मूल्य विकसित करने में परिवार की भूमिका (Role of family in developing value)
Posted on March 27th, 2020
मूल्य विकसित करने में परिवार की भूमिका (Role of family in developing value)
मूल्य विकसित करने में परिवार नामक संस्था सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वास्तव में परिवार ही वह संस्था है जहाँ मनुष्य जीवन के बुनियादी मूल्य सीखता है। परिवार केवल मूल्य को ही विकसित नहीं करता, बल्कि मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व का निर्माण करता है। परिवार नामक संस्था विवाह से प्रारम्भ होती है। विवाह स्वयं एक संस्था है। इसका प्रारम्भ स्त्री एवं पुरुष के पारस्परिक संबंध से होता है। बच्चों का जन्म भारतीय समाज में प्रायः विवाह के बाद ही होता है। बच्चा जिस परिवेश में अपना जीवन प्रारम्भ करता है वह माता-पिता के आपसी संबंध पर निर्भर करता है। यदि माता-पिता के आपसी संबंधी सामंजस्यपूर्ण नहीं है तो उसका प्रभाव बच्चे पर पड़ता है। अर्थात् बच्चा प्रारंभ में वही कुछ सीखता है, जो अभिभावक करते हैं। बच्चे के क्रमिक रूप से विकसित होने के साथ-साथ उसका संबंध अपने अभिभावक से साक्षात रीति से होने लगता है। अर्थात् बच्चा अभिभावक से सीधे संपर्क में होता है।अभिभावक ही सर्वप्रथम बच्चे को सही और गलत की अवधारणा देते हैं। बच्चा प्रारम्भ में साफ स्लेट की भांति होता है, जिस पर मूल्यों का प्रथम पाठ अभिभावक ही लिखते हैं। अभिभावकों में जिस प्रकार का मूल्य विद्यमान होता है, वह परोक्ष या अपरोक्ष रूप से बच्चों में चला जाता है। वास्तव में बच्चा अभिभावकों के कथनों से नहीं, बल्कि कृत्यों से प्रभावित होते हैं। बच्चों में सीखने की अद्भुत क्षमता होती है। ढ़ाई वर्ष का बच्चा पूरी भाषा सीख लेता है। प्रायः बच्चे उस पर विशेष ध्यान देते हैं,जो अभिभावक करते हैं न कि उस पर जो वे कहते हैं। इसलिए बच्चों में मूल्य विकास के संदर्भ में अभिभावकों को स्वयं बहुत त्याग करना होता है। भारतीय परिवार में अभिभावक प्राय: इतने सजग नहीं होते या फिर वो अपने दायित्व को इतनी गम्भीरता से नहीं लेते।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारतीय परिवार संयुक्त परिवार से धीरे-धीरे एकल परिवार में परिणत हो रहे हैं। संयुक्त परिवार की अपनी कुछ समस्याएं हैं जैसे-बड़ा आवास,बड़ी आमदनी आदि। प्रायः: संयुक्त परिवार में कुछ ही व्यक्ति धनोपार्जन करते हैं,जबकि परिवार के अन्य सदस्य उन पर आश्रित रहते हैं। ऐसी स्थिति में संयुक्त परिवार बिखरने लगते हैं। नगरों एवं महानगरों में यह समस्य अत्यंत जटिल है। यहाँ संयुक्त परिवार की बुनियादी आवश्यकताएं पूरी करना संभव प्रतीत नहीं होता।इसलिए नगरीय जीवन में प्रायः एकल परिवार हैं।
एकल परिवार की समस्या यह है कि कई ऐसे परिवार हैं जिसमें पति-पत्नी दोनों रोजगार में हैं। ऐसी स्थिति में घर के छोटे बच्चे नौकर या आया पर निर्भर रहते हैं,जिससे बहुत बेहतर मूल्यों की अपेक्षा नहीं की जा सकती। संयुक्त परिवार में पहले यह कार्य दादा-दादी द्वारा संपन्न होता था। पाश्चात्य समाज में छोटे बच्चों की देख-रेख के लिए 'क्रच' नामक संस्था अस्तित्व में आई है। भारत में इस संस्था के प्रचार-प्रसार की अत्यधिक आवश्यकता है। ऐसे बच्चे जो माता-पिता दोनों के अभाव में दिन का लम्बा समय व्यतीत करते हैं वे एकाकी, व्यक्तिवादी एवं उद्दविग्न हो जाते हैं। उन्हें मानसिक पोषण नहीं प्राप्त हो पाता, जिससे उनका व्यक्तित्व प्रभावित होता है।
नगरीय जीवन प्रायः बहुत व्यस्त होता है, जिसके फलस्वरूप अभिभावकों को अपने बच्चों के लिए समय निकालना कठिन होता है। बच्चे एवं अभिमावक में स्वस्थ संवाद नहीं हो पाता। प्रायः अभिभावक स्वयं तनाव में रहते हैं, जिसका प्रभाव बच्चे के व्यक्तित्व पर पड़ता है। अभिभावक इस कमी को खाने-पीने की चीजें और उपहार आदि से पूरा करने का प्रयास करते हैं, जो उचित समाधान नहीं है और उससे अन्य समस्याएं उत्पन्न होती हैं। बच्चों में प्रायः मोटापा, मानसिक तनाव और वस्तुओं की अधिकाधिक मांग की प्रवृत्ति विकसित हो जाती है। वास्तव में भारतीय समाज प्रतियोगितावादी हो गया है, जो उदारवादी लोकतंत्र की देन है, जहाँ व्यक्ति को एकांकी परिभाषित किया जाता है। आज उसी समस्या को दूर करने का हम प्रयास करते हैं।
