ईरान परमाणु समझौता और ईरान एक्शन ग्रुप (Iran Nuclear Agreement and Iran Action Group)

Posted on September 15th, 2018 | Create PDF File

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भले ही संसार ने द्वितीय विश्वयुध्द के बाद कोई बड़ा प्रत्यक्ष युध्द न देखा हो, लेकिन अनेक स्तरों पर मनोवैज्ञानिक और कूटनीतिक युध्द आज भी लड़े जा रहे हैं। चाहे वह वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच लंबे समय तक चलने वाला वैचारिक शीत युध्द हो, अथवा समय- समय पर उभर रही अर्थव्यवस्थाओं और वैश्विक व्यावसायिक शक्तियों के बीच प्रभुत्व की तनातनी । भूमण्डलीकरण के इस दौर ने विश्व के सभी प्रगतिशील और विकसित देशों को एक ही बाजार में लाकर खड़ा कर दिया है। संसाधन विकास की आधारशिला होते हैं और किसी भी देश के संसाधनों पर आधिकारिक नियंत्रण वहां की सरकार या शासक वर्ग का होता है। राजनीति और व्यवसाय के इस प्रकार के संक्रमण की शागिर्दिगी ने कई प्रकार के धार्मिक और राजनैतिक हस्तक्षेपों को जन्म दिया है। अमेरिका- ईरान संबंध इन्हीं हस्तक्षेपों की एक परिणिति हैं।

 

दरअसल 16 अगस्त 2018 को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान के साथ संबंध सुधारने के लिए ‘ईरान एक्शन ग्रुप’ बनाने की घोषणा की है, जिसका प्रमुख उद्देश्य ईरान में शासन के व्यवहार को बदलना है। इससे पहले वे ईरान के प्रति काफी नरमी भरा रुख पेश करते हुए अपने ईरानी समकक्ष हसन रूहानी से बिना किसी शर्त के बातचीत करने को तैयार हो गये थे। जिसे ईरान ने यह कहकर खारिज कर दिया था कि- अमेरिका किसी भी भरोसे के लायक नहीं है। ज्ञातव्य है कि- पिछले कुछ महीनों से दोनों देशों के बीच काफी गहमागहमी चल रही है और राष्ट्रपति ट्रंप का यह फैसला उनके स्वाभाविक व्यवहार के विपरीत काफी चौकाने वाला बताया जा रहा था। हालांकि उन्होंने स्पष्ट किया था कि- इस बातचीत से अमेरिका द्वारा ईरान पर लगाये गये प्रतिबंधों पर कोई आंच नहीं आयेगी। 8 मई 2018 को ‘ईरान परमाणु समझौते’ को दोषपूर्ण और उदार बताकर राष्ट्रपति ट्रंप ने अमेरिका को इस समझौते से अलग करने की घोषणा करके ईरान पर कड़े ‘आर्थिक प्रतिबंध’ दोबारा लगा दिए थे। जिसके बाद से ही ईरान और अमेरिका के संबंधों के बीच कटुता काफी बढ़ गई है।

 

दरअसल इस समस्या की गहरी जड़ें अमेरिका- ईरान सबंधों के 6 दशक पुराने इतिहास से जुड़ी हुईं हैं। बात 1950 की है, जब ईरान में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई प्रधानमत्री मोहम्मद मोसादेक की सरकार को अमेरिका ने अपने दखल से तख्तापलत करवाकर सत्ता शाह रजा पहलवी के हाथों में सौंप दी थी। यह शीतयुध्द का समय था । शाह रजा पहलवी अगले 25 वर्षों तक ईरान का नेतृत्व करता रहा और अमेरिका का चहेता बना रहा। उसके शासनकाल में ईरान में उत्पादित तेल की आधी कमाई अमेरिका तथा ब्रिटिश कंपनियों के एक कंसोर्टियम को जाती थी। इससे पैदा हुए असंतोष का परिणाम यह हुआ कि वर्ष 1979 में अयातुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में ईरानी छात्रों ने ईस्लामिक क्रांति का बिगुल फूंक दिया और शाह रजा पहलवी के शासन को उखाड़ फेंका। यहीं (वर्ष 1979 की इस्लामिक क्रांति) से अमेरिका –ईरान संबंधों में कटुता आना शुरु हुई। इस क्रांति में 52 अमेरिकी राजनयिकों को 444 दिनों तक बंदी बनाकर रखा गया था। जो अब तक के विश्व का सबसे लंबा बंदीकाल था। इस क्रांति से अमेरिकी- ईरानी गठजोड़ खत्म हो गया और अमेरिका ने ईरान पर कई तरह के आर्थिक प्रतिबंध लगा दिये। 

