उपभोक्ता अधिकार : उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम और शिकायत निवारण तंत्र

Posted on December 23rd, 2018 | Create PDF File

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एक पुरानी कहावत है कि पूँजीवादी समाज में उपभोक्ता ही राजा होते हैं क्योंकि वे उद्योगपतियों के उत्पादों के प्रति जो अनुक्रिया अपनाते हैं, उनसे ही उस समाज की पूरी अर्थव्यवस्था का स्वरूप निर्धारित होता है। दूसरे शब्दों में, बाजार नियंत्रित समाजों की मूलभूत प्रकृति यह है कि यहां उत्पादक एवं उपभोक्ता पूरी अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए दो पहियों की तरह काम करते हैं मगर व्यवहारत: उपभोक्ता उत्पादक की तुलना में अधिक आधार प्रदान करता है। यह स्थति तब और स्पष्ट हुई जब विश्व के विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं में उदारीकरण तथा वैश्वीकरण की संकल्पना को अपनाया गया तथा बाजार के खिलाडि़यों के बीच प्रतिस्पर्धा की शुरूआत हुई। इस परिस्थिति में कम से कम सिद्धान्तत: उपभोक्ताओं को अधिक से अधिक सुरक्षा की आवश्यकता वस्तुओं के उत्पादकों एवं खुदरा विक्रेताओं के साथ संबंध बढ़ने के कारण हुई ताकि उनके सहूलियत के लिए अधिक से अधिक पसंद उपलब्ध हो। हाल के वर्षों में सिद्धान्तहीन एवं अधिक मुनाफा कमाने की सोच वाले उत्पादक एवं व्यापारी द्वारा उपभोक्ताओं की भलाई के विपरीत काम किया गया है और वस्तुओं तथा सेवाओं के क्रयों पर उपभोक्ताओं को असहाय एवं उपेक्षा का शिकार बनाया है। जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उपभोक्ता प्राय: व्यापारियों द्वारा बड़े पैमाने पर फैलाए झूठे वादे के झांसे में आ जाते हैं। इस दिशा में उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए और उनके दावे के निराकरण हेतु तकनीक के विकास के लिए देश में उपभोक्ता संरक्षण कानून को 1986 में पारित किया गया। उपयुक्त शीर्षक के तहत उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा से संबंधित विभिन्न मामलों का आलोचनात्मक विश्लेषण किया गया है। इसके अलावा उपभोक्ताओं के अधिकार एवं दायित्व का भी विश्लेषण किया गया है। साथ ही, तथा देश में शिकायत निवारण तंत्र की स्थिति  पर विशेष जोर देते हुए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के कार्यों की विश्लेषणात्मक व्याख्या पर भी जोर दिया गया है। 

 


उपभोक्ताओं के अधिकारों एवं दायित्वों पर विस्तृत चर्चा करने से पहले यह जानना आवश्यक होगा कि उपभोक्ता कौन है और वस्तु एवं सेवा के क्या अर्थ है जिसे उपभोक्ता खरीदते हैं और उपयोग करते हैं।

 


उपभोक्ता की परिभाषा 
(Definition of the Consumer)

 


सामान्य अर्थों में, उपभोक्ता वह व्यक्ति है जो उपयोग करने के हेतु कुछ निश्चित वस्तुओं या सेवाओं को कुछ भुगतान कर खरीदते हैं। दूसरे शब्दों में, तकनीकी परिभाषा के अनुसार, उपभोक्ता में तीन तत्वों का समावेश होना आवश्यक है, जिसमें से एक की भी अनुपस्थिति व्यक्ति को उपभोक्ता के वर्ग से अलग कर सकती है। पहला, एक उपभोक्ता को एक खरीददार होना आवश्यक है, दूसरे माध्यम से वस्तु या सेवा प्राप्त करना उसे उपभोक्ता वर्ग में शामिल नहीं करता जैसेकि, वस्तु विनिमय प्रणाली के तहत वस्तु प्राप्त करने वाला व्यक्ति उपभोक्ता नहीं होता। दूसरा, वस्तु या सेवा की प्राप्ति का निर्धारण तब माना जाएगा जब उपभोक्ता के द्वारा क्रय के द्वारा वह निर्धारित किया गया हो। जैसे, उपहार या किसी वसियत के द्वारा बिना किसी निर्धारण की वस्तु या सेवा प्राप्त करना व्यकित को उपभोक्ता की श्रेणी में नहीं रखता है। तीसरी, वस्तु या सेवा की खरीद उपभोक्ता द्वारा प्रत्यक्ष उपभोग के लिए आवश्यक है। जैसे कि, किसी व्यक्ति द्वारा किसी वस्तु को पुन: बेचने या किसी वाणिजियक उद्देश्य, जैसे पुनर्निर्माण या पुनर्चक्रण आदि के उद्देश्य से किसी निश्चित वस्तु या सेवा खरीदने से उसे उपभोक्ता की श्रेणी में नहीं रखा जाएगा।

 


उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 व्यक्तिगत तथा किसी खास व्यक्ति विशेष के परिप्रेक्ष्य में उपभोक्ता के बारे में एक विशेष अवधारणा का स्पष्टीकरण करता है। इस अधिनियम की धारा 2(1)(घ) के अनुसार, उपभोक्ता वह व्यक्ति है जो वस्तु या सेवा को अपने लिए निर्धारित फायदे या उपभोग के लिए खरीदता है या किराए पर लेता है या प्राप्त करता है जिसका मूल्य या तो अदा कर दिया गया हो या अदा करने का वचन दिया हो या आंशिक भुगतान या किसी अन्य पद्धति के तहत भुगतान किया गया हो। यह अधिनियम उन लोगों को  स्पष्टत: उपभोक्ता की श्रेणी में नहीं रखता है जो वस्तु या सेवाओं की प्राप्ति किसी वाणिजियक उद्देश्य के लिए करते हैं। वाणिजियक उद्देश्य के तहत उसे भी शामिल नहीं किया गया है, यदि वह व्यक्ति कोई वस्तु खरीदे और स्वरोजगार द्वारा जीविकोपार्जन हेतु उसकी सेवा खुद ले। उल्लेखनीय है कि भारत की जनसंख्या का एक बड़ा भाग छोटे-छोटे दुकानों जैसे खुदरा विक्रेता, विनिर्माण इकाई आदि द्वारा स्वरोजगार के तहत जीविकोपार्जन करते हैं इसके लिए वे बड़े-बड़े व्यापारियों या उत्पादकों से वस्तु या सेवाएं खरीदते हैं। लेकिन उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत इस तरह के व्यवसाय को शामिल नही करने से बड़ी संख्या में लोगों को बाजार के सिद्धांतहीन एवं लालची बड़े-बड़े व्यवसायियों के सामने इन्हें लाचाार बना देते हैं और यह इस अधिनियम के सुचारू रूप से लागू होने के उद्देश्य  में बाधा उत्पन्न करता है।

