कार्बन-टैक्स : अवधारणा और भविष्य (Carbon-Tax : Concept and Future)
Posted on September 24th, 2018
संपूर्ण प्राकृतिक सृष्टि अपने स्वाभाविक नियमों के अंतर्गत एक संतुलित चक्र से बंधी हुई है। सामान्य जीवन यापन सहित मानवीय विकास के तमाम क्रियाकलाप और आयाम प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्राकृतिक संसाधनों के आधीन हैं। उदारवादी प्रकृति काफी हद तक हमारी जरूरतों को पूरा करने और उससे उपजे आंशिक आंतरिक असंतुलन की भरपाई करने में स्वयं समर्थ है। लेकिन औद्योगिक विकास की अंधी घुड़दौड़ से उपजे जब इस असंतुलन का दायरा बहुत अधिक विस्तृत हो जाता है, तो यह तरह-तरह के पर्यावरणीय प्रदूषणों, प्राकृतिक आपदाओं, अम्ल वर्षा, ग्लोबल वार्मिंग तथा ओजोन परत के क्षय़ का कारण बनते हैं। इस संबंध में चिंता जताने, विचार-विमर्श करने तथा आपसी सहमति बनाने के तमाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम किये जाते रहे हैं। लिहाजा क्योटो प्रोटोकॉल के 20 वर्ष बाद अब जलवायु परिवर्तन के न्यूनीकरण के साधनों के लिए अधिक वैश्विक समर्थन और जागरूकता प्राप्त है। अभी हाल ही में 20 सितंबर 2018 को कनाडा में जलवायु परिवर्तन पर हुई जी-7 की बैठक में विश्व बैंक की मुख्य कार्यकारी अधिकारी क्रिस्टलीना जार्जिया ने कहा है कि- जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कार्बन उत्सर्जन पर कर लगाना या कार्बन प्रदूषण पर शुल्क लगाना जरूरी है। प्रति टन कार्बन उत्सर्जन पर शुल्क आंकलन की प्रक्रिया का हवाला देते हुए विश्व बैंक ने कहा कि हमारा मानना है कि कार्बन उत्सर्जन के प्रति एक शैडो शुल्क तय करके हम इस दिशा में एक आर्थिक संकेत दे सकते हैं। इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इकोनॉमिक्स के अनुसार वैज्ञानिक और अर्थशास्त्री इस बात पर एक मत हैं कि अर्थव्यवस्थाओं के व्यवहार में बदलाव लाने के संकेत देने का सबसे अच्छा विकल्प कार्बन शुल्क ही है। इस कर के तहत सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाली कंपनियों को कोटा दिया गया है। साथ ही उन्हें अन्य कंपनियों के साथ कोटे की खरीद-बिक्री का अधिकार भी दिया गया है। इस कर के अंतर्गत 1 टन उत्सर्जित कार्बन का मूल्य 1 डॉलर से लेकर 133 अमेरिकी डॉलर तक तय किया गया है। 1 अप्रैल 2018 से यह कर विश्व के 46 देशों और 26 द्वीपीय सरकारों नें अपने यहां लागू किया हुआ है।
दरअसल कार्बन टैक्स प्रदूषण पर कर का एक रूप है, जिसमें कार्बन के उत्सर्जन की मात्रा के आधार पर जीवाश्म ईंधनों के उत्पादन, वितरण एवं उपयोग पर शुल्क लगाया जाता है। कार्बन कर जीवाश्म ईंधन का मूल्य बढ़ायेगा। इसमें कोयले की तरह अधिक उत्सर्जन करने वाले ईंधनों पर अधिक कर लगाया जायेगा। यह कर उच्च कार्बन उत्सर्जन ईंधन की मांग को कम करेगा और प्राकृतिक गैस जैसे निचले उत्सर्जन ईंधन की मांग में वृध्दि करेगा। सौर, हवा, परमाणु, और जलविद्युत जैसे अक्षय ऊर्जा के स्त्रोतों पर कम कर या कोई कर नहीं होगा। यह निगेटिव एक्सटर्नलिटीज़ के आर्थिक सिध्दांतों पर आधारित एक अप्रत्यक्ष कर है। सरकार प्रतिटन कार्बन उत्सर्जन पर मूल्य निर्धारित करती है, जिससे यह कार्बन उत्सर्जक ( जनजीवन पर नकारात्मक असर डालने वाले) ईंधनों के उपयोग को मंहगा कर देता है, उन्हें हतोत्साहित करता है, साथ ही नवीकरणीय ऊर्जा दक्षता को बढ़ावा देता है। वर्ष 1990 में अपने यहां कार्बन कर लगाने वाला फिनलैंड विश्व का पहला देश बन गया था। उसके बाद वर्ष 1991 में स्वीडन और ब्रिटेन ने इसे अपनाया। भारत में यह कर 1 जुलाई 2010 से लागू है।