 

वर्ष 2002 में एक और घटना हुई। ईरान के अंदर से सरकार विरोधी एक गुट (विपक्षी राजनैतिक दल) द्वारा यह खबर सामने आई कि वहां ईरानी सरकार कुछ अघोषित परमाणु गतिविधियां परमाणु अस्त्र विकसित करने के लिए चला रही है। जिसकी पुष्टि करते हुए अंतरराष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी ( आईएईए) नें ईरान के इस कथित गुप्त परमाणु हथियार कार्यक्रम को विश्वशांति के लिए घातक बताया था। इसी परिप्रेक्ष्य में वैश्विक सुरक्षा का हवाला देते हुए सभी यूरोपीय देशों नें अमेरिका के नेतृत्व में ईरान पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगा दिये थे। जिन्हें लगातार वर्ष 2006, 2008, 2009 और 2010 में और कड़ा कर दिया गया। इन आर्थिक प्रतिबंधों से एक तेल उत्पादक देश होने के बावजूद ईरान की अर्थव्यवस्था की कमर टूट गई। और पी5+1 देशों के साथ उसकी एक लंबी बातचीत चली। अंततः ईरान परमाणु समझौता, 2015 के रूप में उसे इन प्रतिबंधों से छुटकारा मिल गया।

 

दरअसल वर्ष 2015 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल में पी5+1 देश ( अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, रूस और चीन) के साथ ईरान ने एक परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, जिसे “ईरान परमाणु करार” या “ज्वाइंट एण्ड कंप्लीट एक्शन प्लान’’ के रूप में जाना जाता है। यह समझौता वर्ष 2016 से प्रभाव में आया। इसके तहत ईरान अपने संवर्धित यूरेनियम के भंडार को 98 प्रतिशत तक कम करके 9 टन से 300 किलोग्राम तक करने को राजी हो गया था। ईरान से यह संवर्धित यूरेनियम रूस को भेजा जाता था और बदले में रूस ईरान को प्राकृतिक यूरेनियम ( येलोकेक- जो कि परमाणु संयंत्र की छड़ें बनाने के काम आता है) 140 टन भेजता था। इसी समझौते के तहत ईरान ने अमेरिकी खूफिया ऐजेंसी – सीआईए को 10 से 25 वर्षों तक के लिए अपने परमाणु कार्यक्रम की निगरानी तथा जांच करने की छूट भी प्रदान की थी। इस समझौते के रूप में ईरान पर लगे सभी कड़े आर्थिक प्रतिबंध हटा लिए गये और व्यापार एवं वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए सभी पश्चिमी देशों ने अपने दरवाजे खोल दिए।

 