 


वस्तु एवं सेवाओं की अवधारणा 
(Concept of goods and Services)

 


साधारणत:, वस्तु से तात्पर्य पूर्ण रूप से गतिमान उत्पाद है जो व्यक्तियों द्वारा उपभोग के योग्य हो। जबकि कानूनी शब्दों में, वस्तु से अभिप्राय प्रत्येक प्रकार के गतिमान उत्पाद या संपत्ति से हैं जो बेचा जा सके। इस प्रकार, ऐसी वस्तु जैसे स्टाक, शेयर, कापीराइट, ट्रेडमार्क, पेटेंट एवं डिक्री आदि सभी वस्तु हैं। बिक्री कर आयुक्त बनाम मध्य प्रदेश विद्युत बोर्ड (ए आइ आर 1970 एस सी 732) के प्रसिद्ध वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि गतिमान गुण वाली वस्तु का अर्थ संकुचित अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए क्योकि बिजली स्पष्ट दिखाई देने वाली चीज नहीं है, इसे न ही छुआ जा सकता है और इसे न ही किताब या लकड़ी की तरह इधर से उधर घुमाया जा सकता है, इसे गतिमान संपत्ति की तरह रोका नहीं जा सकता जबकि ऐसी संपत्ति के अन्य सारे गुण उसमें हैें। अन्य गतिमान संपत्ति की तरह इसे भी प्रेषित किया जाता है, भेजा जाता है, प्रदान किया जाता है, संग्रह किया जाता है, नियंत्रित किया जा सकता है, इसलिए इसे 'वस्तु के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है। इस प्रकार इसी तरह के तर्क के आधार पर पानी, हवा, गैस एवं वाष्प भी 'वस्तु की अवधारणा में समाहित हैं। 


वस्तु की तरह सेवा को भी साधारण तथा तकनीकी शब्दों में परिभाषित किया जा सकता है। साधारणत:, किसी भी व्यवसायियों द्वारा पैसों के निर्धारण के लिए निर्धारित विशेष प्रकार के प्रावधान ही सेवा हैं। तकनीकी दृष्टि से उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के धारा 2(1) (ण) के अनुसार 'सेवा से तात्पर्य वह सेवा है जो बैंकिंग, वित्तीय संस्थान, बीमा, परिवहन, विनिर्माण, विद्युत या अन्य ऊर्जा की सप्लाई, बेडिंग एवं ठहराव, आवास निर्माण, मनोरंजन, समाचार या अन्य सूचना प्रेषित करना आदि के उपयोग करने वालों के लिए उपलब्ध हो। अधिनियम के अंतर्गत उन सेवाओं को 'सेवा के अन्तर्गत नहीं रखा जाता जो मुफ्त सेवा या व्यकितगत सेवा किसी शर्त के अधीन मिलती हो।

 


उपभोक्ता अधिकार 
(Consumer Rights)

 


विज्ञान एवं प्रौधोगिकी के तेजी से विकास की ओर अग्रसर होने के कारण तकनीकी एवं उच्च विशेषता वाले असहज उत्पादों के निर्माण होने से उपभोक्ताओं में उनके उपभोग के लिए सस्ता एवं अच्छा उत्पाद के चुनाव के लिए व्यापक संशय उत्पन्न हो गया है। आधुनिक व्यापारिक तकनीकों और लुभावने विज्ञापनों पर विश्वास कर लोग वस्तु को खरीद तो करते हैं परन्तु यह उनके उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती है। उपभोक्ता के हितों की देखरेख के लिए संगठनों के अभाव होने से यह समस्या और भी जटिल हो जाती है। इसी परिसिथति को देखते  हुए उपभोक्ता के हितों की रक्षा के लिए कई संस्थागत प्रणाली की शुरूआत विभिन्न देशों में की गई।

 


बीसवीं शताब्दी में पहली बार महात्मा गांधी का ध्यान उपभोक्ता अधिकारों की ओर गया जिनका यह मानना था कि सभी व्यवसाय उपभोक्ता की संतुष्टि  के लिए होते हैं। कुछ समय पश्चात उपभोक्ता अधिकारों पर चर्चा संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार संबंधी विषयों पर भी हुआ। उपभोक्ता अधिकारों पर पहला वक्तव्य अमेरिका के राष्ट्रपति जान एफ. कैनेडी के द्वारा दिया गया। इन्होंने 15 मार्च 1962 को कांग्रेस को संबोधित करते हुए मूलभूत उपभोक्ता अधिकारों को परिभाषित करते हुए उन्हें मान्यता दी। तत्पश्चात संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार के घोषणा पत्र में सुरक्षा का अधिकार, सूचना पाने का अधिकार, चुनाव या पसंद का अधिकार एवं मानवाधिकार के अन्तर्गत सुनवाई या अपील का अधिकार आदि को शामिल किया गया। 15 मार्च को प्रत्येक वर्ष विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस के रूप में मनाये जाने की घोषणा की गई।

 


उपभोक्ता संघों के अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के गठन से उपभोक्ता अधिकारों के लिए चल रहे आंदोलनों को एक नया आयाम मिला। देश के हर क्षेत्र में उपभोक्ता अधिकारों को कार्यान्वित करने एवं लोकप्रिय बनाने के लिए भारत में भी भारतीय उपभोक्ता संगठनों के संघ की स्थापना हुई। उपभोक्ता अधिकारों की सूची में और कई नये अधिकार शामिल हुए। उपभोक्ता अधिकारों की रक्षा के लिए एक नयी प्रणाली के गठन की मांग उठी।

 

 


उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के अंतर्गत उपभोक्ता अधिकार
(Rights of Consumer under the Consumer Protethion Act, 1986)

 


विभिन्न संगठनों द्वारा सुझाए गए उपभोक्ता के अधिकारों को तब तक महत्ता नहीं मिलती है जब तक उसे कानूनी रूप से नहीं दिया जाता। उपभोक्ता के अधिकारों को सुचारू रूप से लागू करने और उन्हें कानूनी रूप प्रदान करने के लिए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 निम्नलिखित उपभोक्ता अधिकारों का वर्णन करता है।

 


घातक वस्तुओं के विरूद्ध सुरक्षा का अधिकार - उपभोक्ता का प्रथम अधिकार सुरक्षा का अधिकार है। उसे ऐसी वस्तुओं एवं सेवाओं से सुरक्षा प्राप्त करने का अधिकार है जिनसे उसके शरीर एवं संपत्ति को हानि पहुंचती हो। इसलिए व्यक्तियों की सुरक्षा एवं स्वास्थ्य को देखते हुए व्यापारी ऐसे किसी भी वस्तु को, जो उन्हें हानि पहुंचाए, प्रचलन में न लाने का पूर्णत: उत्तरदायी होगा।

