भूमध्यसागर के जल के रंग को ध्यानपूर्वक देखता रहा तथा सागर के नीलेपन को निहारता रहा। उसे सागर के नीले रंग के बारे में जानने की उत्सुकता हुई। उसके वैज्ञानिक मस्तिष्क में कई प्रश्न कोलाहल मचाने लगे। वह सोचने लगा- सागर का रंग नीला क्यों है? कोई और रंग क्यों नहीं? कहीं सागर आकाश के प्रतिबिंब के कारण तो नहीं नीला प्रतीत हो रहा है? समुद्री यात्रा के दौरान ही उसनें सोचा कि शायद सूर्य का प्रकाश जब जल में प्रवेश करता है तो वह नीला हो जाता है।

 

प्रसिद्ध वैज्ञानिक लार्ड रैले की मान्यता थी कि सूर्य की किरणें जब वायुमंडल में उपस्थित नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के अणुओं से टकराती है तो प्रकाश सभी दिशाओं में प्रसारित हो जाता है और आकाश का रंग नीला दिखाई देता है, इसे रैले के सम्मान में ‘रैले प्रकीर्णन’ के नाम से जाना जाता है। उस समय तक लार्ड रैले ने यह भी सिद्ध कर दिया था कि सागर का नीलापन आकाश के प्रतिबिंब के कारण है। उनके मतानुसार सागर का अपना कोई रंग नहीं होता। परंतु उस भारतीय वैज्ञानिक ने रैले की इस मान्यता को पूर्ण रूप से संतोषजनक नहीं माना। सागर के नीलेपन के वास्तविक कारण को जानने के लिए वह जहाज के डैक पर अपना उपकरण ‘स्पेक्ट्रोमीटर’ ले आया। और प्रयोगों में मग्न हो गया। वह अपने प्रयोगों से इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि सागर का नीलापन उसके भीतर ही है, मतलब यह नीलापन आकाश के प्रतिबिंब के कारण नहीं, बल्कि जल के रंग के कारण है! इसका अभिप्राय यह था कि स्वयं सागर का रंग नीला है एवं यह नीलापन पानी के अंदर से ही उत्पन्न होता है।

 

बाद में वह भारतीय वैज्ञानिक इस परिणाम पर पहुँचा कि पानी के अणुओं (मॉलिक्यूल्स) द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन के फलस्वरूप सागर एवं हिमनदियों का रंग नीला दिखाई देता है। उसनें गहन अध्ययन एवं शोध से यह भी बताया कि सामान्यत: आकाश का रंग नीला इसलिए दिखाई देता है क्योंकि सूर्य के प्रकाश में उपस्थित नीले रंग के प्रकाश की तरंग-लंबाई यानी ‘वेवलेंथ’ का प्रकाश अधिक प्रकीर्ण होता है। दरअसल, किसी रंग का प्रकीर्णन उसकी तरंग-लंबाई पर निर्भर करता है। जिस रंग के प्रकाश की तरंग-लंबाई सबसे कम होती है, उस रंग का प्रकीर्णन सबसे ज्यादा होता है तथा जिस रंग के प्रकाश की तरंग-लंबाई सबसे ज्यादा होती है, उस रंग का प्रकीर्णन सबसे कम होता है। लाल रंग के प्रकाश का प्रकीर्णन सबसे कम होता है, जबकि बैंगनी रंग का प्रकाश सर्वाधिक प्रकीर्ण होता है। आप सोंच रहे होंगें कि इस हिसाब से तो आकाश का रंग बैंगनी दिखाई देना चाहिए, फिर यह नीला क्यों दिखाई देता है? दरअसल, हमारी आँखें बैंगनी रंग की अपेक्षा नीले रंग के लिए अधिक सुग्राही होती हैं। इसलिए प्रकीर्णित प्रकाश का मिलाजुला रंग हल्का नीला प्रतीत होता है।

 

