सुखवाद - बेंथम ,जॉन स्टुअर्ट मिल एवं सिजविक (Hedonism - Bentham, John Stuart Mill and Sidgwick)
Posted on March 16th, 2020
सुखवाद के प्रणेता बेंथम हैं। बेंथम का प्रसिद्ध कथन है कि “प्रकृति ने मनुष्य को सुख और दुःख नामक दो विकल्पों के मध्य रखा है (Nature has places man in pain and pleasure)। मनुष्य अधिकाधिक सुख प्राप्त करना चाहता है और अधिकाधिक दु:ख से बचने के का प्रयास करता है। अर्थात् बेंथम की दृष्टि में नैतिकता का निर्धारक तत्व सुख है। सर्वप्रथम बेंथम ने इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को स्थापित किया कि मनुष्य अपनी प्रत्येक गतिविधि में सुख प्राप्त करने का प्रयास करता है। अर्थात् सुख ही वह प्रेरक तत्व है जो मनुष्य के सभी कर्मों को निर्धारित करता है। इसलिए बेंथम ने मनोवैज्ञानिक सुखवाद से नैतिक सुखवाद की तर्किक निष्पत्ति का प्रयास किया। बेंथम ने कहा कि सुख काम्य है अतः: सुख की कामना की जानी चाहिए ।बेंथम का सुखवाद ऐन्द्रिक सुखवाद कहलाता है। बेंथम ने ऐन्द्रिक सुख को ही मानव जीवन के लक्ष्य के रूप में परिमाषित किया। बेंथम ने ऐंद्रिक सुख के कलन का भी सिद्धान्त दिया। आगे चलकर बेंथम ने नैतिक सुखवाद को उपयोगितावाद में परिणित करते हुए अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख का सिद्धान्त दिया। यद्यपि बेंथम सुख के कलन का तो प्रयास करता है, लेकिन इसके वितरण के लिए कोई सिद्धान्त नहीं दिया।
जॉन स्टुअर्ट मिल, बेंथम के मूल सुखवाद से सहमत हैं लेकिन मिल बेंथम के ऐंद्रिक सुखवाद को बौद्धिक सुखवाद में परिणित कर दिया। मिल ने कहा कि असंतुष्ट सुकरात होना संतुष्ट शूकर होने से सदैव श्रेयस्कर है (It is better to be unsatisfied Socrates than a satisfied pig) मिल के इस कथन का अभिप्राय है कि ऐंद्रिक सुखवाद पशुवत दर्शन है। मनुष्य बौद्धिक प्राणी है। इसलिए वह सतत् चिंतन करता है और कुछ अच्छा करने का प्रयास करता है तथा इस प्रयास में सदैव असन्तुष्ट रहता है। लेकिन मनुष्य बौद्धिक स्तर से ऐंद्रिक स्तर पर नहीं उत्तर सकता।
सिजविक ने बेंथम एवं मिल के सुखवाद में एक विरोधाभास देखा, जिसे उन्होंने “सुख के विरोधाभास' के सिद्धान्त में प्रस्तुत किया है। सिजविक का तर्क है कि सुख के पीछे भागते रहने में ही दुख निहित है। मनुष्य जो प्राप्त करता है उससे वह सन्तुष्ट नहीं होता तथा उसे जो अप्राप्त है वह सदैव आकर्षित करता रहता है। अर्थात् प्राप्ति में सन्तुष्टि नहीं है, जबकि अप्राप्ति में आकर्षण विद्यमान रहता है। इस प्रकार सिजविक ने सुखवाद की सीमाओं को निर्धारित करने का प्रयास किया।
सुखवाद पर अनेक दार्शनिकों को आपत्त्ति है। कर्तव्यवादियों का तर्क है कि मनुष्य के सभी कार्य सुख से प्रेरित नहीं होते, बल्कि वह अनेक कार्यों को इसलिए पूरा करने का प्रयास करते हैं, क्योंकि उनमें उनके प्रति कर्तव्य बोध होता है। प्रायः अभिभावक अपने बच्चों के लिए कष्ट उठाते हैं। जिसमें सुख का अभाव होता है,लेकिन फिर भी वे कर्तव्यबोध के कारण उन कार्यों को पूरा करने का प्रयास करते हैं। अर्थात्, सुख मानव जवीन का परम ध्येय नहीं है।
