आत्मपूर्णतावाद - हीगल , ग्रीन और ब्रैडले (Perfectionism - Hegel,Green and Bradley)
Posted on March 17th, 2020
आत्मपूर्णतावाद नैतिक चिंतन का वह दार्शनिक सिद्धान्त है जो मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास को मानव जीवन के ध्येय के रूप में स्वीकार करता है। आत्मपूर्णता की मूल मान्तया है कि मनुष्य के प्रत्येक कार्य का लक्ष्य वास्तव में उसका आत्मविकास है। मनुष्य प्रत्येक कार्य अपने आत्मविकास के लिए करता है। यह नैतिक सिद्धान्त इस दार्शनिक अवधारणा पर आधारित है कि मनुष्य की चेतना का क्रमिक विकास होता है। हीगल अपने द्वंद्वात्मक सिद्धांत में यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते है यह कि विश्व चेतना की अभिव्यक्ति एवं विकास है तथा यह चेतना द्वंद्वात्मक रूप से विकसित होती रहती है। चेतना की बौद्धिक अभिव्यक्ति मानव जीवन में होती है। मानवीय बुद्धि में विद्यमान द्वंद्व चेतना के विकास का प्रेरक तत्व है तथा उसकी अभिव्यक्ति बाहय कार्यों में होती है।
हीगल के दो प्रसिद्ध कथन हैं-'जीने के लिए मरो' तथा “व्यक्ति बनो। हीगल के पहले कथन का अभिप्राय है कि मानवीय चेतना का क्रमिक विकास होता है। यह चेतना परिवार, समाज तथा अंततः राष्ट्रीय चेतना के रूप में विकसित होती है। हीगल अपने निरपेक्षवाद में राष्ट्रवाद को पुष्ट करने का प्रयास करता है। हीगल के दूसरे कथन का अभिप्राय भी वस्तुतः व्यक्तिगत चेतना का राष्ट्रीय चेतना के रूप में विकास है। लेकिन हीगल का निरपेक्षवाद राष्ट्रवाद से आगे नहीं बढ़ पाता।
हीगल, ग्रीन और ब्रैडले तीनों आत्मपूर्णतावादी है। ग्रीन और ब्रैडले ने पूर्णतावाद को आत्मसिद्धि एवं आत्मपूर्णता के रूप में देखा। ग्रीन, हीगल की चेतना के विकास सिद्धान्त से सहमत हैं, लेकिन वे केवल व्यक्ति की व्यक्तिगत चेतना पर ही केन्द्रित रहते हैं तथा वैधैक्ति की ही चेतना पर ही केन्द्रित रहते हैं तथा व्यक्ति की ही चेतना में सामाजिक तथा राष्ट्रीय चेतना का समावेश कर लेते हैं। ग्रीन, हीगल की भांति किसी निरपेक्ष चेतना के विकास को स्वीकार नहीं करते, बल्कि उनके चेतना के विकास का अभिप्राय आत्मसिद्धि एवं आत्मविकसित है। ग्रीन का तर्क है कि मनुष्य के सभी कार्य आत्मविकास की ओर ही प्रेरित होते हैं। वस्तुतः मनुष्य अपने सभी कार्यो से आत्मसिद्धि का ही प्रयास करता है। ग्रीन हीगल की भांति निरपेक्षवादी तो नहीं है लेकिन वे सर्वाथवाद के पक्षधर हैं।
ब्रैडले भी मनुष्य के सभी कार्यों का लक्ष्य आत्मविकास को ही स्वीकार करते हैं। ब्रैडले ने अपने प्रमुख सिद्धान्त 'मेरा स्थान एवं उसके कर्तव्य” में इसके समन्वय का प्रयास किया है। ब्रैडले यह स्वीकार करते है कि प्रत्येक मनुष्य का समाज में एक विशेष स्थान होता है। उस स्थान के अनुरूप ही उसके कर्तव्य निर्धारित होते हैं तथा कर्तव्य का समुचित पालन में ही उसका आत्मविकास निहित है। यद्यपि वह अपने कर्तव्य के चयन में स्वतंत्र है लेकिन एक बार कर्तव्य का चयन कर लेने के पश्चात् वह कर्तव्य बाध्यता से बंध जाता है। ब्रैडले के इस नैतिक चिंतन का परिक्षेत्र वास्तव में समाज है। ब्रैडले समाज में प्रत्येक व्यक्ति के कर्तव्य के निर्धारण का प्रयास करते हैं। वास्तव में ब्रेडले का यह सिद्धान्त कांट एवं हीगल के समन्वय पर आधारित है। लेकिन ब्रैडले को इस कार्य में बहुत दूर तक सफलता नहीं मिली।
