नीतिशास्त्र और राजनीति विज्ञान का संबंध (Relation of Ethics and Political Science)

Posted on March 15th, 2020 | Create PDF File

नीतिशास्त्र का संबंध राजनीति विज्ञान से भी है। यद्यपि राजनीति विज्ञान मानव-व्यवहार को प्रभावित एवं परिवर्तित करने का प्रयास करता है, जबकि नीतिशास्त्र इसके लिए केवल वैचारिक आदर्शमूलक प्रारूप प्रदान करने का प्रयास करता है। राजनीति विज्ञान के सामाजिक संविदा सिद्धान्त में मानव-व्यवहार को समझने का प्रयास किया गया है। सर्वप्रथम हॉब्स ने एक ऐसे काल्पनिक समाज की कल्पना की जिसमें प्रत्येक का प्रत्येक के विरुद्ध संघर्ष था तथा जहाँ जीवन संक्षिप्त, दीन-हीन एवं क्षणभंगुर था। ऐसी स्थिति में सभी ने आपस में एक संविदा की जिसमें अपने सभी अधिकार जीवन की सुरक्षा के लिए, एक विशेष व्यक्ति को प्रदान कर दिए तथा यह दिया गया अधिकार वापस न लिए जाने की शर्त ली। हॉब्स की यह कल्पना वास्तव में इंग्लैण्ड की तात्कालिक स्थिति से संबंधित थी, जिसमें गृहयुद्ध की स्थिति निरंतर बनी हुई थी। इसलिए हॉब्स ने जीवन रक्षा के लिए एक निरंकुश राजतंत्र का पक्ष लिया।

 

आगे चलकर लॉक ने सामाजिक अनुबंध सिद्धान्त को आगे बढ़ाते हुए निरंकुश राजतंत्र को संवैधानिक राजतंत्र में बदलने का प्रयास किया जो तत्कालीन इंग्लैण्ड की वस्तुस्थिति की मांग थी। लेकिन जहाँ हॉब्स का मनुष्य स्वार्थी, आक्रामक और क्षणभंगुर था वहीं लॉक ने इसे एक विवेकशील प्राणी के रूप में देखा। रूसो इस सिद्धान्त को आगे बढ़ाते हुए राज्य की सामान्य इच्छा को प्रस्तुत किया तथा लॉक के विवेकशील प्राणी को रूसो ने उदात्त वन्य प्राणी के रूप में देखा।

 

इससे स्पष्ट है कि हॉब्स, लॉक और रूसों तीनों राजनीतिक चिंतकों ने मानव स्वभाव का चित्रण भिन्‍न-भिन्‍न रूप में किया है। नीतिशास्त्र न तो किसी काल्पनिक स्थिति की कल्पना करता है और न ही मानव स्वभाव के एकांगी पक्ष पर जोर देता है। यह मानव-व्यवहार की वास्तविक स्थिति का अध्ययन करता है तथा मानव-व्यवहार को संपूर्णता में देखते हुए उसके लिए आदर्शों एवं प्रतिमानों को निर्धारित करने का प्रयास करता है।अर्थात्‌ इसका स्वरूप वैचारिक एवं अमूर्त बना रहता है। यह एक स्वतंत्र नैतिक चिंतन है। यह मानव-व्यहार को प्रभावित करने का प्रयास नहीं करता, बल्कि यह मनुष्य के समक्ष कुछ आदर्शों एवं प्रतिमानों को प्रस्तुत करने का प्रयास करता है तथा उसके चयन का निर्णय मनुष्य पर छोड़ देता है। अर्थात्‌ इसका मूल स्वरूप वैचारिक बना रहता है।