किसी भी देश की सामाजिक /आर्थिक प्रगति के लिए उस देश के प्रत्येक वर्ग का योगदान होना बहुत आवश्यक होता है। समाज के पिछड़े एवं शोषित तबकों के लिए बिना अवसरों की समानता उपलब्ध करवाये, भारत जैसे विविधता भरे देश का सम्पूर्ण विकास संभव नहीं है। यहां लगभग 18-20 प्रतिशत आबादी अनुसूचित जातियों एवं जनजाति के लोगों की है। यह वर्ग हजारों सालों से वर्णव्यवस्था और जातिप्रथा जैसी धार्मिक- सामाजिक रिवाजों द्वारा समाज में प्रताड़ित रहा है और इन वर्गों की आर्थिक- सामाजिक स्थिति काफी दयनीय है। इसी मूल समस्या को ध्यान में रखते हुए समाज के दबे और पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरियों एवं शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान किया गया है लेकिन यह आरक्षण सिर्फ नौकरियों में प्रवेश को लेकर ही निर्धारित था, प्रोन्नति में नहीं।कालान्तर में यह व्यवस्था भी की गयी तथा लगातार विवादों में रही।
हाल ही में यह विषय तब चर्चा में आ गया जब केन्द्र सरकार द्वारा दायर एक पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते हुए देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने अंतरिम आदेश के माध्यम से सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति में आरक्षण पर लगी रोक को हटा दिया। अदालत ने केन्द्र सरकार को निर्देश दिया है कि इस मामले में बड़ी बेंच का अंतिम फैसला आने तक सरकार प्रमोशन में आरक्षण की सुविधा को जारी रख सकती है।
दरअसल अनु. जाति एवं अनु. जनजाति की वर्तमान सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए केन्द्र ने सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय ( नागराज केस 2006) को चुनौती देते हुए एक पुनर्विचार याचिका दायर की थी । जिस पर सुनवाई करते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह अंतरिम आदेश जारी किया है। सरकार ने अपने पक्ष में तर्क रखते हुए कहा कि वह यह तो नहीं कहती कि इस वर्ग को प्रमोशन में आरक्षण दिया जाना चाहिए अथवा नहीं पर यह वर्ग पिछले 1000 वर्षों से पिछड़ा हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से इस संबंध में अनु. जाति एवं अनु. जनजाति के पिछड़े होने और उन्हें प्रमोशन में आरक्षण दिए जाने के बाद वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था पर कोई नकारात्मक असर न पड़ने संबंधी ( ऐसा सिध्द करने वाले) आंकड़े प्रस्तुत करने को कहा है। जिसके जबाब में केन्द्र ने कहा कि – जब एक बार (भर्ती के समय) उनका पिछड़ापन स्वीकार कर लिया गया है तो बार-बार उसके सिध्द किए जाने की क्या आवश्यकता है। इस मामले की अगली सुनवाई 13 अगस्त को होनी थी, जो फिलहाल अपरिहार्य कारणों की वजह से टाल दी गई है।
भारतीय संविधान में दलित, शोषित, वंचित एवं आदिवासी समुदाय के हितों की रक्षा तथा समतामूलक समाज की स्थापना के उद्देश्य से अनु. जाति एवं अनु. जनजाति के लिए सरकारी नौकरियों की भर्ती में आरक्षण की विशेष सुविधा दी गई है। प्रारंभ में इसका प्रावधान सिर्फ शुरुआती 10 वर्षों के लिए ही किया गया था, लेकिन बाद में इसके आपेक्षित परिणाम न मिलने के कारण तब से लेकर अब तक इसे हर बार अगले 10 वर्ष के लिए बढ़ाया जाता रहा है। हालाकि पदों में भर्ती में आरक्षण से इस वर्ग के समाज की मुख्य धारा में प्रवेश करने का मार्ग तो सुगम