भारत के पर्यावरण आंदोलन (4) -चिपको आंदोलन
(India's environmental movement (4) - Chipko Movement)

Posted on March 11th, 2019 | Create PDF File

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चिपको आंदोलन मूलत: उत्तराखण्ड के वनों की सुरक्षा के लिए वहां के लोगों द्वारा 1970 के दशक में आरम्भ किया गया आंदोलन है। इसमें लोगों ने पेड़ों केा गले लगा लिया ताकि उन्हें कोई काट न सके। यह आलिंगन दरअसल प्रकृति और मानव के बीच प्रेम का प्रतीक बना और इसे "चिपको " की संज्ञा दी गई।

 

चिपको आंदोलन के पीछे एक पारिस्थितिक और आर्थिक पृष्ठभूमि है। जिस भूमि में यह आंदोलन अपजा वह 1970 में आई भयंकर बाढ़ का अनुभव कर चुका था। इस बाढ़ से 400 कि०मी० दूर तक का इलाका ध्वस्त हो गया तथा पांच बढ़े पुल, हजारों मवेशी, लाखों रूपये की लकडी व ईंधन बहकर नष्ट हो गया। बाढ़ के पानी के साथ बही गाद इतनी अधिक थी कि उसने 350 कि०मी० लम्बी ऊपरी गंगा नहर के 10 कि०मी० तक के क्षेत्र में अवरोध पैदा कर दिया जिससे 8.5 लाख एकड़ भूमि सिंचाई से वंचित हो गर्ई थी और 48 मेगावाट बिजली का उत्पादन ठप हो गया था। अलकनंदा की इस त्रासदी ने ग्रामवासियों के मन पर एक अमिट छाप छोड़ी थी और उन्हें पता था कि लोगों के जीवन में वनों की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। चिपको आंदोलन को ब्रिटिशकालीन वन अधिनियम के प्रावधानों से जोड़ कर भी देखा जा सकता है जिनके तहत पहाड़ी समुदाय को उनकी दैनिक आवश्यकताओं के लिए भी वनों के सामुदायिक उपयोग से वंचित कर दिया गया था।

 

स्वतंत्र भारत के वन-नियम कानूनों ने भी औपनिवेशिक परम्परा का ही निर्वाह किया है। वनों के नजदीक रहने वाले लोगों को वन-सम्पदा के माध्यम से सम्मानजनक रोजगार देने के उद्देश्य से कुछ पहाड़ी नौजवानों ने 1962 में चमोली जिले के मुख्यालय गोपेश्वर में दशौली ग्राम स्वराज्य संघ बनाया था। उत्तर प्रदेश के वन विभाग ने संस्था के काष्ठ-कला केंद्र को सन् 1972-73 के लिए अंगु के पेड़ देने से इंकार कर दिया था। पहले ये पेड़ नजदीक रहने वाले ग्रामीणों को मिला करते थे। गांव वाले इस हल्की लेकिन बेहद मजबूत लकडी से अपनी जरूरत के मुताबिक खेती- बाड़ी के औजार बनाते थे। गांवों के लिए यह लकडी बहुत जरूरी थी। पहाडी खेती में बैल का जुआ सिर्फ इसी लकड़ी से बनाया जाता रहा है, पहाड़ में ठण्डे मौसम और कठोर पथरीली जमीन में अंग के गुण सबसे खरे उतरते हैं। इसके हल्केपन के कारण बैल थकता नहीं। यह लकड़ी मौसम के मुताबिक न तो ठण्डी होती है, न गरम, इसलिए कभी फटती नहीं है और अपनी मजबूती के कारण बरसों तक टिकी रहती है।

 