वह भारतीय वैज्ञानिक रास्ते-भर सागर के नीले रंग और सूर्य के अंतर्संबंध के बारे में प्रयोग करता रहा और सोचता रहा। भारत (कलकत्ता) लौटकर उस वैज्ञानिक ने इस विषय पर गहन अध्ययन एवं शोध प्रारम्भ कर दिया। और एक शोधपत्र प्रतिष्ठित पत्रिका ‘नेचर’ में प्रकाशनार्थ भेज दिया, जो ‘प्रकाश का आणविक विकिरण’ शीर्षक से सन् 1922 में प्रकाशित हुआ। सागर के नीलेपन ने उस वैज्ञानिक को भौतिकी संबंधी एक अति महत्वपूर्ण खोज के लिए प्रेरित किया। जिसकी चर्चा आगे की जायेगी।

 

क्या आप जानतें हैं कि वह भारतीय वैज्ञानिक कौन थे? वह विलक्षण भारतीय वैज्ञानिक थे – सर चंद्रशेखर वेंकटरमन।

 

वेंकटरमन का जन्म 7 नवम्बर, 1888 में तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली जिले के एक छोटे से गांव थिरुवनैक्कवल में हुआ था। उनके पिता का नाम चन्द्रशेखर अय्यर था जो भौतिकी व गणित के अत्यंत विद्वान अध्यापक माने जाते थे। तथा उनकी माता का नाम पार्वती अम्मल था।

 

शिक्षा-


वेंकटरमन को आरंभिक शिक्षा विशाखापट्नम में प्राप्त हुई। वह पढ़ाई में बहुत होनहार थे। आश्चर्यजनक बात है कि उन्होंने मात्र ग्यारह वर्ष की आयु में ही दसवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण कर ली थी। इतनी कम आयु में दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले वेंकटरमन भारत के पहले छात्र थे। वर्ष 1901 में इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् उन्होंने चेन्नई के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उस समय उनकी आयु मात्र 13 वर्ष थी।

 

जब वेंकटरमन स्नातक कक्षा में पहुंचे तो अध्यापकों ने समझा यह बालक गलती से इस कक्षा में आ गया है। एक अध्यापक ने उनसे यह पूछा, ‘क्या तुम वास्तव में इस कक्षा (स्नातक) के विद्यार्थी हो ?’ जब वेंकटरमन ने हाँ में जवाब दिया तो अध्यापक के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। सन् 1904 में स्नातक (बी.ए.) की उपाधि अर्जित करने के बाद उन्होंने आगे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेश जाने का निर्णय किया। मगर वेंकटरमन के स्वास्थ्य से संबंधित परीक्षण के बाद एक ब्रिटिश चिकित्सक ने उनकी दुर्बलता को देखते हुए विदेश न जाने की सलाह दी। इसलिए वे उच्च शिक्षा के लिए विदेश न जा सके और उन्होनें प्रेसीडेंसी कॉलेज में ही दाखिला लेने के बाद सन् 1907 में भौतिकी में परास्नातक (एम.ए.) की उपाधि ली। चूँकि उच्च शिक्षा के लिए वे विदेश नही जा सकते थे, इसलिए वह अखिल भारतीय एकाउंट्स सेवा प्रतियोगिता परीक्षा में बैठे और उसमें भी प्रथम स्थान प्राप्त किया। मात्र 19 वर्ष की आयु में ही सहायक एकाउंटेंट जनरल के पद पर वित्त विभाग, कलकत्ता में नियुक्ति पाई। इसी वर्ष (नियुक्ति से पहले) श्रीकृष्ण अय्यर की कन्या लोकसुन्दरी अम्मल से उनका विवाह भी हो गया।

 

