मानवीय सह-संबंध के विविध आयाम (Diverse dimensions of Human Interface)

Posted on March 16th, 2020 | Create PDF File

मानवीय सह-संबंध के विविध आयाम हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मानवीय सह-संबंध का विषयक्षेत्र अत्यंत व्यापक हो गया है। सभ्यता के प्रारंभ से ही मनुष्य समाज में रहता रहा है। इसीलिए अरस्तू ने कहा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है (Man is a social animal) | यदि वह समाज में नहीं है तो या तो वह देवता है या पशु। अर्थात्‌ मनुष्य के सभी क्रियाकलाप समाज में ही संभव होते हैं और उसका मूल्यांकन भी सामाजिक जीवन के परिप्रेक्ष्य में किया जाना चाहिए। यद्यपि अरस्तू के सामाजिक प्राणी से अभिप्राय राजनैतिक प्राणी का था क्‍योंकि प्रारंभिक ग्रीक राज्यों में सामाजिकऔर राजनेतिक क्रियाकलापों में स्पष्ट विभाजक रेखा विद्यमान नहीं थी। सामाजिक सक्रियता को ही राजनीतिक गतिविधि के रूप में देखा जाता था। यद्यपि राज्य की राजनीतिक अवधारणा प्राचीन ग्रीक के कुछ राज्यों तक सीमित थी।

 

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रायः सभी देश राष्ट्र-राज्य का रूप ले चुके हैं।राष्ट्र-राज्य की अवधारणा का उदय मैकियावेली के आधुनिक राज्य की अवधारणा से मानी जाती है। इसे सुस्पष्ट रूप से परिभाषित एवं विकसित करने का श्रेय हॉब्स, बोदां, ऑस्टिन एवं लास्की को जाता है। आगे चलकर मॉन्टेस्क्यू ने अपने शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त से इसे पूर्णतया सुव्यवस्थित बनाया ।

 

भारत में राष्ट्र-राज्य की राजनैतिक अवधारणा का उदय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हुआ। इससे पूर्व भारत केवल एक भौगोलिक राज्य था।राष्ट्र-राज्य की अवधारणा के उदय के पश्चात्‌ मानवीय सह-संबंध का स्वरूप अत्यन्त व्यापक, विस्तृत एवं सुव्यवस्थित हो गया है। राजनैतिक सिद्धान्त मानवीय सह संबंधों को विविध रूप से परिभाषित एवं निर्धारित करने का प्रयास करते हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राज्यव्यवस्था, अर्थव्यवस्था, सामाजिक संरचना, तकनीकी विकास आदि सभी मानवीय सह संबंधों को परिभाषित एवं निर्घारित करते हैं। लेकिन इन सब के मूल में निहित नैतिकता की अवधारणा विद्यमान रहती है।

 

बोदां के संप्रभुता सिद्धान्त को ऑस्टिन ने कानूनी रूप से परिभाषित करने का प्रयास किया। पाश्चात्य चिंतन में कालक्रम के प्रवाह में नैतिकता कानून के रूप में परिणत हो गई। राज्य अपने विषय क्षेत्र को केवल कानून तक सीमित रख लिया तथा कानून एवं नैतिकता में स्पष्ट विभाजक रेखा खींची गई जिसका मुख्य कारण आधुनिक राजनीतिक चिंतन के प्रणेता मैकियावेली के 'प्रिंस' में वर्णित राजतंत्रात्मक व्यवस्था थी।

 

हॉब्स और मैकियावेली दोनों ने यह स्पष्ट रूप से अनुभव किया कि राजनीतिक क्रियाकलापों के लिए कानून को परिभाषित करना आवश्यक है।धीरे-धीरे नैतिक चिंतन राजनैतिक चिंतन के हाशिए पर आ गया।

 

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नैतिक एवं अनैतिक कार्यों का संबंध केवल सामाजिक मूल्यों से है। इस संदर्भ में राज्य या राजनैतिक संस्थाएं इसके मूल्यांकन की अधिकारी नहीं है। अर्थात्‌ किसी नैतिक या अनैतिक कार्य के लिए राज्य न तो दंड दे सकता है और न ही पुरस्कार। नैतिक-अनैतिकता एक सामाजिक मूल्य है। समाज इसकी प्रशंसा या भर्त्सना तो कर सकता है लेकिन दंड का विधान नहीं कर सकता।

 