आत्मपूर्णतावाद की कठिनाई यह है कि यह मनुष्य के सभी कार्यों को आत्मविकास के रूप में देखता है तथा इसके अंतर्गत वह सामाजिक एवं राष्ट्रीय विकास को भी सम्मिलित कर लेता है। लेकिन यह सिद्धांत आत्मविकास के लक्ष्य को स्पष्ट नहीं करता है। वास्तव में मनुष्य के आत्मविकास का स्वरूप एवं लक्ष्य क्या है यह स्पष्ट नहीं हो पाता तथा व्यक्ति के व्यक्तिगत विकास का समाज एवं राष्ट्र से समन्वय करना भी इतना सहज नहीं है।
भारतीय चिंतन में भी मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य आत्मसाक्षात्कार स्वीकार किया गया है। अर्थात्, मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना है। लेकिन भारतीय दर्शन का यह नैतिक चिन्तन परम तत्व की प्राप्ति है, जिसे निरपेक्ष ज्ञान एवं निरपेक्ष तत्व के रूप में जाना जाता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आत्मसाक्षात्कार की अवधारणा लगभग निरस्त को चुकी है।
समकालीन चिंतन में आत्म साक्षात्कार को आत्मपूर्णता के रूप में देखा जाता है।वास्तव में अब आत्म के व्यवहारिक पक्ष पर अधिक जोर दिया जाता है, अर्थात् मनुष्य के व्यक्तित्व में निहित संभावनाओं को साकार रूप देना ही आत्मविकास समझा जाता है। व्यक्तित्व में निहित संभावनाओं को वास्तविक रूप देना ही आत्मपूर्णता है। मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए बाहय एवं आन्तरिक दोनों परिस्थितियां होती है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह स्वीकार किया जाता है कि जब तक समुचित बाह्य परिस्थिति विद्यमान न हो तब तक मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास संमव नहीं है समाज एवं राष्ट्र का कर्तव्य उन बाहय परिस्थितियों के निर्माण करने में है, जो मनुष्य के व्यक्तित्व विकास के लिए अनिवार्य है। साथ ही साथ मनुष्य के व्यक्तित्व के आन्तरिक पक्ष का विकास उसकी नैतिक उन्नति पर निर्भर करता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि आत्म साक्षात्कार के स्थान पर आत्मपूर्णता ही वास्तविक लक्ष्य है। 'गांधी' एवं 'पॉल टिलिक' जैसे दार्शनिक भी आत्मसाक्षात्कार के बजाय आत्मपूर्णता को ही स्वीकार करते हैं।
वस्तुत इस सिद्धान्त की कठिनाई यह है कि यह मनुष्य के सभी कार्यों का लक्ष्य आत्मविकास को स्वीकार करता है। जो चेतना के विकास नामक तत्वमीमांसीय सिद्धान्त पर आधारित है। लेकिन समकालीन चिंतन में त्तवमीमांसा के लिए विशेष स्थान नहीं है। दूसरी कठिनाई यह है कि यह सिद्धान्त अति आदर्शवादी हैं यह मनुष्य की उन जैविक क्रियाओं की उपेक्षा करता है जिन्हें मनुष्य स्वभावतः पूरा करने के लिए बाध्य है। प्रायः साधारण व्यक्ति अपनी जैविक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए अपने लक्ष्य का निर्धारण करता है। मनुष्य विकास से तो प्रेरित होता है, लेकिन उसका लक्ष्य सामान्यतया आत्मपूर्णता या आत्मसिद्धि नहीं होता। यह सिद्धान्त आदश॑मूलक होने के कारण मनुष्य की व्यावहारिक समस्याओं के समाधान में अपूर्ण सिद्ध होता है।
