राज्य समसामयिकी 2 (9-September-2021)
पंज प्यारे
(Panj Pyare)

Posted on September 9th, 2021 | Create PDF File

hlhiuj

हाल ही में पंजाब में राजनीतिक नेताओं के लिये "पंज प्यारे" (Panj Piare) शब्द के प्रयोग के कारण विवाद उत्पन्न हो गया।

 

सिख परंपरा का हिस्सा : पंज प्यारे, पाँच बपतिस्मा प्राप्त सिखों को संबोधित करने के लिये उपयोग किया जाने वाला शब्द है, अर्थात् वे पुरुष जिन्हें दस गुरुओं में से अंतिम गुरु गोबिंद सिंह के नेतृत्व में खालसा (सिख योद्धाओं का विशेष समूह) में दीक्षित किया गया था।

 

वे दृढ़ता और भक्ति के प्रतीक के रूप में सिखों द्वारा सद्भावपूर्वक सम्मानित हैं।

 

उद्भव : गुरु गोबिंद सिंह ने वर्ष 1699 में बैसाखी के दिन खालसा पंथ के साथ-साथ पंज प्यारे नामक संस्था की स्थापना की थी।

 

गुरु गोबिंद सिंह ने पाँच लोगों को संस्कृति को संरक्षित करने हेतु अपने जीवन को आत्मसमर्पण करने का आग्रह किया। इस संदर्भ में बड़ी संख्या लोगों ने असमति प्रकट की लेकिन अंततः पाँच स्वयंसेवक इसके लिये आगे आए।

 

गुरु गोबिंद सिंह ने स्वयं सिखों को यह अवगत कराने के लिये उसी चरण में उनसे बपतिस्मा लिया था कि पंज प्यारों के पास समुदाय में किसी की तुलना में उच्च अधिकार और निर्णय लेने की शक्ति है।

 

सिख इतिहास को आकार देने और सिख धर्म को परिभाषित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले वास्तविक पंज प्यारे हैं:

 

भाई दया सिंह, लाहौर (1661-1708 ई.)

 

भाई धरम सिंह, हस्तिनापुर (1699-1708 ई.)

 

भाई हिम्मत सिंह, जगन्नाथपुरी (1661-1705 ई.)

 

भाई मोहकम सिंह, द्वारका (1663-1705 ई.)

 

भाई साहिब सिंह, बीदर (1662-1705 ई.) 

 

तब से पाँच बपतिस्मा प्राप्त सिखों के प्रत्येक समूह को पंज प्यारे कहा जाता है तथा उन्हें भी वही सम्मान दिया जाता है जो प्रारंभिक पाँच सिख ‘पंज प्यारों’ को दिया जाता है।

 

योगदान :

 

इन आध्यात्मिक योद्धाओं ने न केवल युद्ध के मैदान में विरोधियों से लड़ने का वचन दिया, बल्कि आंतरिक दुश्मन, अहंकार का मुकाबला करने तथा जाति उन्मूलन के प्रयासों के साथ-साथ मानवता की सेवा करने की शपथ ली।

 

उन्होंने वर्ष 1699 में बैसाखी के त्योहार पर गुरु गोबिंद सिंह तथा लगभग 80,000 अन्य लोगों को बपतिस्मा देते हुए वास्तविक अमृत संचार (सिख दीक्षा समारोह) किया।

 

सभी पाँच पंज प्यारे ने आनंद पुरीन की घेराबंदी में गुरु गोबिंद सिंह और खालसा के साथ युद्ध में हिस्सा लिया और दिसंबर 1704 में चमकौर की लड़ाई के दौरान गुरु गोबिंद सिंह को सुरक्षित निकालने में मदद की।

 

पंज प्यारे द्वारा लिये गए सर्वसम्मत निर्णय का समुदाय में सभी को पालन करना होता है।

 

अकाल तख्त के जत्थेदार भी किसी एक पक्ष में फैसला नहीं ले सकते हैं तथा अकाल तख्त के प्रत्येक फरमान पर पाँच तख्तों (अस्थायी सीटों) के सभी पाँच जत्थेदारों या उनके प्रतिनिधियों द्वारा हस्ताक्षर किया जाना आवश्यक है।

 

खालसा पंथ :

 

गुरु गोबिंद सिंह ने सैनिक-संतों यानी ‘खालसा’ पंथ (जिसका अर्थ है 'शुद्ध') की स्थापना की थी।

 

खालसा पंथ से जुड़े संतों में प्रतिबद्धता, समर्पण और सामाजिक चेतना के उच्चतम गुण मौजूद होते हैं।

 

खालसा का आशय उन ‘पुरुष’ और ‘महिलाओं’ से है, जो सिख दीक्षा समारोह के माध्यम से पंथ में शामिल हुए हैं और जो सिख आचार संहिता एवं संबंधित नियमों का सख्ती से पालन करते हैं तथा गुरुओं द्वारा निर्धारित दिनचर्या (5K: केश (बिना कटे बाल), कंघा (एक लकड़ी की कंघी), कारा (एक लोहे का कंगन), कचेरा (सूती जांघिया) और कृपाण (एक लोहे का खंजर)) का पालन करते हैं।

 

चमकौर का युद्ध :

 

यह युद्ध 21 से 23 दिसंबर (1704) के बीच तीन दिनों तक गुरु गोबिंद सिंह के खालसा और मुगलों तथा राजपूत पहाड़ी सरदारों की गठबंधन सेना के बीच लड़ा गया था।

 

गुरु गोबिंद सिंह ने अपने विजय पत्र ‘ज़फरनामा’ में इस युद्ध का उल्लेख किया है।

 

अकाल तख्त जत्थेदार :

 

अकाल तख्त साहिब का अर्थ है ‘शाश्वत सिंहासन’। यह अमृतसर में स्वर्ण मंदिर परिसर का भी हिस्सा है। इसकी नींव छठे सिख गुरु, गुरु हरगोबिंद जी ने रखी थी।

 

जत्थेदार एक जत्थे (एक समूह, एक समुदाय या एक राष्ट्र) का नेता होता है।

 

सिखों में एक जत्थेदार का आशय सिख धर्मगुरुओं के नेता से होता है और वह तख्त का नेतृत्त्व करता है। सिख धर्म में पाँच जत्थेदार होते हैं, जिनमें से प्रत्येक एक तख्त या पवित्र स्थान का प्रतिनिधि होता है।