यदि सुखवाद को एक नैतिक सिद्धान्त के रूप में स्वीकार कर लिया जाए तो इससे भौतिकवाद एवं उपभोक्तावाद नामक सिद्धान्त स्वतः निःसत हो जाते हैं। यदि सुख मनुष्य का परम ध्येय है तो वह अधिकाधिक भौतिक वस्तुओं का संग्रह एवं उपभोग करने का प्रयास करता है। वास्तव में सुखवाद, भौतिकवाद एवं उपभोक्तावाद तीनों एक-दूसरे से तर्कतः सुसंगत है। भारतीय दर्शन मे चार्वक इसका प्रमुख उदाहरण है।
भौतिकवाद एवं उपभोक्तावाद से कुछ विसंगतियां उत्पन्न होती हैं। भौतिकवाद ईश्वर आदि निरपेक्ष सत्ता का निषेध करता है जिससे अनैतिकता एवं अनाचार को प्रश्नय मिलता है क्योंकि मनुष्य अन्य सभी मूल्यों का निषेध करते हुए अधिकाधिक सुख प्राप्त करने का प्रयास करता है जो व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक जीवन के लिए उचित नहीं है।
यद्यपि भौतिकवाद एवं सुखवाद वर्तमान सदी का मुख्य दर्शन है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य में न केवल व्यक्तिगत जीवन में बल्कि सार्वजनिक जीवन पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। प्रकृति का अधिकाधिक दोहन, वस्तुओं का व्यापक उत्पादन, उत्पादन का असमान वितरण आदि अनेक नैतिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं। लेकिन समकालीन चिंतन में भौतिकवाद एवं सुखवाद की केन्द्रीय स्थिति को नकारा नहीं जा सकता।वैश्वीकरण के इस दौर में पश्चिमी मूल्य, वैश्विक मूल्य का रूप से चुके हैं। विकास के सभी प्रारूप वस्तुत: भौतिक विकास पर आधारित होते है।ऐसी स्थिति में भौतिक विकास के साथ नैतिक उत्थान की भी आवश्यकता है।जब तक मनुष्य की नेतिक उन्नति नहीं होती तब तक अंतहीन भौतिक विकास को सुव्यवस्थित करना संभव नहीं है। अर्थात् वर्तमान सदी पर भौतिकवाद एवं सुखवाद का व्यापक प्रभाव पड़ा है।
सुखवाद - बेंथम ,जॉन स्टुअर्ट मिल एवं सिजविक (Hedonism - Bentham, John Stuart Mill and Sidgwick)
सुखवाद के प्रणेता बेंथम हैं। बेंथम का प्रसिद्ध कथन है कि “प्रकृति ने मनुष्य को सुख और दुःख नामक दो विकल्पों के मध्य रखा है (Nature has places man in pain and pleasure)। मनुष्य अधिकाधिक सुख प्राप्त करना चाहता है और अधिकाधिक दु:ख से बचने के का प्रयास करता है। अर्थात् बेंथम की दृष्टि में नैतिकता का निर्धारक तत्व सुख है। सर्वप्रथम बेंथम ने इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को स्थापित किया कि मनुष्य अपनी प्रत्येक गतिविधि में सुख प्राप्त करने का प्रयास करता है। अर्थात् सुख ही वह प्रेरक तत्व है जो मनुष्य के सभी कर्मों को निर्धारित करता है। इसलिए बेंथम ने मनोवैज्ञानिक सुखवाद से नैतिक सुखवाद की तर्किक निष्पत्ति का प्रयास किया। बेंथम ने कहा कि सुख काम्य है अतः: सुख की कामना की जानी चाहिए ।बेंथम का सुखवाद ऐन्द्रिक सुखवाद कहलाता है। बेंथम ने ऐन्द्रिक सुख को ही मानव जीवन के लक्ष्य के रूप में परिमाषित किया। बेंथम ने ऐंद्रिक सुख के कलन का भी सिद्धान्त दिया। आगे चलकर बेंथम ने नैतिक सुखवाद को उपयोगितावाद में परिणित करते हुए अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख का सिद्धान्त दिया। यद्यपि बेंथम सुख के कलन का तो प्रयास करता है, लेकिन इसके वितरण के लिए कोई सिद्धान्त नहीं दिया।