मानवीय क्रियाओं द्वारा विश्व में 27 बिलियन टन कार्बन प्रतिवर्ष उत्सर्जित किया जाता है। जो कि काफी चिंताजनक है। इस संबंध में वर्ष 1992 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने ब्राजील के रियो डि जेनेरियो शहर में आयोजित जलवायु परिवर्तन पर एक सम्मेलन में हरित गैसों के स्तर को नियंत्रित करने तथा इससे पर्यावरण पर पड़ने वाले दुस्प्रभावों को कम करने की दिशा में कार्बन कर का प्रस्ताव रखा गय़ा था। संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि यह कर प्रशासनिक दृष्टि से उपयोग में लाये जाने और लागू करने के नजरिये से भी काफी आसान है। इससे विश्व कार्बन उत्सर्जन के बेलगाम होते बाजार को इससे काफी हद तक काबू किया जा सकता है। साथ ही इससे प्रप्त राजस्व का उपयोग सरकार आयकर सहित अन्य प्रत्यक्ष करों को कम करने, गरीबों को मुफ्त में बिजली प्रदान करने, वैकल्पिक ऊर्जा के संसाधन विकसित करने तथा गैसोलीन, बिजली आदि के बिलों के भुगतान करने के लिए कर सकती है। हालांकि एक सर्वमान्य कार्बन टैक्स की राशि निर्धारित करने की चुनौती हमेशा बनी रहती है। इसके लिए आधारभूत कर इकाई और प्रबंधन, जैसे कर का एकत्रीकरण आदि संबंधी खामियां भी आड़े आती हैं। साथ ही इसके लागू करने के पक्ष में राजनैतिक सहमति बना पाना भी आसान नहीं है। आस्ट्रेलिया की पहली और एकमात्र महिला प्रधानमंत्री जूलिया गिल्लार्ड ने जुलाई 2012 में विधानमंडल के दोनों सदनों से अनुमति लेकर कार्बन कर की शुरुआत की थी। इस कर का आरंभिक 3 वर्षों के लिए निश्चित मूल्य एक टन कार्बन उत्सर्जन के लिए 23 डॉलर था। इसे उद्योगों तथा ऊर्जा की कीमतों में एक ऐसे अनावश्यक बोझ के तौर पर देखा गया जिसनें देश की प्रतिस्पर्ध्दात्मक विकास को चोट पहुंचाई और वहां की अर्थव्यवस्था को मंहगाई की ओर धकेल दिया। बाद में वर्ष 2014 में सीनेट ने कार्बन कर को निरसित कर दिया। इससे पहले भी वर्ष 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल में अमेरिका और आस्ट्रेलिया ने वैश्विक हरित गैसों के उत्सर्जन को कम करने की प्रतिबध्दता नहीं जताई थी। अभी हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने सुप्रसिध्द पेरिस समझौते से भी अमेरिका को अलग कर लिया है, जिसकी विश्वभर में तीखी आलोचना हो रही है। दरअसल यदि किसी देश में कार्बन टैक्स लागू किया जाता है तो बहुत सी कंपनियां उन देशों की ओर रूख कर जातीं हैं, जहां इस प्रकार के कर की व्यवस्था नहीं है। जिससे एक ओर जहां राज्य का राजस्व प्रभावित होता है, विकास अवरुध्द होता है वहीं दूसरी ओर टैक्स हैवेन, पॉल्यूसन हैवेन जैसी अवधारणाओं को भी बल मिलता है।
वर्तमान में भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए भारत के कार्बन करों का उपयोग समुचित ढ़ंग से नही हो पा रहा है। गहन ऊर्जा उद्योगों और विश्वस्तर पर भारत को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए कार्बन करों को कम करने की आवश्यकता है। आयोग ने कहा कि देश के ऊर्जा भविष्य के लिए भारत कार्बन साम्राज्यवाद को अनुमति नहीं दे सकता। भारत एक विकासशील देश है। यहां कार्बन उत्सर्जन पर प्रतिटन कर 9.71 अमेरिकी डॉलर है, जो कि