कर्तव्यवाद और परिणामवाद - कांट एवं मूर (Consequentialism and Deontology - Kant and Moore)
Posted on March 17th, 2020
नीतिशास्त्र का दूसरा निर्धारक सिद्धान्त कर्तव्यमूलक चिंतन है। पाश्चात्य दार्शनिक कांट की दृष्टि में मानव जीवन का लक्ष्य कर्तव्य के लिए कर्तव्य है। कांट की दृष्टि में नैतिकता स्वतः साध्य है। हमें यह प्रश्न नहीं पूछना चाहिए कि मनुष्य को क्यों नैतिक होना चाहिए क्योंकि नैतिक होना तो स्वयं आदर्श मूलक है। कांट का तर्क है कि मनुष्य को सदैव शुभ का चयन करना चाहिए। अर्थात् हमें प्रत्येक स्थिति में नैतिक बने रहना चाहिए ।
कांट का पुनः तर्क है शुभता का प्रत्यय मनुष्य की अंतः प्रज्ञा में निवास करता है। अर्थात् मनुष्य शुभ का चयन करने के लिए बाध्य है। कांट ने कहा कि सच्ची नैतिकता बाहय एवं आन्तरिक दोनों दबावों से मुक्त होती है। प्रायः लोग बाहय दबाव अर्थात् ईश्वर या समाज के भय से नैतिक बने रहते हैं। कांट का तर्क है कि यदि उनके मन से ईश्वर एवं समाज का भय निकल जाए तो उनका नैतिक बने रहना आवश्यक नहीं रह जाता। पुनः कुछ लोग आन्तरिक दबाव से प्रेरित होकर नैतिक बने रहते हैं। यह आन्तरिक दबाव भावना, संवेग, आवेग आदि हैं। लेकिन यदि कोई व्यक्ति आन्तरिक दबाव से प्रेरित होकर नैतिक है तो इसका अर्थ है कि इस दबाव के समाप्त होने पर उसके अनैतिक होने की संभावना बनी रहती है। इसलिए कांट ने कहा कि नैतिकता मानवीय बुद्धि का आदेश है। यह एक निरूपाधिक आदेश है। अर्थात् यह स्थितियों एवं परिस्थितियों पर निर्भर नहीं है, बल्कि मनुष्य को प्रत्येक परिथिति में नैतिक बने रहना चाहिए।
कांट ने बुद्धि के इस निरूपायिक आदेश को कर्तव्य के लिए कर्तव्य के रूप में परिभाषित किया। कांट की दृष्टि में नैतिकता स्वतः साध्य है। हमें अपने कर्तव्य का पालन इसलिए नहीं करना चाहिए कि इससे किसी अन्य लक्ष्य की सिद्धि होती है, बल्कि इसलिए करना चाहिए कि कर्तव्य स्वतः साध्य है। अर्थात् कांट इस संदर्भ में अपरिणामवादी से है। इसीलिए कांट ने कहा कि किसी भी कार्य का परिणाम उसके मूल्य का निर्धारण का नहीं करता, बल्कि कार्य के मूल में निहित भावना ही उसे शुभ या अशुभ बनाती है। कांट का तर्क है कि किसी भी कार्य का परिणाम पुनः अन्य कार्य का कारण बनता है। अर्थात् कार्य-कारण की यह श्रंखला अनवरत चलती रहती है। इसलिए कांट कार्य के परिणाम को महत्व न देते हुए कार्य के मूल में निहित भावना को ही निर्धारक तत्व मानते हैं।
कांट का नैतिक चिंतन कठोरवादी, स्वनिर्धारणवादी, अपरिणामवादी एवं आदर्शवादी है। आगे चलकर दार्शनिकों ने कांट के अपरिणामवाद पर आपत्ति की जिसमें प्रमुख दार्शनिक मूर हैं। मूर का तर्क है कि कार्य के मूल में निहित भावना कितनी ही शुभ क्यों न हो लेकिन यदि उससे कोई शुभ परिणाम नहीं निकलते तो उस कार्य का नैतिक मूल्य नहीं है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अर्थक्रियावादियों ने भी परिणामवाद पर अत्यधिक जोर दिया तथा इसे प्रतिबद्धता एवं उत्तरदायित्व आदि प्रत्ययों से जोड़कर देखा। इसलिए वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कांट के अपरिणामवाद पर बहुत दूर तक सहमति होना संभव नहीं है। हां कांट का स्वनिर्धारणवाद अवश्य ही नेतिक चिंतन को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाता है। कांट का मुख्य श्रेय नैतिकता को धर्म से स्वतंत्र करने में है। वर्तमान सदी धर्मनिरपेक्षतावाद की है। ऐसे में कांट की प्रासंगिकता अत्यधिक बढ़ जाती है। कांट की गणना महान दार्शनिकों में इसलिए होती है क्योंकि वह नैतिकता को धर्म से स्वतंत्र रखते हुए भी इसे पूर्णतः: परिभाषित करने में सफल रहते हैं।
