मूल्य विकसित करने में शैक्षणिक संस्थाओं की भूमिका (Role of educational institutions in developing value)
Posted on March 27th, 2020
मूल्य विकसित करने में शैक्षणिक संस्थाओं की भूमिका (Role of educational institutions in developing value)
मूल्यों की स्थापाना में शैक्षणिक संस्थाओं की भी भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण है।वास्तव में बच्चा परिवार के पश्चात् शिक्षण संस्थाओं से ही सर्वाधिक सीखता है। वह शिक्षक की बात को अकाट्य मानता है। भारत में शिक्षा व्यवस्था की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। केन्द्र सरकार प्राथमिक शिक्षा एवं उच्च शिक्षा पर तो समुचित ध्यान रखती है लेकिन उच्चतर शिक्षा उपेक्षित है। प्राथमिक शिक्षा से संबंधित अनेक कठिनाइयां हैं। प्रायः सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के बच्चे प्राथमिक शिक्षा के दौरान ही विद्यालय छोड़ देते हैं। इनकी उपस्थिति बनाए रखने के लिए केन्द्र सरकार कुछ योजनाएं संचालित करती है जिससे कुछ आंशिक सुधार हुआ है।प्राथमिक शिक्षा पर और अधिक बल देने की आवश्यकता है। उच्च शिक्षा पर पर्याप्त प्रयास किया गया है लेकिन उच्चतर शिक्षाओं पर अभी भी संसाधनों का अभाव है।
भारतीय शिक्षा व्यवस्था की समस्या दोहरी शिक्षा नीति है। एक तरफ क्षेत्रीय भाषाओं में सरकारी विद्यालय हैं, दूसरी तरफ अंग्रेजी माध्यम में निजी विद्यालय हैं जिनकी गुणवत्ता का स्तर उच्च है। ऐसी स्थिति में एकीकृत शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता को लंबे समय से अनुभव किया जा रहा है लेकिन अभी तक इस पर कोई सकारात्मक योजना नहीं बन सकी। विभिन्न क्षेत्रीय विद्यालयों में पाठ्यक्रम की भिन्नता भी विवाद का विषय बना हुआ है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था में व्यापक सुधार की आवश्यकता है।
जहाँ तक मूल्यों की स्थापना का प्रश्न है। सरकारी विद्यालयों की पाठ्यपुस्तकों में मूल अधिकार एवं कर्तव्य से संबंधित जानकारी के लिए एक पृष्ठ जोड़ा जाता है तथा शिक्षकों से अपेक्षा की जाती है कि वे बच्चों को अधिकार एवं कर्तव्य की जानकारी देंगे लेकिन यह प्रयास अभी तक औपचारिक ही रहा है। बच्चों में नैतिक मूल्यों के लिए कुछ राज्यों ने अपने पाठ्यक्रम में नेतिक शिक्षा का भी प्रावधान किया गया था। लेकिन अकारण ही इसे पाठ्यक्रम से हटा दिया गया। वास्तव में जिस प्रकार के नेतिक मूल्यों की आवश्यकता है उसके लिए किसी विशेष नैतिक शिक्षा की अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है। यदि शिक्षक अपने उत्तरदायित्व को भलीभांति पूरा करते हैं, ये मूल्य स्वतः ही विद्यार्थियों को हस्तांतरित हो जाते हैं। इस सन्दर्भ में शिक्षकों को विशेष प्रशिक्षण दिए जाने की आवश्यकता है। बुनियादी मूल्यों से संबंधित कार्ययोजना का एक प्रारूप पूर्णतः परिभाषित होना चाहिए जो विभिन्न संदर्भों में विभिन्न विषय अध्यापकों द्वारा सुनिश्चित किया जाना चाहिए। शिक्षण संस्थाएं प्रायः बच्चों को विषयगत जानकारी देती हैं लेकिन इन विषयों से संबंधित मूल्यपरक जानकारी का विकास किस प्रकार किया जाना चाहिए, इसकी जानकारी अध्यापकों को स्वयं नहीं होतीं। इस पर एक कार्ययोजना की आवश्यकता है जो संक्षिप्त एवं प्रभावी हो।
वास्तव में सभी समस्याएं अंततः प्रशासन से जुड़ जाती हैं। प्रशासन की शिथिलता के कारण ही कार्य योजनाओं का पूर्ण लाभ नहीं मिल पाता। प्रायः जिलाधिकारी या उप-जिलाधिकारी विद्यालयों का सर्वेक्षण नहीं करते और न ही वास्तविक स्थिति को जानने का प्रयास करते हैं। इस सन्दर्भ में प्रशासनिक सक्रियता की अत्यधिक आवश्यकता है। आज आवश्यकता जनपद के प्रशासन को गाँव तक पहुंचाने की है। ब्रिटिश काल में इस प्रकार के उदाहरण देखने को मिलते थे जिसे पुनः प्रभावी बनाने की आवश्यकता है।