 


सूचना पाने का अधिकार - सूचना के अधिकार, 2005 के लागू होने से पहले ही उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986, के तहत उपभोक्ताओं को वस्तुओं या सेवाओं के गुण, मात्रा, क्षमता, शुद्धता, मानक एवं कीमत के बारे में सूचना पाने का अधिकार था जिससे वस्तु विक्रेता या सेवा देने वाले के द्वारा गलत व्यवहार से उपभोक्ता की सुरक्षा हो सके। इसलिए उपरलिखित मामलों के बारे में ग्राहकों को व्यापारियों द्वारा किसी भी हिस्से में गलत खबर देने पर उपभोक्ता विवाद निवारण मंच के बनने से पहले भी न्यायालय द्वारा न्याय पाने का अधिकार था। 

 

चुनाव या पसंद का अधिकार - यह अधिनियम बाजार और बाजारी सेवा के ऐसे संगठन की आवश्यकता पर बल देता है जो इस बात को सुनिशिचत करे कि डीलर ऐसी वस्तु या सेवा प्रदान करे जो उपभोक्ताओं के हित में हो। उपभोक्ता अपने इस अधिकार के अन्तर्गत विभिन्न निर्माताओं द्वारा निर्मित विभिन्न ब्रांड, किस्म, गुण, रूप, रंग तथा मूल्य की वस्तुओं में से किसी भी वस्तु का चुनाव करने को स्वतंत्र होगा।

 


सुनवाई या अपील का अधिकार - उपभोक्ता को अपने हितों को प्रभावित करने वाली सभी बातों को उपयुक्त मंच के समक्ष प्रस्तुत करने का अधिकार है। वे अपने इस अधिकार का उपयोग करके व्यवसायी एवं सरकार को अपने हितों के अनुरूप निर्णय लेने तथा नीतियां बनाने के लिए बाध्य कर सकते हैं। सुनवाई का अधिकार ही वह अधिकार है, जिसके द्वारा वह अपनी शिकायत को व्यक्त कर सकता है तथा अपने अन्य उपभोक्ता अधिकारों की रक्षा कर सकता है। 

 

उपचार का अधिकार - यह अधिकार उपभोक्ता को यह आश्वासन प्रदान करता है कि क्रय की गई वस्तु या सेवा उचित एवं संतोषजनक ढंग से उपयोग में नहीं लायी जा सकेगी तो उसे उसकी उचित क्षतिपूर्ति प्राप्त करने का अधिकार होगा।

 


उपभोक्ता शिक्षा का अधिकार - उपभोक्ता को उन सब बातों की शिक्षा या जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है जो उपभोक्ता के लिए आवश्यक होता है। उपभोक्ता को उनकी आवश्यकता के अनुसार उत्पाद या सेवा के चयन में दी गई सीमित जानकारी के कारण कंपनियों द्वारा जाने या अनजाने में वे प्राय: ठगे जाते हैं। इस सिथति में उपभोक्ता को जानकारी प्राप्त करने का पूरा अधिकार होता है। उपभोक्ता को उसे स्थिति में शिक्षा या जानकारी पाने का पूरा अधिकार है जिसमें उसे लगता है कि उसके साथ नाइंसाफी की गई है। उसके दावे के लिए उपचारों के लिए एक उपयुक्त संस्थागत व्यवस्था होना चाहिए। शिक्षा उपभोक्ता की जागरूकता की आधारभूत आवश्यकता है, जबकि सूचना किसी क्रय की जाने वाली वस्तु या सेवा के संबंध में जानकारी है। उपभोक्ता शिक्षा का अधिकार उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की सफलता की कुंजी है।

 


उपभोक्ता के संवैधानिक अधिकार - उपभोक्ता मूलत: देश का एक नागरिक होता है। भारत का संविधान भी अपने मौलिक अधिकारों तथा नीति निर्देशक तत्वों के प्रावधानों के अंतर्गत देश के लोगों की व्यापक भलाई के लिए काम करता है, उसी प्रकार इस भाग के कुछ प्रावधान उपभोक्ता के रूप में नागरिकों के वस्तु या सेवाओं के मामले से भी जुड़े हुए हैं। इससे संबंधित अनुच्छेद हैं - भाग 3 के अनुच्छेद 21 तथा भाग 4 क के अंतर्गत 51ए(ख) एवं 51ए(छ) विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

 


संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत व्यक्तियों को प्राप्त जीवन संरक्षण तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार के द्वारा दिए गए महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार से देश के नागरिकों के साथ-साथ उपभोक्ताओं के अधिकारों की भी रक्षा होती है। व्यकितगत स्वतंत्रता या जीवन के अधिकार को सीमित करने के विरूद्ध रक्षोपाय के इस गुण के अंतर्गत देश के नागरिकों को स्वत: उनसे सुरक्षा पाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है जो वस्तु या सेवाओं के उपभोग के कारण उनके जीवन या व्यकितगत स्वतंत्रता पर खतरा उत्पन्न करे। नागरिकों के इन अधिकारों की सुरक्षा हेतु सरकार कंपनियों तथा व्यवसायों को नियमित करने के लिए आवश्यक शक्ति का इस्तेमाल करती है।

 


संविधान के प्रावधानों से उपभोक्ता के लिए अन्य अधिकारों के अंतर्गत स्वस्थ पर्यावरण का अधिकार है जो लोगों के स्वस्थ, खुशनुमा एवं संतुष्ट जीवन को सुनिशिचत करते हैं। इस दिशा में मूलभूत कानूनों की व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय उधोगों या अन्य विकासात्मक क्रियाकलापों से पर्यावरण प्रदूषित होने जैसे मामलों से संबंधित विवादों में की है। उदाहरणत: टी दामोदर राव बनाम नगर निगम, हैदराबाद (ए आइ आर 1987 ए पी 171) के केस में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि धीमे जहर के फैलने से प्रभावित हुए पर्यावरण द्वारा वातावरण दूषित व नष्ट होता है जिसे अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्राप्त अधिकारों का उल्लंघन माना जाएगा। इससे स्वस्थ पर्यावरण का अधिकार एक प्रमुख मौलिक अधिकार के रूप में उभरा जिसके बाद इस मामले पर कई बार जागरूक व्यक्तियों एवं संगठनों द्वारा लोक हित को ध्यान में रखते हुए इस तरफ न्यायालयों का ध्यानाकर्षण कराया गया है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया वह फैसला जिसमें कहा गया कि राष्ट्रीय राजधानी के लोगों को वायु प्रदूषण के बढ़ते खतरों से बचाने हेतु दिल्ली के सभी सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था में दावित प्राकृतिक गैस (सी.एन.जी) का अनिवार्य रूप से इस्तेमाल हो, स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार का एक महत्वपूर्ण उदाहरण हैं।

 