इसी बीच पता चला कि वन विभाग ने खेल-कूद का सामान बनाने वाली इलाहाबाद की साइमंड कम्पनी का गोपेश्वर से एक किलोमीटर दूर मण्डल नाम के वन से अंगू के पेड़ काटने की इजाजत दे दी है। वनों के ठीक बगल में बसे गांव वाले जिन पेडों को छू तक नहीं सकते थे, अब उन पेडों को दूर इलाहाबाद की एक कम्पनी को काटकर ले जाने की इजाजत दे दी गई। अंगू से टेनिस, बैडमिंटन जैसे खेलों का सामान मैदानी कम्पनियों में बनाया जाये-इससे गांव के लोगों या दशौली ग्राम स्वराज्य संघ को कोई एतराज नही था। वे तो केवल इतना ही चाहते थे कि पहले खेत की जरूरतें पूरी की जाये और फिर खेल की। इस जायज मांग के साथ इनकी एक छोटी-सी मांग और भी थी। वनवासियों को वन संपदा से किसी-न-किसी किस्म का रोजगार जरूर मिलना चाहिए ताकि वनों की सुरक्षा के प्रति उनका प्रेम बना रह सके।

 

चिपको आंदोलन का मूल केंद्र रेनी गांव (जिला चमोली) था जो भारत-तिब्बत सीमा पर जोशीमठ से लगभग 22 किलोमीटर दूर ऋषिगंगा और विष्णुगंगा के संगम पर बसा है। वन विभाग ने इस क्षेत्र के अंगू के 2451 पेड़ साइमंड कंपनी को ठेके पर दिये थे। इसकी खबर मिलते ही चंडी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में 14 फरवरी, 1974 को एक सभा की गई जिसमें लोगों को चेताया गया कि यदि पेड़ गिराये गये, तो हमारा अस्तित्व खतरे में पड जायेगा। ये पेड़ न सिर्फ हमारी चारे, जलावन और जड़ी-बूटियों की जरूरते पूरी करते है, बल्कि मिट्टी  का क्षरण भी रोकते हैं।

 

इस सभा के बाद 15 मार्च को गांव वालों ने रेनी जंगल की कटाई के विरोध में जुलूस निकाला। ऐसा ही जुलूस 24 मार्च को छात्रों ने भी निकाला। जब आंदोलन जोर पकडने लगा ठीक तभी सरकार ने घोषणा की कि चमोली में सेना के लिए जिन लोगों के खेतों को अधिग्रहण किया गया था, वे अपना मुआवजा ले जाएं। गांव के पुरूष मुआवजा लेने चमोली चले गए। दूसरी ओर सरकार ने आंदोलनकारियों को बातचीत के लिए जिला मुख्यालय, गोपेश्वर बुला लिया। इस मौके का लाभ उठाते हुए ठेकेदार और वन अधिकारी जंगल में घुस गये। अब गांव में सिर्फ महिलायें ही बची थीं। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। बिना जान की परवाह किये 27 औरतों ने श्रीमती गौरादेवी के नेतृत्व में चिपको-आंदोलन शुरू कर दिया। इस प्रकार 26 मार्च, 1974 को स्वतंत्र भारत के प्रथम पर्यावरण आंदोलन की नींव रखी गई।


चिपको आंदोलन की मांगे-


चिपको आंदोलन की मांगें प्रारम्भ में आर्थिक थीं, जैसे वनों और वनवासियों का शोषण करने वाली दोहन की ठेकेदारी प्रथा को समाप्त कर वन श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण, नया वन बंदोबस्त और स्थानीय छोटे उद्योगों के लिए रियायती कीमत पर कच्चे माल की आपूर्ति। धीरे-धीरे चिपको आंदोलन परम्परागत अल्पजीवी विनाशकारी अर्थव्यवस्था के खिलाफ स्थायी अर्थव्यवस्था-इकॉलाजी का एक सशक्त जनआंदोलन बन गया। अब आंदोलन की मुख्य मांग थी- हिमालय के वनों की मुख्य उपज राष्ट्र के लिए जल है, और कार्य मिट्टी  बनाना, सुधारना और उसे टिकाए रखना है। इसलिए इस समय खड़े हरे पेड़ों की कटाई उस समय (10 से 25 वर्ष) तक स्थगित रखी जानी चाहिए जब तक राष्ट्रीय वन नीति के घोषित उददेश्यों के अनुसार हिमालय में कम से कम 60 प्रतिशत क्षेत्र पेड़ों से ढक न जाए। मृदा और जल संरक्षण करने वाले इस प्रकार के पेड़ों का युद्ध स्तर पर रोपण किया जाना चाहिए जिनसे लोग भोजन-वस्त आदि की अनिवार्य आवश्यकतों में स्वावलम्बी हो सकें।

