चैतन्य महाप्रभु -एक अद्वितीय कृष्ण भक्त
(Chaitanya Mahaprabhu-A Uniquie Krishna Devotee)

Posted on February 17th, 2019 | Create PDF File

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चैतन्य महाप्रभु (जन्म: 18 फ़रवरी सन् 1486 - मृत्यु: सन् 1534) भक्तिकाल के प्रमुख संतों में से एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी। भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनीतिक अस्थिरता के दिनों में हिन्दू-मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊँच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृन्दावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया। महाप्रभु चैतन्य के विषय में वृन्दावनदास द्वारा रचित 'चैतन्य भागवत' नामक ग्रन्थ में अच्छी सामग्री उपलब्ध होती है। उक्त ग्रन्थ का लघु संस्करण कृष्णदास ने 1590 में 'चैतन्य चरितामृत' शीर्षक से लिखा था। श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी द्वारा लिखित 'श्री श्री चैतन्य-चरितावली' गीता प्रेस गोरखपुर ने छापी है।

 

चैतन्य महाप्रभु का जन्म 18 फ़रवरी सन 1486 ई. की फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक उस गाँव में हुआ था, जिसे अब 'मायापुर' कहा जाता है। बाल्यावस्था में इनका नाम 'विश्वंभर' था, परंतु सभी इन्हें 'निमाई' कहकर पुकारते थे। गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें 'गौरांग', 'गौर हरि', 'गौर सुंदर' आदि भी कहते थे।

 

चैतन्य महाप्रभु के द्वारा गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की आधारशिला रखी गई। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामन्त्र 'नाम संकीर्तन' का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत् तक में है। कवि कर्णपुर कृत 'चैतन्य चंद्रोदय' के अनुसार इन्होंने 'केशव भारती' नामक संन्यासी से दीक्षा ली थी। कुछ लोग माधवेन्द्र पुरी को इनका दीक्षा गुरु मानते हैं। चैतन्य महाप्रभु के पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व माता का नाम शचि देवी था।


चैतन्य के पिता सिलहट के रहने वाले थे। वे नवद्वीप में पढ़ने के लिए आये थे। बाद में वहीं बस गये और वहीं पर शची देवी से उनका विवाह हुआ। एक के बाद एक उनके आठ कन्याएं पैदा हुईं। किंतु ये सभी कन्याएँ मृत्यु को प्राप्त हो गईं। बाद में जगन्नाथ मिश्र को एक पुत्र की प्राप्ति हुई। भगवान की दया से वह बड़ा होने लगा। उसका नाम उन्होंने विश्वरूप रखा। विश्वरूप जब दस वर्ष का हुआ, तब उसके एक भाई और हुआ। माता-पिता की खुशी का ठिकाना न रहा। बुढ़ापे में एक और बालक को पाकर वे फूले नहीं समाये। कहते हैं कि यह बालक तेरह महीने माता के पेट में रहा। उसकी कुंडली बनाते ही ज्योतिषी ने कह दिया था कि वह महापुरुष होगा। यही बालक आगे चलकर चैतन्य महाप्रभु के नाम से विख्यात हुआ। बालक का नाम विश्वंभर रखा गया था। माता-पिता उसे प्यार से 'निमाई' कहकर पुकारते थे।

 

निमाई बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था। बहुत कम आयु में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत हो गए थे। उन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया। निमाई बाल्यावस्था से ही भगवद चिंतन में लीन रहकर राम व कृष्ण का स्तुति गान करने लगे थे। 15-16 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह लक्ष्मीप्रिया के साथ हुआ। सन 1505 में सर्पदंश से पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ। जब निमाई किशोरावस्था में थे, तभी इनके पिता का निधन हो गया।


सन 1501 में जब चैतन्य अपने पिता का श्राद्ध करने गया गए, तब वहां उनकी भेंट ईश्वरपुरी नामक संत से हुई। उन्होंने निमाई से 'कृष्ण-कृष्ण' रटने को कहा। तभी से इनका सारा जीवन बदल गया और ये हर समय भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहने लगे। भगवान श्रीकृष्ण के प्रति इनकी अनन्य निष्ठा व विश्वास के कारण इनके असंख्य अनुयायी हो गए। सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य बने। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। इन्होंने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर हरिनाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया।


हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे। हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे॥

 

यह अठारह शब्दीय (32 अक्षरीय) कीर्तन महामंत्र निमाई की ही देन है। इसे 'तारकब्रह्ममहामंत्र' कहा गया, व कलियुग में जीवात्माओं के उद्धार हेतु प्रचारित किया गया था। जब ये कीर्तन करते थे, तो लगता था मानो ईश्वर का आह्वान कर रहे हैं। सन 1510 में संत प्रवर श्रीपाद केशव भारती से संन्यास की दीक्षा लेने के बाद निमाई का नाम कृष्ण चैतन्य देव हो गया। मात्र 24 वर्ष की आयु में ही इन्होंने गृहस्थ आश्रम का त्याग कर सन्यास ग्रहण किया। बाद में ये चैतन्य महाप्रभु के नाम से प्रख्यात हुए।

 