 


वस्तु विक्रय अधिनियम के अंतर्गत उपभोक्ता अधिकार
(Consumer Rights under the sale of goods Act)

 


उपभोक्ता अधिकारों की सोच की लोकप्रियता में वृद्धि होने तथा उससे संबंधित व्यापक उपभोक्ता अधिकारों के लागू होने से पहले ही औपनिवेशिक काल में वस्तु विक्रय अधिनियम 1930 लागू किया गया था जिसके अंतर्गत लोगों द्वारा वस्तुओं की खरीद से संबंधित कुछ अधिकारों की रक्षा का प्रावधान रखा गया था। इस संबंध में उपभोक्ताओं को मिले अस्वीकार का अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकार मिला था। इसका अर्थ यह है कि उपभोक्ता को उन वस्तुओं को अस्वीकार करने का पूरा अधिकार है जो उनके उद्देश्य पर न तो खड़े उतरते हैं और जिनके बारे में भ्रांतियां उत्पन्न की गर्इ हों। वस्तु को अच्छी हालत वाले गुणों के अभाव में भी अस्वीकार किया जा सकता है। उन्हें बड़े पैमाने पर खरीदी गर्इ वस्तु को भी लौटाने का अधिकार है यदि वह वस्तु उसके नमूने के गुणों से भिन्नता रखता हो। वस्तु विक्रय अधिनियम के अंतर्गत प्राप्त उपभोक्ता अधिकार ऐसे अधिकारों की महत्वपूर्ण व्यवस्था के बिना ही यह महत्वपूर्ण प्रकृति का हो गया। पहले उपभोक्ता के अस्वीकार के अधिकार सिर्फ वस्तु की खरीद से संबंधित ही थे। एक बार वस्तु खरीदने पर तथा उपभोक्ता द्वारा उसमें कुछ खामियां पाए जाने पर वह खरीद के बाद की स्थिति में उसे अस्वीकार नहीं कर सकता। इस संबंध में वस्तु विक्रय अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत उपभोक्ता को जिससे वस्तु खरीदी गई हो, चाहे वह वस्तु निर्माता हो या न हो, के खिलाफ कानूनी लड़ाई के लिए कठिन प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। उपभोक्ता के अन्य अधिकारों में यह अधिनियम खरीददार को ऐसी लेन-देन की सिथति में कुछ शर्तों एवं सिथतियों में सुरक्षा भी प्रदान करता है। जबकि खरीददारों के ऐसे अधिकार को सामान्यत: विक्रय द्वारा भूल-चूक लेनी देनी के लिए माफी मांगे जाने के द्वारा शून्य कर दिया जाता है।

 

 


सीपीए 1986 के अधीन शिकायतकर्ता और शिकायतें
(Complainant and Complaints unders the CPA, 1986)

 


उपभोक्ता अधिकार की दृषिट से सी.पी.ए. 1986 का एक उल्लेखनीय भाग शिकायत प्रणाली से संबंधित प्रावधान है जो उपभोक्ताओं को राहत प्रदान करता है। इस अधिनियम की धारा 2(ख) के अनुसार शिकायतकर्ता की अवधारणा की व्याख्या की गयी है जिसके अंतर्गत लोगों के बड़े समूह या संगठन भी शिकायतकर्ता हो सकते हैं। इसके अनुसार शिकायत सिर्फ उपभोक्ता के द्वारा ही दर्ज नहीं की जा सकती, बल्कि इसे कोई पंजीकृत स्वैचिछक उपभोक्ता संघ भी दर्ज कर सकता है चाहे संबंधित व्यकित उसका सदस्य हो या न हो। इसके अलावा, केंद्र तथा राज्य सरकार को भी उपभोक्ता के अधिकार के रक्षोपाय हेतु शिकायत दर्ज कराने का अधिकार है। अधिनियम के अनुसार शिकायत एक या अधिक उपभोक्ता भी दर्ज करा सकते हैं जहां उन उपभोक्ताओं के एक समान हित प्रभावित हो रहे हों। यदि किसी की मृत्यु हो गयी है और उसने अपने जीवन काल में ऐसी शिकायत की है तो उसके उत्तराधिकारी या प्रतिनिधि को भी इस संदर्भ में शिकायत दर्ज कराने का अधिकार होगा। कानूनी उत्तराधिकार या प्रतिनिधि द्वारा भी शिकायत दर्ज कराया जा है। 

 


अधिनियम के अनुसार शिकायत उस तिथि से दो वर्ष के अंदर दर्ज कराना आवश्यक है जिस दिन इस तरह की अनियमितता स्पष्ट हुई है। जबकि कुछ मामलों में देर से शिकायत दर्ज करने पर भी उसे स्वीकार किया जा सकता है यदि शिकायत निवारण तंत्र देरी के समुचित कारणों से संतुष्ट हों। ऐसी देरी को स्वीकार करने में अधिकरण की संतुषिट के लिए विशेष कारणों को रिकार्ड भी किया जाता है। इसलिए एक उपभोक्ता वस्तुओं के विक्रेता के साथ-साथ वस्तुओं के निर्माताओं के खिलाफ दोषपूर्ण वस्तु पाने की दशा में शिकायत दर्ज कर सकता है। शिकायत दर्ज करने की प्रक्रिया खराब वस्तुओं या खराब सेवाओं की मौद्रिक शक्ति तथा काम करने के भौगोलिक क्षेत्र द्वारा निर्धारित होता है। दूसरे शब्दों में, वस्तुओं से संबंधित विभिन्न मौद्रिक कीमतों का उचित राशि की शिकायत के लिए उपयुक्त उपभोक्ता फोरम निर्धारित है, जैसे जिला फोरम, राज्य फोरम तथा राष्ट्रीय फोरम। इसी प्रकार कार्रवाई के न्यायिक क्षेत्राधिकार की सिथति भी उस स्थान से निर्धारित होते हैं जिस भौगोलिक क्षेत्र में विपक्षी पार्टी व्यवसाय करती है तथा उसी क्षेत्र में ही शिकायतकर्ता के दावों की सुनवाई भी की जाती है।

 


कार्यप्रणाली
(Causes of Action)

 


सीपीए 1986 के अंतर्गत उपभोक्ता की शिकायतों को निपटाने के लिए व्यापक व्यवस्था की गई है जिसके अंतर्गत तीन मुख्य आधार हैं जहां उपभोक्ता अपनी लिखित शिकायत उपयुक्त प्राधिकारण के पास दर्ज करा सकती है -

 


1.    गलत एवं प्रतिबंधित व्यापारिक गतिविधियां (Unfair and Restrictive Trade Practices)

 