 

रेनी में हुए चिपको की खबर पाकर अगले दिन से आसपास के एक दर्जन से अधिक गांवों के सभी पुरुष बड़ी संख्या में वहां पहुंचने लगे। अब यह एक जन-आंदोलन बन गया। बारी-बारी से एक-एक गांव पेड़ों की चौकसी करने लगा। दूर-दराज के गांवो में चिपको का संदेश पहुँचाने के लिए विभिन्न पद्घतियों का सहारा लिया गया जिनमे प्रमुख थे पदयात्राएँ, लोकगीत तथा कहानियाँ आदि। लोकगायकों ने उत्तेजित करने वाले गीत गाये। उन्होंने वनों की कटाई और वन आधारित उद्योगों से रोजगार के अल्पजीवी अर्थव्यवस्था के नारे को चुनौती देते हुए इससे बिल्कुल भिन्न स्थाई अर्थ-व्यवस्था के इस मंत्र का घोष किया--

 

"क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।

मिट्टी , पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार।"

 

गोपेश्वर में वन की कटाई के सफलता-पूर्वक रूकते ही वन आंदोलन ने जोर पकड लिया। सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृट्टव में चमोली जिले में एक पदयात्राओं का आयोजन हुआ। आंदोलन तेजी से पहले उत्तरकाशी और फिर पूरे पहाडी क्षेत्र में फैल गया।

 

इन जागृत पर्वतवासियों के गहरे दर्द ने पदयात्रियों, वैज्ञानिकों और राजनीतिज्ञों के दिलोदिमाग पर भी असर किया। 9 मई, 1974 को उत्तर प्रदेश सरकार ने चिपको आंदोलन की मांगों पर विचार के लिए एक उच्चस्तरीय समिति के गठन की घोषणा की। दिल्ली विश्वविद्यालय के वनस्पति-विज्ञानी श्री वीरेन्द्र कुमार इसके अध्यक्ष थे। गहरी छानबीन के बाद समिति ने पाया कि गांव वालों ओर चिपको आंदोलनकारियों की मांगे सही हैं। अक्टूबर, 1976 में उसने यह सिफारिश भी कि 1,200 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में व्यावसायिक वन-कटाई पर 10 वर्ष के लिए रोक लगा दी जाए। साथ ही समिति ने यह सुझाव भी दिया कि इस क्षेत्र के महट्टवपूर्ण हिस्सों में वनरोपन का कार्य युद्धस्तर पर शुरू किया जाए। उत्तरप्रदेश सरकार ने इन सुझावों को स्वीकार कर लिया। इस रोक के लागू होने के कारण 13,371 हेक्टेयर की वन कटाई योजना वापस ले ली गई। चिपको आदोलन की यह बहुत बड़ी विजय थी।

 