आत्मपूर्णतावाद - हीगल , ग्रीन और ब्रैडले (Perfectionism - Hegel,Green and Bradley)
आत्मपूर्णतावाद नैतिक चिंतन का वह दार्शनिक सिद्धान्त है जो मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास को मानव जीवन के ध्येय के रूप में स्वीकार करता है। आत्मपूर्णता की मूल मान्तया है कि मनुष्य के प्रत्येक कार्य का लक्ष्य वास्तव में उसका आत्मविकास है। मनुष्य प्रत्येक कार्य अपने आत्मविकास के लिए करता है। यह नैतिक सिद्धान्त इस दार्शनिक अवधारणा पर आधारित है कि मनुष्य की चेतना का क्रमिक विकास होता है। हीगल अपने द्वंद्वात्मक सिद्धांत में यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते है यह कि विश्व चेतना की अभिव्यक्ति एवं विकास है तथा यह चेतना द्वंद्वात्मक रूप से विकसित होती रहती है। चेतना की बौद्धिक अभिव्यक्ति मानव जीवन में होती है। मानवीय बुद्धि में विद्यमान द्वंद्व चेतना के विकास का प्रेरक तत्व है तथा उसकी अभिव्यक्ति बाहय कार्यों में होती है।
हीगल के दो प्रसिद्ध कथन हैं-'जीने के लिए मरो' तथा “व्यक्ति बनो। हीगल के पहले कथन का अभिप्राय है कि मानवीय चेतना का क्रमिक विकास होता है। यह चेतना परिवार, समाज तथा अंततः राष्ट्रीय चेतना के रूप में विकसित होती है। हीगल अपने निरपेक्षवाद में राष्ट्रवाद को पुष्ट करने का प्रयास करता है। हीगल के दूसरे कथन का अभिप्राय भी वस्तुतः व्यक्तिगत चेतना का राष्ट्रीय चेतना के रूप में विकास है। लेकिन हीगल का निरपेक्षवाद राष्ट्रवाद से आगे नहीं बढ़ पाता।
हीगल, ग्रीन और ब्रैडले तीनों आत्मपूर्णतावादी है। ग्रीन और ब्रैडले ने पूर्णतावाद को आत्मसिद्धि एवं आत्मपूर्णता के रूप में देखा। ग्रीन, हीगल की चेतना के विकास सिद्धान्त से सहमत हैं, लेकिन वे केवल व्यक्ति की व्यक्तिगत चेतना पर ही केन्द्रित रहते हैं तथा वैधैक्ति की ही चेतना पर ही केन्द्रित रहते हैं तथा व्यक्ति की ही चेतना में सामाजिक तथा राष्ट्रीय चेतना का समावेश कर लेते हैं। ग्रीन, हीगल की भांति किसी निरपेक्ष चेतना के विकास को स्वीकार नहीं करते, बल्कि उनके चेतना के विकास का अभिप्राय आत्मसिद्धि एवं आत्मविकसित है। ग्रीन का तर्क है कि मनुष्य के सभी कार्य आत्मविकास की ओर ही प्रेरित होते हैं। वस्तुतः मनुष्य अपने सभी कार्यो से आत्मसिद्धि का ही प्रयास करता है। ग्रीन हीगल की भांति निरपेक्षवादी तो नहीं है लेकिन वे सर्वाथवाद के पक्षधर हैं।
ब्रैडले भी मनुष्य के सभी कार्यों का लक्ष्य आत्मविकास को ही स्वीकार करते हैं। ब्रैडले ने अपने प्रमुख सिद्धान्त 'मेरा स्थान एवं उसके कर्तव्य” में इसके समन्वय का प्रयास किया है। ब्रैडले यह स्वीकार करते है कि प्रत्येक मनुष्य का समाज में एक विशेष स्थान होता है। उस स्थान के अनुरूप ही उसके कर्तव्य निर्धारित होते हैं तथा कर्तव्य का समुचित पालन में ही उसका आत्मविकास निहित है। यद्यपि वह अपने कर्तव्य के चयन में स्वतंत्र है लेकिन एक बार कर्तव्य का चयन कर लेने के पश्चात् वह कर्तव्य बाध्यता से बंध जाता है। ब्रैडले के इस नैतिक चिंतन का परिक्षेत्र वास्तव में समाज है। ब्रैडले समाज में प्रत्येक व्यक्ति के कर्तव्य के निर्धारण का प्रयास करते हैं। वास्तव में ब्रेडले का यह सिद्धान्त कांट एवं हीगल के समन्वय पर आधारित है। लेकिन ब्रैडले को इस कार्य में बहुत दूर तक सफलता नहीं मिली।