भगवान श्रीकृष्ण के प्रति इनकी अनन्य निष्ठा व विश्वास के कारण इनके असंख्य अनुयायी हो गए। सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य बने। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। निमाई ने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर 'हरि नाम संकीर्तन' करना प्रारंभ किया। वे कर्मकांड के विरोधी और श्रीकृष्ण के प्रति आस्था के समर्थक थे। चैतन्य मत का एक नाम 'गौड़ीय वैष्णव मत' भी है।उनके पंथ का द्वार सभी के लिए खुला था। हिन्दू और मुसलमान सभी ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। इनके अनुयायी चैतन्य को विष्णु का अवतार मानते हैं। अपने जीवन के अठारह वर्ष उन्होंने उड़ीसा में बिताये। छह वर्ष तक वे दक्षिण भारत, वृन्दावन आदि स्थानों में विचरण करते रहे। छ: वर्ष मथुरा से जगन्नाथ तक के सुविस्तृत प्रदेश में अपने सिद्धांतों का प्रचार किया तथा कृष्ण की भक्ति की ओर लोगों को प्रवृत्त किया।

 

उन्होंने देखा कि इस काल में मानव ईश्वर को भूल कर अपने को सर्वोपरि समझ बैठा है , जिससे वह अच्छे व बुरे कार्यों में भेद नहीं कर पा रहा। इसी कारण वह धन को ही अपना एकमात्र लक्ष्य मानकर हिंसा , चोरी , लूटपाट , आदि दुष्कर्मों से अपने जीवन को निमन्तर बना रहा है। चैतन्य महाप्रभु ने जात-पांत के बंधन को तोड़ने और संपूर्ण मानव जाति को एक सूत्र में पिरोने के लिए हरिनाम ' संकीर्तन ' आंदोलन शुरू किया। वे जन सागर में उतरे और फिर जन सागर उनकी ओर उमड़ पड़ा। इस आंदोलन की प्रमुख विशेषता थी- ' सर्व धर्म समभाव , एकता , भक्ति , प्रेम , शांति और अहिंसा की भावना को जन-जन के हृदय में संचारित करना। वे नगर-नगर घूमकर कीर्तन का महत्व समझाते हुए लोगों का हृदय परिवर्तन करते। उन्होंने बताया , ' किसी भी धर्म , जाति , संप्रदाय या देश का व्यक्ति उनके ' संकीर्तन ' रस की अनुभूति पाकर सुख , शांति और विश्व बंधुत्व के मार्ग पर चल सकता है। ' उन्होंने प्रभु की भक्ति को प्रत्येक जीव का कर्तव्य बताया और प्रेम को जीवन की प्रमुख आवश्यकता , जिससे वह भूले हुए जिन ' दास्य ' संबंध को ईश्वर से पुन: जोड़कर अपना उत्थान कर सके , अपना चरित्र निर्माण कर सके। अपने भारत भ्रमण में उन्होंने सामूहिक कीर्तन के सरल और प्रभावी माध्यम से जन-जन में उक्त चेतना का संचार कर , करोड़ों लोगों को हरि दास बनाया था।

 

चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाएं श्री कृष्ण की ही शिक्षाओं का आचरण हैं। उन्होंने मानव कल्याण के लिए बताया , ' प्रेम धन ही सार तत्व है। ' कहते हैं कि एक दिन महाप्रभु ने , भक्तों को यह समझाने के लिए कि संसार में क्या सार है और क्या निस्सार है , एक आम की गुठली जमीन में गाड़ दी। थोड़े देर में उसमें अंकुर फूटा। अंकुर बढ़कर एक छोटा सा वृक्ष बन गया। देखते-देखते वह वृक्ष बढ़ा और उसमें पके हुए दो सुंदर आम दिखे। फिर एक ही क्षण में वह वृक्ष अदृश्य हो गया और फल (आम) रह गए। महाप्रभु ने अपने भक्तों से कहा- देखो , जिस प्रकार वृक्ष अभी था , अब वह नहीं रहा और केवल फल ही शेष रहे , उसी प्रकार यह संसार भी असार है। उस ' असार ' का कोई अर्थ नहीं , उसके लिए किए गए कर्मों का भी कोई अर्थ नहीं। केवल वही कर्म सार्थक है , जो जीवों के कल्याणार्थ किए जाते हैं। प्रभु की प्रसन्नता के लिए। महाप्रभु भगवत प्राप्ति के लिए किसी लंबे और विस्तृत मार्ग का उपदेश नहीं करते। उनकी शिक्षा पूर्णत: पारमार्थिक है और उसका आरंभ प्रभु के चरणों में प्रेममयी शरणागति से होता है। अपने पूरे जीवनकाल में महाप्रभु ने केवल आठ श्लोक रचे या बताए जो ' शिक्षाष्टक ' नाम से जाने जाते हैं। इन्हीं आठ श्लोकों में संपूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान का पूर्ण समावेश है , जिसका सार इस प्रकार है- ' कृष्ण नाम संकीर्तन ' का मुख्य फल यानी ' प्रेम ' तभी मिलता है जब भक्त तृण से भी अधिक नम्र होकर , वृक्ष से अधिक सहनशील होकर , स्वयं निराभिमानी होकर , दूसरों को मान देकर , शुद्ध मन से नित्य हरिनाम का कीर्तन करे और भगवान से ' जीवों के प्रति प्रेम ' के अलावा अन्य किसी वस्तु की कामना न करे।