गलत व्यापारिक गतिविधियों को अधिनियम में परिभाषित करते हुए कहा गया है कि अपनी वस्तुओं के उपयोग एवं निर्गत करने या सेवाओं को बेचने के लिए किसी भी तरह की धोखेबाजी की कार्रवाई को गलत व्यापारिक गतिविधि माना जाएगा। गलत व्यापारिक गतिविधियों के बारे में अनिशिचत व्याख्या के कारण उपभोक्ता अपने ज्ञान के आधार पर कई गलत व्यापारिक गतिविधियों को उनके हितों के खिलाफ पाते हैं। ऐसी गतिविधियां बड़ी संख्या में हो रही है जो गलत हुए भी सही का आवरण ओढ़े हुए हैं। व्यापारी की ओर से लिखित या मौलिक प्रस्तुतिकरण द्वारा झूठी वस्तु प्रस्तुत कर गलत व्यापारिक गतिविधियां करते हैं। ऐसे प्रस्तुतिकरण या वक्तव्य कुछ निशिचत वस्तु या सेवा के मानक, गुण, श्रेणी, माडल आदि से संबंधित हो सकते हैं।

 


        एक अन्य गलत व्यापारिक गतिविधियां तब नजर आती है जब व्यापारियों द्वारा समय-समय पर झूठी पेशकश या छूट को विज्ञापित किया जाता है। अधिकांश ऐसे पेशकशों जैसे - एक के साथ एक मुफ्त, अतिउच्चतम स्तर प्रतिशत पर छूट, वस्तुओं को घर पहुंचाने की मुफ्त व्यवस्था, पुराने सामान से नए सामान को बदलने की पेशकश आदि में व्यापारी व्यापार से संबंधित मौदि्रक या कीमत स्तर पर झूठा प्रस्तुतिकरण करती है। वस्तु पर अंकित पेशकश ऊपरी कोने पर एक स्टार () का चिहन अंकित रहता है जो व्यापारियों द्वारा दिए गए झूठे पेशकश की सच्चार्इ बतलाता है। इस चिहन () के पीछे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि प्राय: उपभोक्ताओं द्वारा इस चिहन को अनदेखा कर दिया जाता है और व्यापारी इस चिहन के आधार पर उपभोक्ता अदालत में अपने द्वारा दिए गए झूठे पेशकश से बच निकलता है। इसलिए यह आवश्यक है कि उपभोक्ता गंभीरता पूर्वक ऐसी पेशकशों की जाँच करे जिससे वे धोखेबाज व्यापारियों से बच सकें।

 


    व्यापारियों द्वारा गलत व्यापारिक गतिविधियों के प्रति झुकाव की प्रवृत्ति एक अन्य प्रकार से तब नजर आती है जब वो अपने सामान की खरीद के साथ कुछ उपहार, पुरस्कार आदि देते हैं। अपनी बिक्री को बढ़ाने के लिए या अपने व्यवसाय का विस्तार करने के लिए लक्षित ऐसी घोषणा प्राय: उपभोक्ताओं को लुभाने के लिए होते हैं जबकि ऐसी पेशकशों पर व्यापारियों एवं उपभोक्ताओं के बीच सामंजस्य का अभाव होता है। सामान्यत: ऐसी पेशकश उपभोक्ताओं को यह कहा जाता है कि अमुक वस्तु के साथ दूसरी वस्तु बिना किसी कीमत के दी जाती है जबकि वास्तविकता यह है कि मुफ्त में दी जाने वाली वस्तु की कीमत उसमें शामिल नहीं की जाती है तो बेची जाने वाली वस्तु के गुण, मानक, माडल आदि में कमी की जाती है जो व्यापारियों के द्वारा पेश की जाती है। आजकल कंपनियों द्वारा एक नया पहलू अपनाया जा रहा है, वह ग्राहकों को अपने निशिचत सामान खरीदने पर एक मिलन पार्टी या देश-विदेश भ्रमण कराने का वादा करते हैं। इसके अलावा, उपभोक्ताओं को लाटरी या भाग्य आधारित खेल के द्वारा कुछ पुरस्कार देने का प्रावधान भी गलत व्यापारिक गतिविधियों की श्रेणी में आता है।

 


    उल्लेखनीय है कि सीपीए 1986 के अंतर्गत गलत व्यापारिक गतिविधियों की व्यापक व्याख्या नहीं की गयी है और न ही इसके विभिन्न पहलुओं को पहचाना गया है। आम धारणा यह है कि कोई भी सिद्धान्तहीन या बेईमानी की भावना से व्यापारियों द्वारा उनके व्यवसाय बढ़ाने या उनके उत्पादों को बेचने के लिए उपभोक्ताओं को ठगे जाने की प्रवृति गलत व्यापारिक गतिविधियों को दर्शाती है। इसलिए यह धारणा आजतक यही बनी हुई है कि उपभोक्ता के हितों को ठेस पहुंचाने वाली गतिविधियां गलत व्यापारिक गतिविधियां होती हैं।

 


2.    दोषपूर्ण वस्तु (Defective Goods)

 


सीपीए 1986 के प्रावधानों के अंतर्गत वस्तुओं के दोष की व्याख्या की गई है। इसके अनुसार उपभोक्ताओं के आशानुरूप बेचे जाने वाली वस्तु में संरचनात्मक दोष या उसके मानक स्तर में कमी जो कानून के या व्यापारियों के वादे के अनुरूप न हो, दोषपूर्ण वस्तु हैं। अधिनियम के धारा 2(1) (च) वस्तुओं के किसी दोष, गुणों, संख्याओं, क्षमताओं, शुद्धताओं, मानकों आदि में कमी के आधार पर दोषपूर्ण वस्तु की व्याख्या करता है। व्यवहारत: इस कानून के तहत यही कहा गया है कि या तो निशिचत उत्पादों के गुणों का अनुपालन हेतु कानून बने या व्यापारी स्वयं इस शर्त का पालन करे कि वह वस्तुओं की गुणवत्ता बनाए रखेंगे, जिससे उपभोक्ताओं को उनके आशानुरूप वस्तुएं मिल सके। वस्तु निर्माता की तरफ से या व्यापारी के तरफ से किसी भी प्रकार के दोषपूर्ण सामान की प्रापित होने पर उपभोक्ता उपयुक्त फोरम के पास मुआवजा मांगने जा सकता है।

 


सेवा में गिरावट 
(Deficiency in Services)

 


जिस प्रकार वस्तुओं की दोषपूर्ण सिथति उसकी संरचनात्मक बनावट में गुणों की कमी पर आधारित है उसी प्रकार सेवा में गिरावट सेवा प्रदाताओं द्वारा दी गई असंतुष्ट सेवा पर आधारित है। अधिनियम के धारा 2(1) (छ) के अंतर्गत कहा गया है कि सेवा में आए किसी प्रकार के दोष, अक्षमता, गुणों में कमी, प्रकृति में कमी, मानक तथा भूमिका में कमी जिसमें सुधार की गुंजाइश हो, दोषपूर्ण सेवा के अन्तर्गत आता है। इसलिए दोषपूर्ण सेवा का विस्तार बिक्री प्रमाणपत्र से लेकर परीक्षण प्राधिकरण द्वारा जांचोंं के जांच परिणाम देरी से निकालने तक है। इसका अपवाद यह है कि सेवा की कीमत के मामले में उपभोक्ता किसी प्रकार की शिकायत या दावा नहीं कर सकता।