आत्मपूर्णतावाद की कठिनाई यह है कि यह मनुष्य के सभी कार्यों को आत्मविकास के रूप में देखता है तथा इसके अंतर्गत वह सामाजिक एवं राष्ट्रीय विकास को भी सम्मिलित कर लेता है। लेकिन यह सिद्धांत आत्मविकास के लक्ष्य को स्पष्ट नहीं करता है। वास्तव में मनुष्य के आत्मविकास का स्वरूप एवं लक्ष्य क्या है यह स्पष्ट नहीं हो पाता तथा व्यक्ति के व्यक्तिगत विकास का समाज एवं राष्ट्र से समन्वय करना भी इतना सहज नहीं है।
भारतीय चिंतन में भी मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य आत्मसाक्षात्कार स्वीकार किया गया है। अर्थात्, मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना है। लेकिन भारतीय दर्शन का यह नैतिक चिन्तन परम तत्व की प्राप्ति है, जिसे निरपेक्ष ज्ञान एवं निरपेक्ष तत्व के रूप में जाना जाता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आत्मसाक्षात्कार की अवधारणा लगभग निरस्त को चुकी है।
समकालीन चिंतन में आत्म साक्षात्कार को आत्मपूर्णता के रूप में देखा जाता है।वास्तव में अब आत्म के व्यवहारिक पक्ष पर अधिक जोर दिया जाता है, अर्थात् मनुष्य के व्यक्तित्व में निहित संभावनाओं को साकार रूप देना ही आत्मविकास समझा जाता है। व्यक्तित्व में निहित संभावनाओं को वास्तविक रूप देना ही आत्मपूर्णता है। मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए बाहय एवं आन्तरिक दोनों परिस्थितियां होती है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह स्वीकार किया जाता है कि जब तक समुचित बाह्य परिस्थिति विद्यमान न हो तब तक मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास संमव नहीं है समाज एवं राष्ट्र का कर्तव्य उन बाहय परिस्थितियों के निर्माण करने में है, जो मनुष्य के व्यक्तित्व विकास के लिए अनिवार्य है। साथ ही साथ मनुष्य के व्यक्तित्व के आन्तरिक पक्ष का विकास उसकी नैतिक उन्नति पर निर्भर करता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि आत्म साक्षात्कार के स्थान पर आत्मपूर्णता ही वास्तविक लक्ष्य है। 'गांधी' एवं 'पॉल टिलिक' जैसे दार्शनिक भी आत्मसाक्षात्कार के बजाय आत्मपूर्णता को ही स्वीकार करते हैं।
वस्तुत इस सिद्धान्त की कठिनाई यह है कि यह मनुष्य के सभी कार्यों का लक्ष्य आत्मविकास को स्वीकार करता है। जो चेतना के विकास नामक तत्वमीमांसीय सिद्धान्त पर आधारित है। लेकिन समकालीन चिंतन में त्तवमीमांसा के लिए विशेष स्थान नहीं है। दूसरी कठिनाई यह है कि यह सिद्धान्त अति आदर्शवादी हैं यह मनुष्य की उन जैविक क्रियाओं की उपेक्षा करता है जिन्हें मनुष्य स्वभावतः पूरा करने के लिए बाध्य है। प्रायः साधारण व्यक्ति अपनी जैविक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए अपने लक्ष्य का निर्धारण करता है। मनुष्य विकास से तो प्रेरित होता है, लेकिन उसका लक्ष्य सामान्यतया आत्मपूर्णता या आत्मसिद्धि नहीं होता। यह सिद्धान्त आदश॑मूलक होने के कारण मनुष्य की व्यावहारिक समस्याओं के समाधान में अपूर्ण सिद्ध होता है।