प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत को देखते हुए अत्यधिक प्रतीत हो रहा है। विश्व बाजार में तेल की बढ़ती कीमतों और देश की ऊर्जा जरूरतों को ध्यान में रखते हुए, भारत का कार्बन करों की नीतियों का पालन करना काफी मुश्किल हो सकता है। दरअसल, कार्बन कर एक ऐसा विचार है जो विकसित राष्ट्रों के लिए कम, लेकिन विकासशील देशों के लिए अधिक चुनौतीपूर्ण होगा। हालांकि यह कहना अतिशयोक्ति नही होगी कि भारत में आज वायु प्रदूषण सबसे बढ़ी चिंताओं में से एक है। प्रदूषण और स्वास्थ्य पर लांसेट आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक यहां प्रतिवर्ष लगभग 19 लाख लोगों की मृत्यु वायु प्रदूषण की वजह से हो रही है। दिल्ली जैसे प्रदूषित शहर के बच्चों के फेफड़े अमेरिका के बच्चों की तुलना में 10 प्रतिशत छोटे पाये गये हैं। इसलिए वायुप्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए कार्बन टैक्स की अवधारणा को अत्यंत ही महत्तवपूर्ण माना जा रहा है। आज भारत को अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए बड़े स्तर पर निवेश की जरूरत है। कर एवं लाभांश की नीति के अंतर्गत कार्बन कर इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। वैश्विक स्तर पर देश के विकास को गति देने तथा अपनी विकासशील परियोजनाओं से बिना समझौता किये, भारत सहित तमाम विकासशील देशों को इस नीति के बारे में विस्तृत विचार विमर्स करने की जरूरत है। साथ ही विकसित देशों को इस दिशा में पहल करते हुए एक ऐसी वैश्विक नीति बनाने की आवश्यकता है, जो पर्यावरण संरक्षण और उसकी भावी जरूरतों के साथ-साथ अल्पविकसित एवं विकासशील देशों की प्रगति और औद्योगिक विकास के समुचित अवसर उपलब्ध करा सके।
कार्बन-टैक्स : अवधारणा और भविष्य (Carbon-Tax : Concept and Future)
संपूर्ण प्राकृतिक सृष्टि अपने स्वाभाविक नियमों के अंतर्गत एक संतुलित चक्र से बंधी हुई है। सामान्य जीवन यापन सहित मानवीय विकास के तमाम क्रियाकलाप और आयाम प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्राकृतिक संसाधनों के आधीन हैं। उदारवादी प्रकृति काफी हद तक हमारी जरूरतों को पूरा करने और उससे उपजे आंशिक आंतरिक असंतुलन की भरपाई करने में स्वयं समर्थ है। लेकिन औद्योगिक विकास की अंधी घुड़दौड़ से उपजे जब इस असंतुलन का दायरा बहुत अधिक विस्तृत हो जाता है, तो यह तरह-तरह के पर्यावरणीय प्रदूषणों, प्राकृतिक आपदाओं, अम्ल वर्षा, ग्लोबल वार्मिंग तथा ओजोन परत के क्षय़ का कारण बनते हैं। इस संबंध में चिंता जताने, विचार-विमर्श करने तथा आपसी सहमति बनाने के तमाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम किये जाते रहे हैं। लिहाजा क्योटो प्रोटोकॉल के 20 वर्ष बाद अब जलवायु परिवर्तन के न्यूनीकरण के साधनों के लिए अधिक वैश्विक समर्थन और जागरूकता प्राप्त है। अभी हाल ही में 20 सितंबर 2018 को कनाडा में जलवायु परिवर्तन पर हुई जी-7 की बैठक में विश्व बैंक की मुख्य कार्यकारी अधिकारी क्रिस्टलीना जार्जिया ने कहा है कि- जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कार्बन उत्सर्जन पर कर लगाना या कार्बन प्रदूषण पर शुल्क लगाना जरूरी है। प्रति टन कार्बन उत्सर्जन पर शुल्क आंकलन की प्रक्रिया का हवाला देते हुए विश्व बैंक ने कहा कि हमारा मानना है कि कार्बन उत्सर्जन के प्रति एक शैडो शुल्क तय करके हम इस दिशा में एक आर्थिक संकेत दे