 


उपभोक्ता सुरक्षा परिषद 
(Consumer Protection Council)

 


उपभोक्ता सुरक्षा नीतियों का विभिन्न स्तर पर समीक्षा करने तथा भारतीय समाज में उपभोक्ता अधिकार को मजबूती प्रदान करने की वकालत करते हुए, सी. पी. ए. 1986, राज्य तथा राष्ट्र स्तर पर तीन उपभोक्ता सुरक्षा परिषद की स्थापना का प्रावधान करता है। इसमें निजी सहभागिता पर भी जोर दिया गया है जो उपभोक्ता अधिकार संरक्षण के क्षेत्र की नीतियों को बेहतर सुविधा प्रदान कर सके। केंद्रीय परिषद जिसमें एक अध्यक्ष एवं कुछ अन्य सरकारी एवं गैर सरकारी सदस्य, (केंद्र सरकार के उपभोक्ता मामलों के विभाग से संबंधित मंत्री) जिन्हें समय-समय पर इस हेतु निर्धारित किया जाता है, होंगे। यह अति महत्वपूर्ण है कि विभिन्न हित समूहों से संबंधित नागरिक एवं संगठन जो उपभोक्ता अधिकार के लिए तत्पर रहते हैं, का यदि ऐसी परिषदों में प्रतिनिधित्व हो तो परिषदों में सरकारी अधिकारियों के साथ वे सहयोगी हो सकते हैं और वे उपभोक्ता के अधिकारों की सुरक्षा के लिए आवाज भी उठा सकते हैं।

 


उपभोक्ता सुरक्षा परिषद का मूल उद्देश्य उपभोक्ता के अधिकारों की सुरक्षा तथा प्रोत्साहन के लिए नीतियों एवं कार्यक्रमों को विभिन्न स्तर पर अपनाने के लिए सरकार की मदद करना है। इस उद्देश्य के लिए परिषद को दो वर्ष में कम-से-कम एक मीटिंग करना अनिवार्य है। एक तरफ परिषद उपभोक्ता के अधिकार के संरक्षण तथा प्रोत्साहन के लिए लक्षित सरकारी नीतियों एवं कार्यक्रमों की देखभाल का काम करती है तो दूसरी तरफ समाज के उपभोक्ताओं के सामान्य हितों के विकास के लिए भी काम करती है।

 


उपभोक्ता विवाद निवारण एजेंसी 
(Consumer Disputes Redressal Agencies)

 


उपभोक्ताओं की शिकायतों को प्रभावी ढंग से निबटाने हेतु सी.पी.ए. 1986 ने जिला, राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर उपभोक्ता विवाद निवारण न्यायिक इकाई का गठन भी किया है। इन एजेंसियों का गठन उनके अधिकार के अनुरूप उपयुक्त सरकार करती है। सामान्यत: उपभोक्ताओं की शिकायत निम्न स्तर की इकाई से होकर ही जाती है और उच्चतर इकाई के पास मामले सिर्फ अपील के रास्ते जा सकते हैं। राष्ट्रीय आयोग के आदेश के विरूद्ध अंतिम अपील सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती है जिसके द्वारा मामले के संबंध में दिए गए निर्णय अंतिम होंगे और वो सभी पक्षों के लिए बाध्यकारी हाेंगे। इन न्यायिक इकाइयों में सुनवाई सी.पी.ए. 1986 के नियमों के अनुरूप होती है जो सामान्य न्यायिक सिद्धांत के समान होता है। ये एजेंसी शिकायतों की सुनवाई जल्द-से-जल्द करती हैं। ऐसे मामलों की सुनवाई 5 महीने के भीतर करनी होती है। इस प्रकार ये एजेंसी आम उपभोक्ताओं को कम खर्चीला तथा त्वरित न्याय दिलाने का काम करती हैं।

 


जिला उपभोक्ता विवाद निवारण फोरम (जिला फोरम)

District Consumer Disputes Redressal Forum (District Forum)

 


उपभोक्ता विवाद निवारण एजेंसी के पदानुक्रम में सबसे नीचे की एजेंसी जिला फोरम है जिसकी स्थापना शिकायतों का न्यायिक निपटारा करने हेतु किया गया है जहां मुआवजा की राशि बीस लाख रूपये से अधिक नहीं होगी। सामान्यत: जिला फोरम में एक अध्यक्ष तथा दो अन्य सदस्य होते हैं। अध्यक्ष पद पर वही व्यक्ति नियुक्त होते हैं जो वर्तमान में या पूर्व में जिला न्यायाधीश रहे हों या उसके बनने योग्य हों और उसकी नियुक्ति राज्य सरकार करती है। अन्य दो सदस्य शिक्षा, व्यापार या वाणिज्य के क्षेत्र से संबंधित होने चाहिएं और इनमें से एक का महिला होना आवश्यक है। शैक्षणिक स्तर पर जिला फोरम के सदस्यों के लिए कम-से-कम स्नातक होना जरूरी होगा। जिला फोरम को निष्पक्ष तथा स्वायत्त रूप से कार्य करने के लिए राज्य सरकार इसके सदस्यों की नियुकित एक चुनाव समिति के सुझाव पर करती है। इस चुनाव समिति में राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के अध्यक्ष, विधि विभाग के सचिव, राज्य के उपभोक्ता मामलों को देखने वाले विभाग के सचिव होते हैं। सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्ष तक या 65 वर्ष की आयु तक होता है किंतु सदस्यों के पुन: उसी पद पर नियुकित का प्रावधान नहीं है। 

 


जिला फोरम के न्यायिक क्षेत्राधिकार में किसी भी मामले को भेजने से पहले उस मामले की योग्यता एवं उपयुक्तता की जांच शिकायत फोरम करती है तभी जिला फोरम में शिकायत दर्ज की जाती है। लिखित शिकायत के साथ-साथ शिकायतकर्ता को फोरम द्वारा शिकायत दर्ज करने से पहले उपयुक्त शुल्क देना भी आवश्यक है। एक बार शिकायत दर्ज होने के बाद फोरम शिकायत की एक काॅपी विपक्षी पार्टी को भेजता है जिसमें उसे 30 दिनों के भीतर शिकायत के प्रति जवाब देने को कहा जाता है। इसकी अवधि को अधिकतम 15 दिन और बढ़ाया जा सकता है। सामान्यत: शिकायत के जवाब में विपक्षी पार्टी शिकायत की अवहेलना नहीं करता। इस प्रकार जिला फोरम अर्धन्यायिक फोरम की तरह निष्पक्ष एवं स्वतंत्र होकर काम करता है। पार्टी के दावों एवं प्रत्यक्ष दावों की जांच हेतु फोरम जांच, परख और वैज्ञानिक मदद ले सकता है। 