भारतीय दर्शन में कर्तव्यमूलक चिंतन की प्रधानता विद्यमान रही है। भारतीय नैतिक चिंतन में मनुष्य पर तीन ऋण-देव ऋण, पितृ ऋण एवं ऋषि ऋण को स्वीकार किया गया है। इन ऋणों को पूरा करने में ही कर्तव्यों की परिभाषा दी गई है तथा सुख या आनंद परोक्ष रूप में इन कर्तव्यों को पूरा करने में निहित माना गया है। इन ऋणों को पूरा करते हुए मनुष्य प्रायः सभी सांसारिक सुखों का भोग करता है। लेकिन यहाँ सुख को केन्द्र में नहीं रखा गया है। सुख मुख्य लक्ष्य नहीं है। मुख्य लक्ष्य कर्तव्य है और कर्तव्य पालन में ही सुख निहित है। भारतीय चिंतन सुखवाद एवं कर्तव्य मूलक सिद्धान्त दोनों का सुन्दर समन्वय करता है। यद्यपि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारतीय चिंतन के ये नैतिक मूल्यों का धीरे-धीरे अवमूल्यन एवं मूल्यांतरण हुआ है।
कर्तव्यमूलक चिंतन वस्तुत: आदर्शवादी है। प्रायः लोग अपने कर्तव्य का पालन किसी अन्य लक्ष्य के लिए करते हैं अर्थात् उनके जीवन का ध्येय कर्तव्य से इतर होता है। लोग कर्तव्य के बेजा परिणाम पर अधिक केन्द्रित होते हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में परिणाम ही कार्य के मूल्य का निर्धारण करता है। लेकिन परिणामवाद और कर्तव्यमूलक चिंतन दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। वस्तुस्थिति तो यह है कि यदि कर्तव्य का पालन पूर्ण कर्तव्यबोध के साथ किया जाए तो अच्छे परिणाम स्वतःनिकलते हैं। इसीलिए वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पुनः कर्तव्य पर अत्यधिक जोर दिया जा रहा है। वास्तव में यदि कर्तव्यवाद एवं परिणामवाद की तुलना करें तो कर्तव्यवाद परिणामवाद से निःसंदेह श्रेयस्कर सिद्ध होता है। अर्थात् आज परिणामवाद के साथ- साथ कर्तव्यवाद पर भी जोर देने की आवश्यकता है।
कर्तव्यवाद और परिणामवाद - कांट एवं मूर (Consequentialism and Deontology - Kant and Moore)
नीतिशास्त्र का दूसरा निर्धारक सिद्धान्त कर्तव्यमूलक चिंतन है। पाश्चात्य दार्शनिक कांट की दृष्टि में मानव जीवन का लक्ष्य कर्तव्य के लिए कर्तव्य है। कांट की दृष्टि में नैतिकता स्वतः साध्य है। हमें यह प्रश्न नहीं पूछना चाहिए कि मनुष्य को क्यों नैतिक होना चाहिए क्योंकि नैतिक होना तो स्वयं आदर्श मूलक है। कांट का तर्क है कि मनुष्य को सदैव शुभ का चयन करना चाहिए। अर्थात् हमें प्रत्येक स्थिति में नैतिक बने रहना चाहिए ।
कांट का पुनः तर्क है शुभता का प्रत्यय मनुष्य की अंतः प्रज्ञा में निवास करता है। अर्थात् मनुष्य शुभ का चयन करने के लिए बाध्य है। कांट ने कहा कि सच्ची नैतिकता बाहय एवं आन्तरिक दोनों दबावों से मुक्त होती है। प्रायः लोग बाहय दबाव अर्थात् ईश्वर या समाज के भय से नैतिक बने रहते हैं। कांट का तर्क है कि यदि उनके मन से ईश्वर एवं समाज का भय निकल जाए तो उनका नैतिक बने रहना आवश्यक नहीं रह जाता। पुनः कुछ लोग आन्तरिक दबाव से प्रेरित होकर नैतिक बने रहते हैं। यह आन्तरिक दबाव भावना, संवेग, आवेग आदि हैं। लेकिन यदि कोई व्यक्ति आन्तरिक दबाव से प्रेरित होकर नैतिक है तो इसका अर्थ है कि इस दबाव के समाप्त होने पर उसके अनैतिक होने की संभावना बनी रहती है। इसलिए कांट ने कहा कि नैतिकता मानवीय बुद्धि का आदेश है। यह एक निरूपाधिक आदेश है। अर्थात् यह स्थितियों एवं परिस्थितियों पर निर्भर नहीं है, बल्कि मनुष्य को प्रत्येक परिथिति में नैतिक बने रहना चाहिए।