कार्य-


वेंकटरमन के जीवन के उस कालखंड को देखा जाए तो ऐसा प्रतीत होने लगता है कि वेंकटरमन वित्त विभाग की नौकरी से सन्तुष्ट हो गए थे और भौतिकी की अद्भुत् दुनिया से दूर हो गए थे। परंतु ऐसा नहीं हुआ नौकरी करते हुए भी उनकी रूचि भौतिकी में बनी रही। वास्तविकता में उनका मन वित्त विभाग की नौकरी में बिलकुल भी नहीं लगता था। एक दिन वेंकटरमन कार्यालय से घर लौट रहे थे तभी इत्तफाक से उन्होनें एक संस्था का साइन बोर्ड देखा, जिस पर लिखा था- ‘द इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्टीवेशन आफ़ साइंस’। तभी वे ट्राम से उतरकर सीधे उस संस्था में जा पहुंचे। उस संस्था की स्थापना महेंद्र लाल सरकार ने की थी और उसकी देखरेख आशुतोष डे करते थे। पहली ही मुलाकात में अमृत लाल (संस्था के सचिव) ने वेंकटरमन की वैज्ञानिक प्रतिभा को समझ लिया और भारतीय विज्ञान को प्रोत्साहित करने वाली इस संस्था में उनका स्वागत किया तथा प्रयोगशाला में कार्य करने की अनुमति भी दे दी। उसके बाद वेंकटरमन ने इसी प्रयोगशाला में भौतिकी के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण शोध-कार्य किये।

 

भौतिकी के क्षेत्र में वेंकटरमन के उच्च कोटि के कार्यो से प्रभावित होकर कलकत्ता विश्वविद्यालय के तत्कालीन उपकुलपति सर आशुतोष मुखर्जी ने उन्हें भौतिकी के अध्यापक के रूप में पढ़ाने का प्रस्ताव रखा। वेंकटरमन ने इस प्रस्ताव को तुरंत मंजूर कर लिया। अगले ही दिन लगी-लगाई वित्त विभाग में सरकारी नौकरी से त्याग पत्र दे दिया और विज्ञान की सेवा के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करने लगे। चूँकि यह कार्य विज्ञान से संबंधित था, इसलिए उन्हें इस कार्य से अपार संतुष्टि मिली। उनकी पढ़ाने की शैली बहुत अच्छी थी। उनके मस्तिष्क में अद्भुत् चुस्ती थी। एक ओर जहाँ वे पूरी तन्मयता से विद्यार्थियों को पढ़ाते तो वहीं दूसरी ओर पूरी तन्मयता से वाद्ययंत्रों, क्रिस्टलों, एक्स-रे, प्रकाश, विद्युत चुम्बकत्व आदि पर महत्वपूर्ण अनुसन्धान कार्य करते रहते थे। उन्होंने अपनें प्रयोगों के लिए कई उपकरणों का निर्माण स्वयं किया और अनुसंधान के लिए विश्वविद्यालय में विज्ञानमय माहौल भी निर्मित किया।

 