हाल ही में अमेरिका द्वारा इस समझौते से अलग होने के पीछे कई प्रकार के तर्क दिए जा रहे हैं। जिनमें गुप्त रूप से परमाणु हथियार बनाने,  संधि के आवश्यकता से अधिक उदार होने,  ईरान द्वारा तय सीमा से अधिक रियेक्टर संचालित करने तथा अमेरिकी खूफिया एजेंसियों को जांच के सीमित अधिकार दिये जाने प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त ईरान पर गैर-परमाणु बैलेस्टिक मिसाइल बनाने के साथ- साथ सीरिया, यमन और ईराक में शिया लड़ाकों को हथियार सप्लाई करने का आरोप भी लगाया गया है। अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकारों का मानना यह भी है कि- रूस, ईरान और हिजबुल्लाह के गठजोड़ के चलते वर्ष 2015 में अमेरिका और उसके सहयोगी इज़रायल, सीरिया में बशर- अल-असद सरकार को गिराने में नाकाम रहे थे। इसी अप्रत्यक्ष राजनैतिक हार का प्रतिशोध लेने के लिए अमेरिका ने ईरान को सबक सिखाने के उद्देश्य से इस संधि से अपने हाथ पीछे खींच लिए। इसके अलावा अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप नें राष्ट्रपति चुनावों के दौरान अपने प्रचार कार्यक्रमों में इस संबंध में बराक ओबामा की नीतियों की निंदा की थी तथा यह आश्र्वासन दिया था कि वे इससे अमेरिका को अलग कर लेंगे। वहीं ईरान ने अमेरिका के प्रति अपनी तीखी प्रतिक्रिया देते हुए इन आरोपों को निराधार और निर्मूल बताया है। राष्ट्रपति हसन रूहानी का कहना है कि- यदि  समझौते के अन्य बाकी देश समझौते से पीछे नहीं हटते हैं, तो यह करार कायम रहेगा। फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी जैसे यूरोपीय देशों सहित विश्व के अन्य तमाम देशों नें भी ट्रंप के इस फैसले के प्रति असंतोष व्यक्त किया है। दरअसल ईरान परमाणु समझौता उस समय केवल ईरान के हित में नहीं था, वरन् यूरोप सहित विश्व के अन्य देशों के हित भी इससे जुड़े हुए थे। विशेषकर अमेरिका के क्योंकि अमेरिका द्वारा सऊदी अरब में संरक्षित वहाबी विचारधारा  की अति का दुष्परिणाम यह हुआ कि वहां आईएस जैसे सुन्नी इस्लामिक संगठनों का जन्म हुआ। ईरान एक शिया बहुल मुल्क़ है। साथ ही तात्कालिक मध्य –पूर्व में बदलते शक्ति –समीकरण पूरे यूरोप की नींद सांसत में डाले हुए थे। इसलिए आईएस जैसे खतरनाक संगठन के खात्मे के लिए ईरान को मजबूत करना अमेरिका की एक मजबूरी भी थी।

 

ईरान न केवल व्यापारिक एवं सामरिक दृष्टि से पूरे विश्व के लिए मायने रखता है, बल्कि एक महत्त्वपूर्ण तेल निर्यातक देश होने के कारण भारत के लिए भी काफी विशिष्ट महत्व रखता है। ईरान में संचालित तापी पाइपलाइन, ग्वादर बंदरगाह, और ईरान- अफगानिस्तान संपर्क मार्ग जैसी अनेक महत्वाकांक्षी परियोजनायें भारत को हर प्रकार की आर्थिक/ सामरिक/ कूटनीतिक / वैश्विक दृढ़ता प्रदान करती हैं साथ ही पाकिस्तान के बगैर उसके विकल्प के तौर पर पश्चिमी एशियाई देशों से जोड़ने का एक माध्यम भी हैं। वहीं अमेरिका के साथ भी भारत के संबंध पिछले कुछ वर्षों में काफी तेजी से विकसित हुए हैं। हाल ही में दोनों देशों के बीच हुई 2+ 2 वार्ता इस संबंध में उध्दरणीय है। अतः भारत को अमेरिका- ईरान संबंधों की तल्खी से पैदा हो रहे परिवर्तनों की प्रतिक्रिया काफी सधी हुई देने की आवश्यकता है। ताकि हमारी आर्थिक/ राजनैतिक प्रगति में बाधा बने बिना दोनों देशों से हमारे सुरुचिपूर्ण संबंध कायम रह सकें तथा भविष्य में भी इनके और प्रगाढ़ होने की समस्त संभावनायें खुली रहें।