कांट ने बुद्धि के इस निरूपायिक आदेश को कर्तव्य के लिए कर्तव्य के रूप में परिभाषित किया। कांट की दृष्टि में नैतिकता स्वतः साध्य है। हमें अपने कर्तव्य का पालन इसलिए नहीं करना चाहिए कि इससे किसी अन्य लक्ष्य की सिद्धि होती है, बल्कि इसलिए करना चाहिए कि कर्तव्य स्वतः साध्य है। अर्थात् कांट इस संदर्भ में अपरिणामवादी से है। इसीलिए कांट ने कहा कि किसी भी कार्य का परिणाम उसके मूल्य का निर्धारण का नहीं करता, बल्कि कार्य के मूल में निहित भावना ही उसे शुभ या अशुभ बनाती है। कांट का तर्क है कि किसी भी कार्य का परिणाम पुनः अन्य कार्य का कारण बनता है। अर्थात् कार्य-कारण की यह श्रंखला अनवरत चलती रहती है। इसलिए कांट कार्य के परिणाम को महत्व न देते हुए कार्य के मूल में निहित भावना को ही निर्धारक तत्व मानते हैं।
कांट का नैतिक चिंतन कठोरवादी, स्वनिर्धारणवादी, अपरिणामवादी एवं आदर्शवादी है। आगे चलकर दार्शनिकों ने कांट के अपरिणामवाद पर आपत्ति की जिसमें प्रमुख दार्शनिक मूर हैं। मूर का तर्क है कि कार्य के मूल में निहित भावना कितनी ही शुभ क्यों न हो लेकिन यदि उससे कोई शुभ परिणाम नहीं निकलते तो उस कार्य का नैतिक मूल्य नहीं है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अर्थक्रियावादियों ने भी परिणामवाद पर अत्यधिक जोर दिया तथा इसे प्रतिबद्धता एवं उत्तरदायित्व आदि प्रत्ययों से जोड़कर देखा। इसलिए वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कांट के अपरिणामवाद पर बहुत दूर तक सहमति होना संभव नहीं है। हां कांट का स्वनिर्धारणवाद अवश्य ही नेतिक चिंतन को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाता है। कांट का मुख्य श्रेय नैतिकता को धर्म से स्वतंत्र करने में है। वर्तमान सदी धर्मनिरपेक्षतावाद की है। ऐसे में कांट की प्रासंगिकता अत्यधिक बढ़ जाती है। कांट की गणना महान दार्शनिकों में इसलिए होती है क्योंकि वह नैतिकता को धर्म से स्वतंत्र रखते हुए भी इसे पूर्णतः: परिभाषित करने में सफल रहते हैं।
भारतीय दर्शन में कर्तव्यमूलक चिंतन की प्रधानता विद्यमान रही है। भारतीय नैतिक चिंतन में मनुष्य पर तीन ऋण-देव ऋण, पितृ ऋण एवं ऋषि ऋण को स्वीकार किया गया है। इन ऋणों को पूरा करने में ही कर्तव्यों की परिभाषा दी गई है तथा सुख या आनंद परोक्ष रूप में इन कर्तव्यों को पूरा करने में निहित माना गया है। इन ऋणों को पूरा करते हुए मनुष्य प्रायः सभी सांसारिक सुखों का भोग करता है। लेकिन यहाँ सुख को केन्द्र में नहीं रखा गया है। सुख मुख्य लक्ष्य नहीं है। मुख्य लक्ष्य कर्तव्य है और कर्तव्य पालन में ही सुख निहित है। भारतीय चिंतन सुखवाद एवं कर्तव्य मूलक सिद्धान्त दोनों का सुन्दर समन्वय करता है। यद्यपि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारतीय चिंतन के ये नैतिक मूल्यों का धीरे-धीरे अवमूल्यन एवं मूल्यांतरण हुआ है।
कर्तव्यमूलक चिंतन वस्तुत: आदर्शवादी है। प्रायः लोग अपने कर्तव्य का पालन किसी अन्य लक्ष्य के लिए करते हैं अर्थात् उनके जीवन का ध्येय कर्तव्य से इतर होता है। लोग कर्तव्य के बेजा परिणाम पर अधिक केन्द्रित होते हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में परिणाम ही कार्य के मूल्य का निर्धारण करता है। लेकिन परिणामवाद और कर्तव्यमूलक चिंतन दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। वस्तुस्थिति तो यह है कि यदि कर्तव्य का पालन पूर्ण कर्तव्यबोध के साथ किया जाए तो अच्छे परिणाम स्वतःनिकलते हैं। इसीलिए वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पुनः कर्तव्य पर अत्यधिक जोर दिया जा रहा है। वास्तव में यदि कर्तव्यवाद एवं परिणामवाद की तुलना करें तो कर्तव्यवाद परिणामवाद से निःसंदेह श्रेयस्कर सिद्ध होता है। अर्थात् आज परिणामवाद के साथ- साथ कर्तव्यवाद पर भी जोर देने की आवश्यकता है।