हो गया है, लेकिन प्रमोशन में आरक्षण न मिल पाने की वजह से यह तबका सरकारी नौकरियों में भी निचले पदों पर ही रह जा रहा है। इसीलिए उच्चस्थ पदों पर प्रतिनिधित्व की अल्पता को भांपते हुए कालांतर में प्रोन्नति में भी आरक्षण की मांग उठने लगी । सबसे पहले वर्ष 1955 में सरकारी पदों पर प्रोन्नति में आरक्षण की शुरुआत हुई। उसके बाद 1992 में सुप्रसिध्द मण्डल प्रकरण हुआ, जिसमें प्रोन्नति में आरक्षण को समाप्त कर दिया गया। साथ ही न्यायालय ने यह भी कहा कि प्रोन्नति में आरक्षण केवल 5 वर्षों तक (1997 तक) ही लागू रह सकता है। इसके बाद वर्ष 1995 में प्रोन्नति में आरक्षण के मामले में संविधान का 77वां संशोधन हुआ, जिसके माध्यम से अनुच्छेद-16 में क्लॉज 4 (ए) के तहत राज्यों को यह शक्ति प्रदान की गई, कि राज्य सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व न होने की स्थिति में राज्य के अंतर्गत सेवाओं में अनु. जाति एवं अनु. जनजाति को प्रोन्नति में आरक्षण दिया जा सकता है। एक अन्य मामले में संविधान के 85वें संशोधन के माध्यम से वर्ष 2001 में अनु. जाति एवं अनु. जनजाति को प्रोन्नति में आरक्षण के मसले पर अनुवर्ती वरीयता को शामिल किया गया। जिसे पूर्वगामी जून 1955 से प्रभावी माना गया। वर्ष 2006 में 77वें और 85वें संविधान संशोधन को बनाये रखने के साथ प्रसिध्द नागराज केस में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि – जब तक आंकड़ों के आधार पर यह तय नहीं हो जाता कि अनु. जाति और अनु. जनजाति का पर्याप्त प्रतिऩिधित्व नहीं है, या वे अब तक पिछड़े हुए हैं तथा उनको आरक्षण दिए जाने से ( प्रोन्नति में आरक्षण दिए जाने से) वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा, तब तक ( उनके बेहतर कैरियर रिकार्ड को ध्यान में रखते हुए) अनु. जाति एवं अनु. जनजाति को प्रमोशन में आरक्षण देने की छूट नहीं दी जा सकती। वर्ष 2012 में एक बार फिर न्यायालय द्वारा प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए उनका पिछड़ापन और प्रतिनिधित्व में कमी का सिध्द होना जरूरी बताया गया। इसी वर्ष( 21 अगस्त 2012) में ही प्रोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर 117वें संविधान संशोधन के लिए आम सहमति बनाने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई गई। जिसके बाद 5 सितम्बर 2012 को राज्यसभा में प्रोन्नति में आरक्षण बिल पेश किया गया। अंततः वर्ष 2017 में न्यायामूर्ति कुरियन जोसेफ की अगुवाई वाली पीठ ने प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे पर अपनी सकारात्मक सहमति जताते हुए, इस मुद्दे को फिर से बहस के केन्द्र में ला खड़ा किया और अब वर्ष 2018 में केन्द्र सरकार की पहल से माननीय सर्वोच्च न्यायालय नागराज प्रकरण पर दिए अपने फैसले पर पुनर्विचार कर रहा है।
पक्षकारों का कहना है कि- जैसा कि समाज में देखा जा सकता है, अनु. जाति और अनु. जनजाति के लोगों की सामाजिक-आर्थिक दशा अब तक इतनी सुदृढ़ नहीं हो सकी कि वह शीर्ष ब्यूरोक्रेसी में अपनी पर्याप्त उपस्थिति दर्ज करवाने सक्षम हो सकें। ऐसे में इस वर्ग को प्रोन्नति में आरक्षण दिया जाना अत्यावश्यक हो गया है। इससे जहां एक ओर प्रतिनिधित्व में कमी की समस्या का निवारण किया जा सकेगा वहीं दूसरी ओर इस वर्ग के सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक स्तर को भी सुधारा जा सकेगा। जिससे समतामूलक समाज की स्थापना के सिध्दांत को बल मिलेगा। सामाजिक और सांस्कृतिक आधारों पर उपेक्षित इस समुदाय को आर्थिक कारणों का हवाला देते हुए इन्हें प्रमोशन में आरक्षण से दूर रखना सर्वथा अनुचित प्रतीत होता है। साथ ही बार बार उन्हें पिछड़ा सिध्द करने की औपचारिकता नहीं होनी चाहिए, इससे इस वर्ग के आत्मसम्मान और भावनाओं को ठेस पहुंचती है।