मूल्य विकसित करने में शैक्षणिक संस्थाओं की भूमिका (Role of educational institutions in developing value)
मूल्य विकसित करने में शैक्षणिक संस्थाओं की भूमिका (Role of educational institutions in developing value)
मूल्यों की स्थापाना में शैक्षणिक संस्थाओं की भी भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण है।वास्तव में बच्चा परिवार के पश्चात् शिक्षण संस्थाओं से ही सर्वाधिक सीखता है। वह शिक्षक की बात को अकाट्य मानता है। भारत में शिक्षा व्यवस्था की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। केन्द्र सरकार प्राथमिक शिक्षा एवं उच्च शिक्षा पर तो समुचित ध्यान रखती है लेकिन उच्चतर शिक्षा उपेक्षित है। प्राथमिक शिक्षा से संबंधित अनेक कठिनाइयां हैं। प्रायः सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के बच्चे प्राथमिक शिक्षा के दौरान ही विद्यालय छोड़ देते हैं। इनकी उपस्थिति बनाए रखने के लिए केन्द्र सरकार कुछ योजनाएं संचालित करती है जिससे कुछ आंशिक सुधार हुआ है।प्राथमिक शिक्षा पर और अधिक बल देने की आवश्यकता है। उच्च शिक्षा पर पर्याप्त प्रयास किया गया है लेकिन उच्चतर शिक्षाओं पर अभी भी संसाधनों का अभाव है।
भारतीय शिक्षा व्यवस्था की समस्या दोहरी शिक्षा नीति है। एक तरफ क्षेत्रीय भाषाओं में सरकारी विद्यालय हैं, दूसरी तरफ अंग्रेजी माध्यम में निजी विद्यालय हैं जिनकी गुणवत्ता का स्तर उच्च है। ऐसी स्थिति में एकीकृत शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता को लंबे समय से अनुभव किया जा रहा है लेकिन अभी तक इस पर कोई सकारात्मक योजना नहीं बन सकी। विभिन्न क्षेत्रीय विद्यालयों में पाठ्यक्रम की भिन्नता भी विवाद का विषय बना हुआ है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था में व्यापक सुधार की आवश्यकता है।
जहाँ तक मूल्यों की स्थापना का प्रश्न है। सरकारी विद्यालयों की पाठ्यपुस्तकों में मूल अधिकार एवं कर्तव्य से संबंधित जानकारी के लिए एक पृष्ठ जोड़ा जाता है तथा शिक्षकों से अपेक्षा की जाती है कि वे बच्चों को अधिकार एवं कर्तव्य की जानकारी देंगे लेकिन यह प्रयास अभी तक औपचारिक ही रहा है। बच्चों में नैतिक मूल्यों के लिए कुछ राज्यों ने अपने पाठ्यक्रम में नेतिक शिक्षा का भी प्रावधान किया गया था। लेकिन अकारण ही इसे पाठ्यक्रम से हटा दिया गया। वास्तव में जिस प्रकार के नेतिक मूल्यों की आवश्यकता है उसके लिए किसी विशेष नैतिक शिक्षा की अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है। यदि शिक्षक अपने उत्तरदायित्व को भलीभांति पूरा करते हैं, ये मूल्य स्वतः ही विद्यार्थियों को हस्तांतरित हो जाते हैं। इस सन्दर्भ में शिक्षकों को विशेष प्रशिक्षण दिए जाने की आवश्यकता है। बुनियादी मूल्यों से संबंधित कार्ययोजना का एक प्रारूप पूर्णतः परिभाषित होना चाहिए जो विभिन्न संदर्भों में विभिन्न विषय अध्यापकों द्वारा सुनिश्चित किया जाना चाहिए। शिक्षण संस्थाएं प्रायः बच्चों को विषयगत जानकारी देती हैं लेकिन इन विषयों से संबंधित मूल्यपरक जानकारी का विकास किस प्रकार किया जाना चाहिए, इसकी जानकारी अध्यापकों को स्वयं नहीं होतीं। इस पर एक कार्ययोजना की आवश्यकता है जो संक्षिप्त एवं प्रभावी हो।
वास्तव में सभी समस्याएं अंततः प्रशासन से जुड़ जाती हैं। प्रशासन की शिथिलता के कारण ही कार्य योजनाओं का पूर्ण लाभ नहीं मिल पाता। प्रायः जिलाधिकारी या उप-जिलाधिकारी विद्यालयों का सर्वेक्षण नहीं करते और न ही वास्तविक स्थिति को जानने का प्रयास करते हैं। इस सन्दर्भ में प्रशासनिक सक्रियता की अत्यधिक आवश्यकता है। आज आवश्यकता जनपद के प्रशासन को गाँव तक पहुंचाने की है। ब्रिटिश काल में इस प्रकार के उदाहरण देखने को मिलते थे जिसे पुनः प्रभावी बनाने की आवश्यकता है।