सत्यनिष्ठा एक नैतिक मूल्य है। यह वस्तुतः सत्य के प्रति आग्रह या सत्य के प्रति आस्था है या वस्तुनिष्ठ, निरपेक्ष है या सापेक्ष, इस पर प्रारंभ से ही दार्शनिकों में विवाद रहा है। नैतिक चिंतन में सत्य और शुभ को समानार्थी समझा जाता है। शुभ को परिभाषित करते हुए प्रोटागोरस ने कहा कि मनुष्य सभी वस्तुओं का मापदंड है (Man is measure of all thing),अर्थात् मनुष्य को जो शुभ प्रतीत होता है वह उसके लिए शुभ है और जो अशुभ प्रतीत होता है वह अशुभ है। लेकिन प्रोटागोरस के इस सिद्धान्त से प्लेटो असहमत है। प्लेटो शुभ को आत्मनिष्ठा नहीं, बल्कि वस्तुनिष्ठ रूप से परिभाषित करने का प्रयास करते हैं। अंततः प्लेटो की शुभ संबंधी अवधारणा प्राकृतिक नियमों पर समाप्त हो जाती है जो वस्तुनिष्ठ रूप में संसार में विद्यमान है। लेकिन मूल प्रश्न पुनः अनुत्तरित रह जाता है कि वास्तव में शुभ अपने आप में क्या है?
आगे चलकर कांट ने शुभ को परिमाषित करते हुए कहा कि न तो इस संसार में और न ही इस संसार से बाहर कुछ शुभ है केवल शुभ इच्छा को छोड़कर। अर्थात् केवल वही कार्य शुभ है जिसके मूल में निहित भावना शुभ है। अर्थात् कांट की दृष्टि में किसी कार्य की शुभता उसके परिणाम में नहीं बल्कि उसकी मूल भावना में निहित होती है। लेकिन यहाँ समस्या का पूर्ण समाधान नहीं होता। कांट शुभ को शुभ इच्छा से परिभाषित करने का प्रयास करते हैं लेकिन शुभ इच्छा तो स्वयं शुभ पर आधारित है। इस प्रकार सत्य या शुभ नैतिक चिंतन का एक केन्द्रीय विवादित विषय है।
सत्यनिष्ठा एक नैतिक मूल्य है। यह वस्तुतः सत्य के प्रति आग्रह या सत्य के प्रति आस्था है या वस्तुनिष्ठ, निरपेक्ष है या सापेक्ष, इस पर प्रारंभ से ही दार्शनिकों में विवाद रहा है। नैतिक चिंतन में सत्य और शुभ को समानार्थी समझा जाता है। शुभ को परिभाषित करते हुए प्रोटागोरस ने कहा कि मनुष्य सभी वस्तुओं का मापदंड है (Man is measure of all thing),अर्थात् मनुष्य को जो शुभ प्रतीत होता है वह उसके लिए शुभ है और जो अशुभ प्रतीत होता है वह अशुभ है। लेकिन प्रोटागोरस के इस सिद्धान्त से प्लेटो असहमत है। प्लेटो शुभ को आत्मनिष्ठा नहीं, बल्कि वस्तुनिष्ठ रूप से परिभाषित करने का प्रयास करते हैं। अंततः प्लेटो की शुभ संबंधी अवधारणा प्राकृतिक नियमों पर समाप्त हो जाती है जो वस्तुनिष्ठ रूप में संसार में विद्यमान है। लेकिन मूल प्रश्न पुनः अनुत्तरित रह जाता है कि वास्तव में शुभ अपने आप में क्या है?
आगे चलकर कांट ने शुभ को परिमाषित करते हुए कहा कि न तो इस संसार में और न ही इस संसार से बाहर कुछ शुभ है केवल शुभ इच्छा को छोड़कर। अर्थात् केवल वही कार्य शुभ है जिसके मूल में निहित भावना शुभ है। अर्थात् कांट की दृष्टि में किसी कार्य की शुभता उसके परिणाम में नहीं बल्कि उसकी मूल भावना में निहित होती है। लेकिन यहाँ समस्या का पूर्ण समाधान नहीं होता। कांट शुभ को शुभ इच्छा से परिभाषित करने का प्रयास करते हैं लेकिन शुभ इच्छा तो स्वयं शुभ पर आधारित है। इस प्रकार सत्य या शुभ नैतिक चिंतन का एक केन्द्रीय विवादित विषय है।