वहीं दूसरी ओर प्रोन्नति में आरक्षण के विरोध में तर्क दिए जा रहे हैं कि- इससे वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्थाओं के असंतुलन का खतरा पैदा हो जायेगा, जिससे कुप्रबंधन, अव्यवस्था और अन्य आधारभूत नकारात्मक परिणाम देखने में सामने आ सकते हैं। वरिष्ठ, अनुभवी और श्रेष्ठतर प्रतिभाओं के होते हुए आरक्षण के नाम पर उनके साथ भेदभावपूर्ण बर्ताव और उनकी क्षमताओं के साथ समझौता बिल्कुल उचित प्रतीत नहीं होता और न ही सरकारी सेवाओं में (किसी भी स्थिति में ) 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण का प्रावधान किया जा सकता है।
इस संबंध में अब यदि केन्द्र सरकार वर्ष 2011 में हुई जाति आधारित जनगणना और उससे संबंधित अनु. जाति और अनु. जनजाति के पिछड़ेपन के आंकड़े सुप्रीम कोर्ट में पेश करती है, तो 5 के मुकाबले 7 जजों की खण्डपीठ द्वारा वर्ष 2006 के निर्णय को बदला जा सकता है तथा अनु. जाति एवं अनु. जनजाति के लोगों को प्रमोशन में आरक्षण के फैसले को अंतिम रूप दिया जा सकता है। साथ ही केन्द्र सरकार इस संबंध में संसद में अध्यादेश भी ला सकती है। जिससे अनु. जाति एवं अनु. जनजाति के लोगों के विकास के नए आयाम खुलेंगे।
किसी भी देश की सामाजिक /आर्थिक प्रगति के लिए उस देश के प्रत्येक वर्ग का योगदान होना बहुत आवश्यक होता है। समाज के पिछड़े एवं शोषित तबकों के लिए बिना अवसरों की समानता उपलब्ध करवाये, भारत जैसे विविधता भरे देश का सम्पूर्ण विकास संभव नहीं है। यहां लगभग 18-20 प्रतिशत आबादी अनुसूचित जातियों एवं जनजाति के लोगों की है। यह वर्ग हजारों सालों से वर्णव्यवस्था और जातिप्रथा जैसी धार्मिक- सामाजिक रिवाजों द्वारा समाज में प्रताड़ित रहा है और इन वर्गों की आर्थिक- सामाजिक स्थिति काफी दयनीय है। इसी मूल समस्या को ध्यान में रखते हुए समाज के दबे और पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरियों एवं शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान किया गया है लेकिन यह आरक्षण सिर्फ नौकरियों में प्रवेश को लेकर ही निर्धारित था, प्रोन्नति में नहीं।कालान्तर में यह व्यवस्था भी की गयी तथा लगातार विवादों में रही।
हाल ही में यह विषय तब चर्चा में आ गया जब केन्द्र सरकार द्वारा दायर एक पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते हुए देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने अंतरिम आदेश के माध्यम से सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति में आरक्षण पर लगी रोक को हटा दिया। अदालत ने केन्द्र सरकार को निर्देश दिया है कि इस मामले में बड़ी बेंच का अंतिम फैसला आने तक सरकार प्रमोशन में आरक्षण की सुविधा को जारी रख सकती है।