जॉन स्टुअर्ट मिल, बेंथम के मूल सुखवाद से सहमत हैं लेकिन मिल बेंथम के ऐंद्रिक सुखवाद को बौद्धिक सुखवाद में परिणित कर दिया। मिल ने कहा कि असंतुष्ट सुकरात होना संतुष्ट शूकर होने से सदैव श्रेयस्कर है (It is better to be unsatisfied Socrates than a satisfied pig) मिल के इस कथन का अभिप्राय है कि ऐंद्रिक सुखवाद पशुवत दर्शन है। मनुष्य बौद्धिक प्राणी है। इसलिए वह सतत् चिंतन करता है और कुछ अच्छा करने का प्रयास करता है तथा इस प्रयास में सदैव असन्तुष्ट रहता है। लेकिन मनुष्य बौद्धिक स्तर से ऐंद्रिक स्तर पर नहीं उत्तर सकता।
सिजविक ने बेंथम एवं मिल के सुखवाद में एक विरोधाभास देखा, जिसे उन्होंने “सुख के विरोधाभास' के सिद्धान्त में प्रस्तुत किया है। सिजविक का तर्क है कि सुख के पीछे भागते रहने में ही दुख निहित है। मनुष्य जो प्राप्त करता है उससे वह सन्तुष्ट नहीं होता तथा उसे जो अप्राप्त है वह सदैव आकर्षित करता रहता है। अर्थात् प्राप्ति में सन्तुष्टि नहीं है, जबकि अप्राप्ति में आकर्षण विद्यमान रहता है। इस प्रकार सिजविक ने सुखवाद की सीमाओं को निर्धारित करने का प्रयास किया।
सुखवाद पर अनेक दार्शनिकों को आपत्त्ति है। कर्तव्यवादियों का तर्क है कि मनुष्य के सभी कार्य सुख से प्रेरित नहीं होते, बल्कि वह अनेक कार्यों को इसलिए पूरा करने का प्रयास करते हैं, क्योंकि उनमें उनके प्रति कर्तव्य बोध होता है। प्रायः अभिभावक अपने बच्चों के लिए कष्ट उठाते हैं। जिसमें सुख का अभाव होता है,लेकिन फिर भी वे कर्तव्यबोध के कारण उन कार्यों को पूरा करने का प्रयास करते हैं। अर्थात्, सुख मानव जवीन का परम ध्येय नहीं है।
यदि सुखवाद को एक नैतिक सिद्धान्त के रूप में स्वीकार कर लिया जाए तो इससे भौतिकवाद एवं उपभोक्तावाद नामक सिद्धान्त स्वतः निःसत हो जाते हैं। यदि सुख मनुष्य का परम ध्येय है तो वह अधिकाधिक भौतिक वस्तुओं का संग्रह एवं उपभोग करने का प्रयास करता है। वास्तव में सुखवाद, भौतिकवाद एवं उपभोक्तावाद तीनों एक-दूसरे से तर्कतः सुसंगत है। भारतीय दर्शन मे चार्वक इसका प्रमुख उदाहरण है।
भौतिकवाद एवं उपभोक्तावाद से कुछ विसंगतियां उत्पन्न होती हैं। भौतिकवाद ईश्वर आदि निरपेक्ष सत्ता का निषेध करता है जिससे अनैतिकता एवं अनाचार को प्रश्नय मिलता है क्योंकि मनुष्य अन्य सभी मूल्यों का निषेध करते हुए अधिकाधिक सुख प्राप्त करने का प्रयास करता है जो व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक जीवन के लिए उचित नहीं है।
यद्यपि भौतिकवाद एवं सुखवाद वर्तमान सदी का मुख्य दर्शन है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य में न केवल व्यक्तिगत जीवन में बल्कि सार्वजनिक जीवन पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। प्रकृति का अधिकाधिक दोहन, वस्तुओं का व्यापक उत्पादन, उत्पादन का असमान वितरण आदि अनेक नैतिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं। लेकिन समकालीन चिंतन में भौतिकवाद एवं सुखवाद की केन्द्रीय स्थिति को नकारा नहीं जा सकता।वैश्वीकरण के इस दौर में पश्चिमी मूल्य, वैश्विक मूल्य का रूप से चुके हैं। विकास के सभी प्रारूप वस्तुत: भौतिक विकास पर आधारित होते है।ऐसी स्थिति में भौतिक विकास के साथ नैतिक उत्थान की भी आवश्यकता है।जब तक मनुष्य की नेतिक उन्नति नहीं होती तब तक अंतहीन भौतिक विकास को सुव्यवस्थित करना संभव नहीं है। अर्थात् वर्तमान सदी पर भौतिकवाद एवं सुखवाद का व्यापक प्रभाव पड़ा है।