 


एक बार जिला फोरम द्वारा जांच प्रक्रिया पूरी होने के बाद अंतिम निर्णय पर किसी दस्तवेजी साक्ष्य की उपलब्धता के आधार पर पहुंचता है। यह विपक्षी पार्टी द्वारा शिकायतकर्ता से एक उपयुक्त रास्ते के अंतर्गत मामले सुलझाने के लिए उचित आदेश जारी कर सकता है। जिला फोरम द्वारा प्रयोगशाला में जांच-पड़ताल के बाद शिकायतकर्ता को या तो उस वस्तु की कीमत या सेवा में लगी खर्च के भुगतान के रूप में राहत दी जाती है। अधिनियम के धारा 14 के प्रावधान से अधिक की राहत जिला फोरम नहीं दे सकती है। जिला फोरम के निर्णय से असहमति रखने पर विपक्षी पार्टी इस आदेश के खिलाफ राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के पास तीस दिनों के अंदर अपील कर सकती है। इस अवधि में राज्य आयोग उसी शर्त पर छूट दे सकता है यदि आयोग के पास इसकी देरी के लिए पर्याप्त कारण उपलब्ध हों और वो इससे संतुष्ट हो।

 


राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (राज्य आयोग)

State Consumer Disputes Redressal Commission (State Commission)

 


राज्य उपभोक्ता निवारण आयोग राज्य के अधीन उपभोक्ताओं के दावों के निवारण की मध्यस्थता एजेंसी की तरह काम करता है। इसके अंतर्गत एक अध्यक्ष तथा दो सदस्य होते हैं। अध्यक्ष पद पर वही नियुक्त होंगे जो उच्च न्यायालय के जज की अर्हता रखते हों तथा अन्य दोनों सदस्यों के लिए अर्थशास्त्र, विधि, उधोग, प्रशासन आदि का अनुभव होना जरूरी है तथा इन दोनों में से एक महिला होना आवश्यक है। वर्तमान में, राज्य आयोग में उच्च न्यायालय के सेवानिवृत जज ही नियुक्त होते हैं। इस आयोग का न्यायिक क्षेत्र मूलत: तीन प्रकार के हैं - वास्तविक, अपीलीय तथा निरीक्षणीय। वास्तविक न्यायिक क्षेत्र के अंतर्गत आयोग उन शिकायतों की सुनवाई कर सकता है जिसमें वस्तु या सेवाओं का मूल्य एवं मुआवजा की राशि बीस लाख रूपये से लेकर एक करोड़ की राशि तक की ही हो। अपीलीय न्यायिक क्षेत्राधिकार के अंतर्गत राज्य आयोग जिला फोरम के आदेशों के खिलाफ अपील की सुनवार्इ कर सकता है। निरीक्षणीय न्यायिक क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आयोग उन सभी निर्णयों की रिपोर्ट को मंगा सकती है जो उपभोक्ता विवाद के मामले में राज्य के जिला फोरम द्वारा तैयार की गयी हो या उसके पास लंबित पड़ी हो। आयोग द्वारा इस शकित का इस्तेमाल तब जरूरी हो जाता है जब आयोग पाता है कि जिला फोरम ने अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया है या किसी न्यायिक निर्णय पर पहुंचने में वह असफल रहा है या गैर कानूनी ढंग से काम किया है या उसके द्वारा उसमें अनियमितता बरती गई है। इसके अलावा, राज्य आयोग किसी शिकायत के आधार पर या खुद ही किसी भी स्तर पर लंबित दावे को राज्य के अंदर के एक जिला फोरम से दूसरे जिला फोरम में न्याय के हित की रक्षा हेतु भेज सकता है। 


उल्लेखनीय शिकायत निपटारे का काम राज्य आयोग भी जिला फोरम की ही तरह करता है। राज्य आयोग के किसी भी निर्णय से असंतुष्ट रहने पर व्यकित राष्ट्रीय आयोग के पास राज्य आयोग के आदेश निर्गत होने से तीस दिनों के अंदर की अवधि के भीतर अपील कर सकता है।

 


राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (राष्ट्रीय आयोग)

National Consumer Disputes Redressal Commission (National Commission)

 


पूरे देश में उपभोक्ता विवादों के मामलों को निपटाने हेतु सी.पी.ए. 1986 द्वारा सर्वोच्च इकाई के रूप में राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग की अवधारणा विकसित की गई और एक राष्ट्रीय आयोग की स्थापना दिल्ली में की गई। इसके एक अध्यक्ष तथा चार अन्य सदस्य होते हैं जिसमें एक महिला का होना अनिवार्य है। अध्यक्ष पद पर वही व्यक्ति नियुक्त हो सकेगा जो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के लिए अर्ह होगा तथा अन्य सदस्यों के लिए राज्य आयोग के सदस्य की तरह अर्थशास्त्र, विधि, उद्योग, प्रशासन आदि क्षेत्र में अनुभव होना आवश्यक है। राज्य आयोग की ही तरह राष्ट्रीय आयोग के अधिकार क्षेत्र तीन प्रकार के हैं - वास्तविक, अपीलीय तथा निरीक्षणीय। वास्तविक अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत राष्ट्रीय आयोग उन्हीं मामलों की सुनवाई कर सकता है जिसमें वस्तु या सेवा का मूल्य एवं मुआवजा की राशि एक करोड़ रूपये से अधिक हो। अपीलीय अधिकार के अंतर्गत किसी भी राज्य आयोग के निर्देश के खिलाफ अपील की सुनवाई राष्ट्रीय आयोग कर सकता है। निरीक्षणीय अधिकार के अंतर्गत राष्ट्रीय आयोग किसी भी रिकार्ड की मांग कर सकता है और उपभोक्ता विवाद के मामले में उपयुक्त निर्णय भी दे सकता है जो किसी भी राज्य आयोग में निर्णय आने की प्रतीक्षा में लंबित पड़ा हो। राष्ट्रीय आयोग द्वारा ऐसी शकित का प्रयोग तब किया जाता है जब कमीशन पाता है कि राज्य आयोग ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर काम किया है या अपने न्यायिक क्षेत्र का पालन करने में असफल हुआ हो या गैरकानूनी ढंग से मामले को निपटाया हो। राष्ट्रीय आयोग किसी भी शिकायतकर्ता के आवेदन पर या स्वयं ऐसा पाने पर किसी भी लंबित मामले को एक राज्य के जिला फोरम से दूसरे राज्य के जिला फोरम में भेज सकता है, यदि आयोग को लगता है कि ऐसा करने से प्राकृतिक न्याय मिल सकेगा।