राज्य कानून एवं अपराध को परिभाषित करता है। कानून के विरुद्ध किया गया कार्य अपराध कहलाता है। राज्य कानून के उल्लंघन के लिए दण्ड का विधान करता है, लेकिन राज्य नैतिक एवं अनैतिक कार्य के लिए न तो दण्ड का विधान कर सकता है और न ही प्रशंसा। यद्यपि कानून की व्युत्पत्ति सामाजिक रीति-रिवाजों अर्थात्‌ नैतिकता से हुयी है। अतः कानून की मूल भावना नैतिकता पर आधारित है। नैतिकता सभी मानवीय संबंधों का प्राण है। मानवीय संबंधों के विविध पक्षों को कानून में सम्मिलित करना न तो संभव है न ही व्यवहारिक | इसलिए मानवीय सह संबंधों में निहित नैतिकता एक महत्वपूर्ण विचारणीय विषय बन जाती है। नैतिकता संबंधी प्रश्न मनुष्य के प्रत्येक क्रियाकलाप में निहित रहता है। इसका विषय क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। नेतिकता की अवधारणा मनुष्य के व्यक्तिगत, सामाजिक एवं राष्टीय आदि सभी स्तर पर विद्यमान रहती है। वास्तव में नैतिकता मनुष्य के कर्मों का ही मूल्यांकन करती है, इसलिए उसकी प्रत्येक गतिविधि में नैतिकता अपरिहार्य रहती है। 

 

आधुनिक राष्ट्र-राज्य में यद्यपि राजव्यवस्था, अर्थव्यवस्था, लोक  प्रशासन आदि सभी विविध पक्षों को परिभाषित एवं निर्धारित करने का प्रयास किया जाता है। लेकिन इन सभी सिद्धान्तों के मूल में निहित करने का प्रयास किया जाता है। लेकिन इन सभी सिद्धान्तों के मूल में निहित दार्शनिक पक्ष नेतिकता ज्यों की त्यों विद्यमान रहती है। शासन एवं प्रशासन में निहित कठिनाइयों के परिप्रेक्ष्य में नैतिकता और महत्वपूर्ण हो गई है। वस्तुत: ज्ञान की किसी भी विधा में जब कोई सिद्धान्त परिभाषित किया जाता है तो उसका एक दार्शनिक पक्ष अवश्य होता है। यही दार्शनिक पक्ष नैतिकता कहलाती है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रायः सभी राज्य लोकतंत्रात्मक है। लोकतंत्र का दार्शनिक पक्ष उसके आदर्शों : स्वतंत्रता, समानता, न्याय एवं भ्रातृत्व में निहित है। वे चारों लोकतांत्रिक आदर्श मानवीय मूल्य कहे जाते हैं। लोकतंत्र के यही आदर्श हैं। प्रत्येक लोकतांत्रिक राज्य इन्हीं आदर्शो को प्राप्त एवं सुनिश्चित करने का प्रयास करता है। किसी भी लोकतांत्रिक राज्य में इन्हीं चारों आदर्शों के अनुरूप ही मानवीय सह संबंध विकसित होते हैं। यद्यपि मानवीय सह संबंध का विकास परिवार नामक पहली संस्था से ही प्रारंभ हो जाता है।

 

मानवीय सह-संबंध के मूल प्रश्न और राजनेतिक आधारणाएं मुख्यतः दो वर्गों में विभक्त हैं-(1) पूंजीवादी उदारवादी लोकतंत्र (2) समाजवादी साम्यवादी राज्य। इन दोनों मुख्य राजनैतिक अवधारणाओं में पर्याप्त मतभेद है। पूंजीवादी उदारवादी राज्य स्वतंत्रता पर अत्यधिक जोर देता है जबकि समाजवादी साम्यवादी राज्य समानता को प्रमुखता देता है। यद्यपि यह विवाद का विषय है कि स्वतंत्रता एवं समानता में कौन प्राथमिक है और कौन द्वितीयक। यद्यपि आज वैश्विक परिदृश्य में समाजवादी साम्यवादी राज्य की अवधारणा समाप्त हो चली है तथा पूंजीवादी उदारवादी राज्य ने स्वतंत्रता के साथ समानता को भी अंगीदार कर लिया है।

 

प्रायः सभी मानवीय क्रियाकलापों में यहाँ तक कि निजी एवं सार्वजनिक पक्षों में भी नैतिकता विद्यमान रहती है। इसीलिए मानवीय सह संबंधों में नैतिकता एक महत्वपूर्ण अवधारणा का रूप लेती है जिसका अध्ययन विविध पक्षों एवं विविध आयामों में किया जाना चाहिए।