रमन प्रभाव-


सन् 1921 में वेंकटरमन को ऑक्सफोर्ड, इंग्लैंड से विश्वविद्यालयीन कांग्रेस में भाग लेने के लिए निमंत्रण प्राप्त हुआ। वहाँ उनकी मुलकात लार्ड रदरफोर्ड, जे. जे. थामसन जैसे विश्वविख्यात वैज्ञानिकों से हुई। इंग्लैंड से भारत लौटते समय एक अनपेक्षित घटना के कारण (जिसका वर्णन इस लेख के आरंभ में किया गया है) ‘रमन प्रभाव’ की खोज के लिए प्रेरणा मिली। दरअसल, कलकत्ता विश्वविद्यालय पहुँचकर वेंकटरमन ने अपनें सहयोगी डॉ. के. एस. कृष्णन के साथ मिलकर जल तथा बर्फ के पारदर्शी प्रखंडों (ब्लॉक्स) एवं अन्य पार्थिव वस्तुओं के ऊपर प्रकाश के प्रकीर्णन पर अनेक प्रयोग किए। तमाम प्रयोगों के बाद वेंकटरमन अपनी उस खोज पर पहुँचे, जो ‘रमन प्रभाव’ नाम से विश्वविख्यात है। आप सोच रहे होंगें कि आखिर ये रमन प्रभाव क्या है और भौतिकी की दुनिया में इसका कितना प्रभाव है? रमन प्रभाव के अनुसार जब एक-तरंगीय प्रकाश (एक ही आवृत्ति का प्रकाश) को विभिन्न रसायनिक द्रवों से गुजारा जाता है, तब प्रकाश के एक सूक्ष्म भाग की तरंग-लंबाई मूल प्रकाश के तरंग-लंबाई से भिन्न होती है। तरंग-लंबाई में यह भिन्नता ऊर्जा के आदान-प्रदान के कारण होता है। जब ऊर्जा में कमी होती है तब तरंग-लंबाई अधिक हो जाता है तथा जब ऊर्जा में बढोत्तरी होती है तब तरंग-लंबाई कम हो जाता है। यह ऊर्जा सदैव एक निश्चित मात्रा में कम-अधिक होती रहती है और इसी कारण तरंग-लंबाई में भी परिवर्तन सदैव निश्चित मात्रा में होता है। दरअसल, प्रकाश की किरणें असंख्य सूक्ष्म कणों से मिलकर बनी होती हैं, इन कणों को वैज्ञानिक ‘फोटोन’ कहते हैं। वैसे हम जानतें हैं कि प्रकाश की दोहरी प्रकृति है यह तरंगों की तरह भी व्यवहार करता है और कणों (फोटोनों) की भी तरह। रमन प्रभाव ने फोटोनों के ऊर्जा की आन्तरिक परमाण्विक संरचना को समझने में विशेष सहायता की है। किसी भी पारदर्शी द्रव में एक ही आवृत्ति वाले प्रकाश को गुजारकर ‘रमन स्पेक्ट्रम’ प्राप्त किया जा सकता है। प्रत्येक पारदर्शी द्रव को स्पेक्ट्रोग्राफ में प्रवेशित करने के बाद वैज्ञानिकों को यह पता चला कि किसी भी द्रव का रमन स्पेक्ट्रम विशिष्ट होता है, यानी किसी अन्य द्रव का स्पेक्ट्रम वैसा नहीं होता है। इसके जरिये हम किसी भी पदार्थ की आंतरिक संरचना के बारे में भी जान सकतें हैं। उन दिनों भौतिकी में यह एक विस्मयकारी खोज थी। वेंकटरमन की इस खोज ने क्वांटम भौतिकी के क्षेत्र में भी अत्यंत क्रांतिकारी परिवर्तन लाया। रमन प्रभाव की खोज वेंकटरमन के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।

 

वेंकटरमन ने 28 फरवरी, 1928 को रमन प्रभाव के खोज की आम घोषणा की थी। इसलिए इस महत्वपूर्ण खोज की याद में प्रत्येक वर्ष यह दिन ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। देश-विदेश में वेंकटरमन के इस खोज को न सिर्फ खूब सराहा गया वरन् कई तरह के पुरस्कारों से सम्मानित भी किया गया। सन् 1929 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि से विभूषित किया। वेंकटरमन को सन् 1930 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। गौरतलब है कि वेंकटरमन पहले ऐसे एशियाई और अश्वेत वैज्ञानिक थे जिन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। सन् 1952 में उनके पास भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति बनने का निमंत्रण आया। इस पद के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों ने उनके नाम का ही समर्थन किया था। इसलिए वेंकटरमन को निर्विवाद उपराष्ट्रपति चुना जाना पूर्णतया निश्चित था, परंतु वेंकटरमन में तनिक भी पद-लोलुपता नहीं थी और साथ-ही-साथ उनकी राजनीति में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी। इसलिए उन्होंने उपराष्ट्रपति बनने के निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। सन् 1954 में भारत सरकार ने उन्हें अपने सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से भी विभूषित किया। गौरतलब है कि वेंकटरमन पहले ऐसे भारतीय वैज्ञानिक थे जिन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया था।

 

भारत में रहकर वेंकटरमन आजीवन शोधकार्यों में लगे रहे। 21 नवंबर, 1970 को 82 वर्ष की आयु में भारत में वैज्ञानिक अनुसन्धान करके गौरवान्वित करनेवाले सर चंद्रशेखर वेंकटरमन का निधन हो गया। आज वे हमारे बीच न होकर भी अपनी वैज्ञानिक खोज ‘रमन प्रभाव’ के लिए याद किए जाते हैं।