मूल्य विकसित करने में परिवार की भूमिका (Role of family in developing value)
मूल्य विकसित करने में परिवार की भूमिका (Role of family in developing value)
मूल्य विकसित करने में परिवार नामक संस्था सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वास्तव में परिवार ही वह संस्था है जहाँ मनुष्य जीवन के बुनियादी मूल्य सीखता है। परिवार केवल मूल्य को ही विकसित नहीं करता, बल्कि मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व का निर्माण करता है। परिवार नामक संस्था विवाह से प्रारम्भ होती है। विवाह स्वयं एक संस्था है। इसका प्रारम्भ स्त्री एवं पुरुष के पारस्परिक संबंध से होता है। बच्चों का जन्म भारतीय समाज में प्रायः विवाह के बाद ही होता है। बच्चा जिस परिवेश में अपना जीवन प्रारम्भ करता है वह माता-पिता के आपसी संबंध पर निर्भर करता है। यदि माता-पिता के आपसी संबंधी सामंजस्यपूर्ण नहीं है तो उसका प्रभाव बच्चे पर पड़ता है। अर्थात् बच्चा प्रारंभ में वही कुछ सीखता है, जो अभिभावक करते हैं। बच्चे के क्रमिक रूप से विकसित होने के साथ-साथ उसका संबंध अपने अभिभावक से साक्षात रीति से होने लगता है। अर्थात् बच्चा अभिभावक से सीधे संपर्क में होता है।अभिभावक ही सर्वप्रथम बच्चे को सही और गलत की अवधारणा देते हैं। बच्चा प्रारम्भ में साफ स्लेट की भांति होता है, जिस पर मूल्यों का प्रथम पाठ अभिभावक ही लिखते हैं। अभिभावकों में जिस प्रकार का मूल्य विद्यमान होता है, वह परोक्ष या अपरोक्ष रूप से बच्चों में चला जाता है। वास्तव में बच्चा अभिभावकों के कथनों से नहीं, बल्कि कृत्यों से प्रभावित होते हैं। बच्चों में सीखने की अद्भुत क्षमता होती है। ढ़ाई वर्ष का बच्चा पूरी भाषा सीख लेता है। प्रायः बच्चे उस पर विशेष ध्यान देते हैं,जो अभिभावक करते हैं न कि उस पर जो वे कहते हैं। इसलिए बच्चों में मूल्य विकास के संदर्भ में अभिभावकों को स्वयं बहुत त्याग करना होता है। भारतीय परिवार में अभिभावक प्राय: इतने सजग नहीं होते या फिर वो अपने दायित्व को इतनी गम्भीरता से नहीं लेते।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारतीय परिवार संयुक्त परिवार से धीरे-धीरे एकल परिवार में परिणत हो रहे हैं। संयुक्त परिवार की अपनी कुछ समस्याएं हैं जैसे-बड़ा आवास,बड़ी आमदनी आदि। प्रायः: संयुक्त परिवार में कुछ ही व्यक्ति धनोपार्जन करते हैं,जबकि परिवार के अन्य सदस्य उन पर आश्रित रहते हैं। ऐसी स्थिति में संयुक्त परिवार बिखरने लगते हैं। नगरों एवं महानगरों में यह समस्य अत्यंत जटिल है। यहाँ संयुक्त परिवार की बुनियादी आवश्यकताएं पूरी करना संभव प्रतीत नहीं होता।इसलिए नगरीय जीवन में प्रायः एकल परिवार हैं।
एकल परिवार की समस्या यह है कि कई ऐसे परिवार हैं जिसमें पति-पत्नी दोनों रोजगार में हैं। ऐसी स्थिति में घर के छोटे बच्चे नौकर या आया पर निर्भर रहते हैं,जिससे बहुत बेहतर मूल्यों की अपेक्षा नहीं की जा सकती। संयुक्त परिवार में पहले यह कार्य दादा-दादी द्वारा संपन्न होता था। पाश्चात्य समाज में छोटे बच्चों की देख-रेख के लिए 'क्रच' नामक संस्था अस्तित्व में आई है। भारत में इस संस्था के प्रचार-प्रसार की अत्यधिक आवश्यकता है। ऐसे बच्चे जो माता-पिता दोनों के अभाव में दिन का लम्बा समय व्यतीत करते हैं वे एकाकी, व्यक्तिवादी एवं उद्दविग्न हो जाते हैं। उन्हें मानसिक पोषण नहीं प्राप्त हो पाता, जिससे उनका व्यक्तित्व प्रभावित होता है।
नगरीय जीवन प्रायः बहुत व्यस्त होता है, जिसके फलस्वरूप अभिभावकों को अपने बच्चों के लिए समय निकालना कठिन होता है। बच्चे एवं अभिमावक में स्वस्थ संवाद नहीं हो पाता। प्रायः अभिभावक स्वयं तनाव में रहते हैं, जिसका प्रभाव बच्चे के व्यक्तित्व पर पड़ता है। अभिभावक इस कमी को खाने-पीने की चीजें और उपहार आदि से पूरा करने का प्रयास करते हैं, जो उचित समाधान नहीं है और उससे अन्य समस्याएं उत्पन्न होती हैं। बच्चों में प्रायः मोटापा, मानसिक तनाव और वस्तुओं की अधिकाधिक मांग की प्रवृत्ति विकसित हो जाती है। वास्तव में भारतीय समाज प्रतियोगितावादी हो गया है, जो उदारवादी लोकतंत्र की देन है, जहाँ व्यक्ति को एकांकी परिभाषित किया जाता है। आज उसी समस्या को दूर करने का हम प्रयास करते हैं।