चिपको आंदोलन कई मामलों में सफल रहा। यह उत्तर प्रदेश में 1000 मीटर से अधिक की ऊँचाई पर पेड़-पौधों की कटाई, पश्चिमी घाट और विंध्य में जंगलों की सफाई (क्लियर फेंलिंग) पर प्रतिबंध लगवाने में सफल रहा। साथ ही, एक राष्ट्रीय वन नीति हेतु दबाव बनाने में सफल रहा है, जो लोगों की आवश्यकताओं एवं देश विकास के प्रति अधिक संवेदनशील होगी। रामचंद्र गुहा के शब्दों में चिपको प्राकृतिक संसाधनों से संबद्घ संघषों की व्यापकता का प्रतिनिधिट्टव करता है। इसने एक राष्ट्रीय विवाद का हल प्रदान किया। विवाद यह था कि हिमालय के वनों की सर्वाधिक सुरक्षा किसके हाथ होगी--स्थानीय समुदाय, राज्य सरकार या निजी पूंजीपतियों के हाथ। मसला यह भी था कि कौन से पेड़-पौधे लगाए जाएं-शंकु वृक्ष, चौडै पत्ते वाले पेड़ या विदेशी पेड़ और फिर सवाल उठा कि वनों के असली उत्पाद क्या हैं- उद्योगों के लिए लकड़ी, गांव के लोगों के लिए जैव संपदा, या पूरे समुदाय के लिए आवश्यक मिट्टी , पानी और स्वक्वछ हवा। अत: पूरे देश के लिए वन्य नीति निर्धारण की दिशा में इस क्षेत्रीय विवाद ने एक राष्ट्रीय स्वरूप ले लिया।

 

चिपको ने विकास के आधुनिक मॉडल के समक्ष एक विकल्प पेश किया है। यह आम जनता की पहल का परिणा था। यह आंदोलन भी गांधीवादी संघर्ष का ही एक रूप था क्योंकि इसमे भी अन्यायपूर्ण, दमनकारी शासन व्यवस्था का निरोध किया गया जो पर्यावरण संरक्षण के नाम पर उसका शोषण कर रहा था। इस आंदोलन को वास्तविक नेतृट्टव भी गांधीवांदी कार्यकत्ताओं मुख्यत: चंडीप्रसाद भट्ट और सुंदर लाल बहुगुढा से मिला जिनके द्वारा प्रयोग की गई तकनीक भी गांधी जी के सट्टयाग्रह से प्रे्ररित थी। वंदना शिवा और जयंत वंदोपाध्याय के शब्दों में "ऐतिहासिक दार्शनिक और संगठनात्मक रूप से चिपको आंदोलन पारंपरिक गांधीवादी सत्याग्रहों का विस्तृत स्वरूप था।"


चिपको आंदोलन में महिलाओं की भूमिका-


चिपको आंदोलन को प्राय: एक महिला आंदोलन के रूप में जाना जाता है क्योंकि इसके अधिकांश कार्यकर्ताओं में महिलाएं ही थीं तथा साथ ही यह आंदोलन नारीवादी गुणों पर आधारित था। 26 मार्च, 1974 को जब ठेकेदार रेणी गांव में पेड़ काटने आये, उस समय पुरुष घरों पर नहीं थे। गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाओं ने कुल्हाड़ी लेकर आये ठेकेदारों को यह कह कर जंगल से भगा दिया कि यह जंगल हमारा मायका है। हम इसे कटने नहीं देंगी। मायका महिलाओं के लिए वह सुखद स्थान है जहाँ संकट के समय उन्हें आश्रय मिलता है। वास्तव में पहाड़ी महिलाओं और जंगलों का अटूट संबंध है। पहाड़ों की उपजाऊ मिट्टी के बहकर चले जाने से रोजगार के लिए पुरुषों के पलायन के फलस्वरूप गृहस्थी का सारा भार महिलाओं पर ही पड़ता है। पशुओं के लिए घास, चारा, रसोई के लिए ईंधन और पानी का प्रबंध करना खेती के अलावा उनका मुख्य कार्य है। इनका वनों से सीधा संबंध है। वनों की व्यापारिक दोहन की नीति ने घास-चारा देने वाले चौड़ी पत्तियों के पेड़ों को समाप्त कर चीड़, देवदार के शंकुधारी धरती को सूखा बना देने वाले पेड़ों का विस्तार किया है। मोटर-सडक़ों के विस्तार से होने वाले पेड़ों के कटाव के कारण रसोई के लिए ईंधन का आभाव होता है। इन सबका भार महिलाओं पर ही पड़ता है। अत: इस विनाशलीला को रोकने की चिंता वनों से प्रत्यक्ष जुड़ी महिलाओं के अलावा और कौन कर सकता है। वे जानती हैं कि मिट्टी  के बहकर जाने से तथा भूमि के अनुपजाऊ होने से पुरुषों को रोजगार के लिए शहरों में जाना पड़ता है। मिटटी रुकेगी और बनेगी तो खेती का आधार मजबूत होगा। पुरुष घर पर टिकेंगे। इसका एक मात्र उपाय है - हरे पेड़ों की रक्षा करना क्योंकि पेड़ मिटटी को बनाने और पानी देने का कारखाना हैं।