दरअसल अनु. जाति एवं अनु. जनजाति की वर्तमान सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए केन्द्र ने सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय ( नागराज केस 2006) को चुनौती देते हुए एक पुनर्विचार याचिका दायर की थी । जिस पर सुनवाई करते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह अंतरिम आदेश जारी किया है। सरकार ने अपने पक्ष में तर्क रखते हुए कहा कि वह यह तो नहीं कहती कि इस वर्ग को प्रमोशन में आरक्षण दिया जाना चाहिए अथवा नहीं पर यह वर्ग पिछले 1000 वर्षों से पिछड़ा हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से इस संबंध में अनु. जाति एवं अनु. जनजाति के पिछड़े होने और उन्हें प्रमोशन में आरक्षण दिए जाने के बाद वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था पर कोई नकारात्मक असर न पड़ने संबंधी ( ऐसा सिध्द करने वाले) आंकड़े प्रस्तुत करने को कहा है। जिसके जबाब में केन्द्र ने कहा कि – जब एक बार (भर्ती के समय) उनका पिछड़ापन स्वीकार कर लिया गया है तो बार-बार उसके सिध्द किए जाने की क्या आवश्यकता है। इस मामले की अगली सुनवाई 13 अगस्त को होनी थी, जो फिलहाल अपरिहार्य कारणों की वजह से टाल दी गई है।
भारतीय संविधान में दलित, शोषित, वंचित एवं आदिवासी समुदाय के हितों की रक्षा तथा समतामूलक समाज की स्थापना के उद्देश्य से अनु. जाति एवं अनु. जनजाति के लिए सरकारी नौकरियों की भर्ती में आरक्षण की विशेष सुविधा दी गई है। प्रारंभ में इसका प्रावधान सिर्फ शुरुआती 10 वर्षों के लिए ही किया गया था, लेकिन बाद में इसके आपेक्षित परिणाम न मिलने के कारण तब से लेकर अब तक इसे हर बार अगले 10 वर्ष के लिए बढ़ाया जाता रहा है। हालाकि पदों में भर्ती में आरक्षण से इस वर्ग के समाज की मुख्य धारा में प्रवेश करने का मार्ग तो सुगम हो गया है, लेकिन प्रमोशन में आरक्षण न मिल पाने की वजह से यह तबका सरकारी नौकरियों में भी निचले पदों पर ही रह जा रहा है। इसीलिए उच्चस्थ पदों पर प्रतिनिधित्व की अल्पता को भांपते हुए कालांतर में प्रोन्नति में भी आरक्षण की मांग उठने लगी । सबसे पहले वर्ष 1955 में सरकारी पदों पर प्रोन्नति में आरक्षण की शुरुआत हुई। उसके बाद 1992 में सुप्रसिध्द मण्डल प्रकरण हुआ, जिसमें प्रोन्नति में आरक्षण को समाप्त कर दिया गया। साथ ही न्यायालय ने यह भी कहा कि प्रोन्नति में आरक्षण केवल 5 वर्षों तक (1997 तक) ही लागू रह सकता है। इसके बाद वर्ष 1995 में प्रोन्नति में आरक्षण के मामले में संविधान का 77वां संशोधन हुआ, जिसके माध्यम से अनुच्छेद-16 में क्लॉज 4 (ए) के तहत राज्यों को यह शक्ति प्रदान की गई, कि राज्य सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व न होने की स्थिति में राज्य के अंतर्गत सेवाओं में अनु. जाति एवं अनु. जनजाति को प्रोन्नति में आरक्षण दिया जा सकता है। एक अन्य मामले में संविधान के 85वें संशोधन के माध्यम से वर्ष 2001 में अनु. जाति एवं अनु. जनजाति को प्रोन्नति में आरक्षण के मसले पर अनुवर्ती वरीयता को शामिल किया गया। जिसे पूर्वगामी जून 1955 से प्रभावी माना गया। वर्ष 2006 में 77वें और 85वें संविधान संशोधन को बनाये रखने के साथ प्रसिध्द नागराज केस में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि – जब तक आंकड़ों के आधार पर यह तय नहीं हो जाता कि अनु. जाति और अनु. जनजाति का पर्याप्त प्रतिऩिधित्व नहीं है, या वे अब तक पिछड़े हुए हैं तथा उनको आरक्षण दिए जाने से ( प्रोन्नति में आरक्षण दिए जाने से) वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा, तब तक ( उनके बेहतर कैरियर रिकार्ड को ध्यान में रखते हुए) अनु. जाति एवं अनु. जनजाति को प्रमोशन में आरक्षण देने की छूट नहीं दी जा सकती। वर्ष 2012 में एक बार फिर न्यायालय द्वारा प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए उनका पिछड़ापन और प्रतिनिधित्व में कमी का सिध्द होना जरूरी बताया गया। इसी वर्ष( 21 अगस्त 2012) में ही प्रोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर 117वें संविधान संशोधन के लिए आम सहमति बनाने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई गई। जिसके बाद 5 सितम्बर 2012 को राज्यसभा में प्रोन्नति में आरक्षण बिल पेश किया गया। अंततः वर्ष 2017 में न्यायामूर्ति कुरियन जोसेफ की अगुवाई वाली पीठ ने प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे पर अपनी सकारात्मक सहमति जताते हुए, इस मुद्दे को फिर से बहस के केन्द्र में ला खड़ा किया और अब वर्ष 2018 में केन्द्र सरकार की पहल से माननीय सर्वोच्च न्यायालय नागराज प्रकरण पर दिए अपने फैसले पर पुनर्विचार कर रहा है।
पक्षकारों का कहना है कि- जैसा कि समाज में देखा जा सकता है, अनु. जाति और अनु. जनजाति के लोगों की सामाजिक-आर्थिक दशा अब तक इतनी सुदृढ़ नहीं हो सकी कि वह शीर्ष ब्यूरोक्रेसी में अपनी पर्याप्त उपस्थिति दर्ज करवाने सक्षम हो सकें। ऐसे में इस वर्ग को प्रोन्नति में आरक्षण दिया जाना अत्यावश्यक हो गया है। इससे जहां एक ओर प्रतिनिधित्व में कमी की समस्या का निवारण किया जा सकेगा वहीं दूसरी ओर इस वर्ग के सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक स्तर को भी सुधारा जा सकेगा। जिससे समतामूलक समाज की स्थापना के सिध्दांत को बल मिलेगा। सामाजिक और सांस्कृतिक आधारों पर उपेक्षित इस समुदाय को आर्थिक कारणों का हवाला देते हुए इन्हें प्रमोशन में आरक्षण से दूर रखना सर्वथा अनुचित प्रतीत होता है। साथ ही बार बार उन्हें पिछड़ा सिध्द करने की औपचारिकता नहीं होनी चाहिए, इससे इस वर्ग के आत्मसम्मान और भावनाओं को ठेस पहुंचती है।
वहीं दूसरी ओर प्रोन्नति में आरक्षण के विरोध में तर्क दिए जा रहे हैं कि- इससे वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्थाओं के असंतुलन का खतरा पैदा हो जायेगा, जिससे कुप्रबंधन, अव्यवस्था और अन्य आधारभूत नकारात्मक परिणाम देखने में सामने आ सकते हैं। वरिष्ठ, अनुभवी और श्रेष्ठतर प्रतिभाओं के होते हुए आरक्षण के नाम पर उनके साथ भेदभावपूर्ण बर्ताव और उनकी क्षमताओं के साथ समझौता बिल्कुल उचित प्रतीत नहीं होता और न ही सरकारी सेवाओं में (किसी भी स्थिति में ) 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण का प्रावधान किया जा सकता है।
इस संबंध में अब यदि केन्द्र सरकार वर्ष 2011 में हुई जाति आधारित जनगणना और उससे संबंधित अनु. जाति और अनु. जनजाति के पिछड़ेपन के आंकड़े सुप्रीम कोर्ट में पेश करती है, तो 5 के मुकाबले 7 जजों की खण्डपीठ द्वारा वर्ष 2006 के निर्णय को बदला जा सकता है तथा अनु. जाति एवं अनु. जनजाति के लोगों को प्रमोशन में आरक्षण के फैसले को अंतिम रूप दिया जा सकता है। साथ ही केन्द्र सरकार इस संबंध में संसद में अध्यादेश भी ला सकती है। जिससे अनु. जाति एवं अनु. जनजाति के लोगों के विकास के नए आयाम खुलेंगे।