 


राष्ट्रीय आयोग उपभोक्ता विवाद निवारण के लिए सर्वोच्च संस्था के रूप में काम करता है और इसके द्वारा दिए गए निर्णय अधिनस्थ एजेंसियों के लिए आदर्श साबित होते हैं। यह अभिलेख न्यायालय और न्याय के सिद्धांत की तरह काम करता है तथा इसके द्वारा लागू किए गए आदेश अन्य प्राधिकरणों के लिए मानना आवश्यक होता है। उपभोक्ता संरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2002 के अनुसार राष्ट्रीय आयोग को अपने ही आदेश की समीक्षा करने की शक्ति मिल गई है। किसी भी मामले में कोई भी पक्ष अगर राष्ट्रीय आयोग के फैसले से संतुष्ट नहीं हो तो वे इस फैसले के खिलाफ तीस दिनों के भीतर सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकता है। सामान्यत: सर्वोच्च न्यायालय में उन्हीं मामलों को लिया जाता है जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने कानून का महत्वपूर्ण प्रश्न माना हो।

 


देश के विभिन्न स्तरों पर विवाद निवारण प्रणाली के महत्वपूर्ण कार्यों की व्याख्या सी.पी.ए. 1986 के विभिन्न प्रावधानों के अंतर्गत भी गई है। धारा 24 के अंतर्गत कहा गया है कि किस मामले में अपील को प्राथमिकता नहीं दी जा सकती है। जिला फोरम, राज्य आयोग एवं राष्ट्रीय आयोग के आदेश अंतिम होते हैं। विभिन्न फोरमों में शिकायत दर्ज कराने हेतु एक निशिचत अवधि का वर्णन किया गया है। जैसे कि, किसी भी शिकायत के प्रश्न उठने की तिथि से दो वर्ष के अंदर ही किसी भी विवाद निवारण एजेंसी के पास शिकायत दर्ज कराना आवश्यक होगा। इस मामले में देरी होने पर संबंधित पक्ष को उपयुक्त निवारण एजेंसी के पास पर्याप्त कारणों सहित लिखित आवेदन देना होगा। विवाद निवारण एजेंसी को उन शिकायतों को खारिज करने की भी शकित है जो उसे मूर्खतापूर्ण या अव्यवहारिक मामला लगे। इन मामलों में दूसरी पार्टी को मुआवजा के रूप में उचित राशि दिलाया जा सकता है, मगर यह राशि दस हजार रूपये से अधिक नहीं होगा।

 


शिकायतकर्ता एक उपभोक्ता है या नहीं, के निर्णय हेतु उपभोक्ता फोरम की स्थापना की गई तथा उसे इस मामले से संबंधित शक्तियां भी दी गई हैं। उपभोक्ता एजेंसी को शिकायत मिलने के बाद व्यापारी या किसी व्यकित को दंड देने की शकित प्राप्त है। इस दंड के अंतर्गत न्यूनतम एक महिने तथा अधिकतम तीन वर्ष का कारावास या दो हजार रूपये से लेकर दस हजार रूपये तक दंड या दोनों का प्रावधान हैं। अन्य कानूनों के अंतर्गत उपचार के न रहने से सी.पी.ए. 1986 पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। धारा 3 यह सुनिशिचत करती है कि अधिनियम के प्रावधान तत्कालीन अन्य कानूनों के प्रावधानों से तालमेल बिठाकर कार्य करेंं। परिणामत: शिकायतकर्ता के पास इस बात का पूरा अवसर होता है कि वे अपनी शिकायतों के निवारण के लिए या तो उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम या अन्य कानूनी प्रावधानों के अंतर्गत उपचार मांग करे।

 


निष्कर्षात्मक अवलोकन 
(Concluding Observations)

 


इस प्रकार स्पष्ट है कि आम उपभोक्ताओं को व्यापक सुरक्षा देने की दिशा में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम का 1986 का कार्यान्वयन एक मील का पत्थर साबित हुआ। यह सिद्धांतहीन व्यवसायियों की लालच से उपभोक्ताओं को सुरक्षा प्रदान करता है तो दूसरी तरफ बड़े-बड़े व्यवसायियों के प्रतिबंधात्मक एवं निरंकुश प्रवृति वाली व्यापारिक गतिविधियों पर भी अंकुश लगाता है। अधिनियम का एक महत्वपूर्ण गुण है कि यह अनियंत्रित व्यापारियों तथा निर्माताओं से बचाने के लिए उपभोक्ता को सस्ती, त्वरित एवं निष्पक्ष उपचार उपलब्ध कराता है। इसके अलावा, इसके अंतर्गत शिकायत का निपटारा सीधे एवं सरल तरीके से संभव हो पाता है। अन्य कानूनों की तरह इसमें पेचीदगी झेलनी नहीं पड़ती है तथा यह उपभोक्ता अधिकार के संरक्षण से पूरी तरह संबद्ध रहता है। 


हालांकि यह अधिनियम दस वर्षों से अधिक से काम कर रहा है फिर भी देश में उपभोक्ता अधिकार की सुरक्षा में संरचनात्मक तथा कार्यात्मक कुछ कमी के कारण यह प्रभावशाली भूमिका नहीं निभा पा रहा है। जैसे कि इस अधिनियम के अंतर्गत कुछ महत्वपूर्ण इकाइयों की स्थापना होनी थी जो अभी तक नहीं हो पायी है, और जो स्थापित की भी गई हैं उन पर नियंत्रण रखना मुश्किल हो रहा है जिससे उपभोक्ताओं के हितों की सुरक्षा में बाधाएं महसूस की जा रही है। इन इकाइयों को दी गई शक्ति उन्हें दिए गए उत्तरदायित्व के अनुरूप नहीं है। परिणामत: कुछ मामलों में ये इकाइयां अपने आपको प्रभावपूर्ण कार्य करने में असमर्थ पाती हैं। अपनी स्थापना के एक दशक के बाद भी ये उपभोक्ता इकाइयां लोगों को उनके उपभोक्ता अधिकार के प्रति पूरी तरह जागरूक नहीं कर पायी है। इसलिए इन उपभोक्ता इकाइयों का पहला कर्तव्य यह होना चाहिए कि वे स्वयं को यथा संभव एक आम आदमी के समान समझे तब व्यापारियों तथा निर्माताओं द्वारा ठगे जाने पर क्या कर सकते हैं, इस बात पर उन्हें गौर करना चाहिए। देश में उपभोक्ता अधिकारों के हनन के मामले बड़ी संख्या में दृषिटगोचर हैं। अस्तु इन इकाइयों का मुख्य ध्येय यह होना चाहिए कि लोगों को उपभोक्ता अधिकार के प्रति जागरूक करें ताकि वे अपनी शिकायतों के निवारण हेतु इन इकाइयों के पास जा सकें।