 

रेणी के पश्चात् (चिपको के ही क्रम में) 1 फरवरी, 1978 को अदवाणी गांव के जंगलों में सशस्त्र पुलिस के 50 जवानों की एक टुकड़ी वनाधिकारियों और ठेकेदारों द्वारा भाड़े के कुल्हाड़ी वालों के संरक्षण के लिए पहुँची। वहाँ स्त्रियाँ यह कहते हुए पेड़ों पर चिपक गयीं, ‘‘पेड़ नहीं, हम कटेंगी’’। इस अहिंसक प्रतिरोध का किसी के पास उत्तर नहीं था। इन्हीं महिलाओं ने पुन: सशस्त्र पुलिस के कड़े पहरे में 9 फरवरी, 1978 को नरेन्द्र नगर में होने वाली वनों की नीलामी का विरोध किया। वे गिरफ्तार कर जेल में बंद कर दी गईं।

 

25 दिसम्बर, 1978 को मालगाड़ी क्षेत्र में लगभग 2500 पेड़ों की कटाई रोकने के लिए जन आंदोलन आरंभ हुआ जिसमें हजारों महिलाओं ने भाग लेकर पेड़ कटवाने के सभी प्रयासों को विफल कर दिया। इस जंगल में 9 जनवरी, 1978 को सुदूरलाल बहुगुणा ने 13 दिनों का उपवास रखा। परिणामस्वरूप सरकार ने तीन स्थानों पर वनों की कटाई तत्काल रोक दी और हिमालय के वनों को संरक्षित वन घोषित करने के प्रश्न पर उन्हें बातचीत करने का न्योता दिया। इस संबंध में निर्णय होने तक गढ़वाल और कुमायूं मण्डलों में हरे पेड़ों की नीलामी, कटाई और छपान बंद करने की घोषणा कर दी गई।

 

चिपको आंदोलन के दौरान महिलाओं ने वनों के प्रबंधन में अपनी भागीदारी की मांग भी की। उनका तर्क था कि वह औरत ही है जो ईंधन, चारे, पानी आदि को एकत्रित करती हैं। उसके लिए जंगल का प्रश्न उसकी जीवन- मृत्यु का प्रश्न है। अत: वनों से संबंधित किसी भी निणर्य में उनकी राय को शामिल करनी चाहिए। चिपको आंदोलन ने वंदना शिवा को विकास के एक नये सिद्धांत - ‘पर्यावरण नारीवाद’ के लिए प्रेरणा दी, जिसमें पर्यावरण तथा नारी के बीच अटूट संबंधों को दर्शाया गया है।

 

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि जंगलों की अंधाधुंध कटाई के खिलाफ आवाज उठाने में महिलाएं कितनी सक्रिय रहीं हैं। चिपको ने उन पहाड़ी महिलाओं को जो हमेशा घर की चार दीवारी में ही कैद रहती थीं, बाहर निकल कर लोगों के बीच प्रतिरोध करने तथा अपने आपको अभिव्यक्ति करने का मौका दिया। इसने यह भी दर्शाया कि किस प्रकार महिलाएं पेड़-पौधे से संबंध रखती हैं और पर्यावरण के विनाश से कैसे उनकी तकलीफें बढ़ जाती हैं। अत: चिपको पर्यावरणीय आंदोलन ही नहीं है, बल्कि पहाड़ी महिलाओं के दुख-दर्द उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति का भी आंदोलन है।