सकते हैं। इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इकोनॉमिक्स के अनुसार वैज्ञानिक और अर्थशास्त्री इस बात पर एक मत हैं कि अर्थव्यवस्थाओं के व्यवहार में बदलाव लाने के संकेत देने का सबसे अच्छा विकल्प कार्बन शुल्क ही है। इस कर के तहत सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाली कंपनियों को कोटा दिया गया है। साथ ही उन्हें अन्य कंपनियों के साथ कोटे की खरीद-बिक्री का अधिकार भी दिया गया है। इस कर के अंतर्गत 1 टन उत्सर्जित कार्बन का मूल्य 1 डॉलर से लेकर 133 अमेरिकी डॉलर तक तय किया गया है। 1 अप्रैल 2018 से यह कर विश्व के 46 देशों और 26 द्वीपीय सरकारों नें अपने यहां लागू किया हुआ है।
दरअसल कार्बन टैक्स प्रदूषण पर कर का एक रूप है, जिसमें कार्बन के उत्सर्जन की मात्रा के आधार पर जीवाश्म ईंधनों के उत्पादन, वितरण एवं उपयोग पर शुल्क लगाया जाता है। कार्बन कर जीवाश्म ईंधन का मूल्य बढ़ायेगा। इसमें कोयले की तरह अधिक उत्सर्जन करने वाले ईंधनों पर अधिक कर लगाया जायेगा। यह कर उच्च कार्बन उत्सर्जन ईंधन की मांग को कम करेगा और प्राकृतिक गैस जैसे निचले उत्सर्जन ईंधन की मांग में वृध्दि करेगा। सौर, हवा, परमाणु, और जलविद्युत जैसे अक्षय ऊर्जा के स्त्रोतों पर कम कर या कोई कर नहीं होगा। यह निगेटिव एक्सटर्नलिटीज़ के आर्थिक सिध्दांतों पर आधारित एक अप्रत्यक्ष कर है। सरकार प्रतिटन कार्बन उत्सर्जन पर मूल्य निर्धारित करती है, जिससे यह कार्बन उत्सर्जक ( जनजीवन पर नकारात्मक असर डालने वाले) ईंधनों के उपयोग को मंहगा कर देता है, उन्हें हतोत्साहित करता है, साथ ही नवीकरणीय ऊर्जा दक्षता को बढ़ावा देता है। वर्ष 1990 में अपने यहां कार्बन कर लगाने वाला फिनलैंड विश्व का पहला देश बन गया था। उसके बाद वर्ष 1991 में स्वीडन और ब्रिटेन ने इसे अपनाया। भारत में यह कर 1 जुलाई 2010 से लागू है।
मानवीय क्रियाओं द्वारा विश्व में 27 बिलियन टन कार्बन प्रतिवर्ष उत्सर्जित किया जाता है। जो कि काफी चिंताजनक है। इस संबंध में वर्ष 1992 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने ब्राजील के रियो डि जेनेरियो शहर में आयोजित जलवायु परिवर्तन पर एक सम्मेलन में हरित गैसों के स्तर को नियंत्रित करने तथा इससे पर्यावरण पर पड़ने वाले दुस्प्रभावों को कम करने की दिशा में कार्बन कर का प्रस्ताव रखा गय़ा था। संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि यह कर प्रशासनिक दृष्टि से उपयोग में लाये जाने और लागू करने के नजरिये से भी काफी आसान है। इससे विश्व कार्बन उत्सर्जन के बेलगाम होते बाजार को इससे काफी हद तक काबू किया जा सकता है। साथ ही इससे प्रप्त राजस्व का उपयोग सरकार आयकर सहित अन्य प्रत्यक्ष करों को कम करने, गरीबों को मुफ्त में बिजली प्रदान करने, वैकल्पिक ऊर्जा के संसाधन विकसित करने तथा गैसोलीन, बिजली आदि के बिलों के भुगतान करने के लिए कर सकती है। हालांकि एक सर्वमान्य कार्बन टैक्स की राशि निर्धारित करने की चुनौती हमेशा बनी रहती है। इसके लिए आधारभूत कर इकाई और प्रबंधन, जैसे कर का एकत्रीकरण आदि संबंधी खामियां भी आड़े आती हैं। साथ ही इसके लागू करने के पक्ष में राजनैतिक सहमति बना पाना भी आसान नहीं है। आस्ट्रेलिया की पहली और एकमात्र महिला प्रधानमंत्री जूलिया गिल्लार्ड ने जुलाई 2012 में विधानमंडल के दोनों सदनों से अनुमति लेकर कार्बन कर की शुरुआत की थी। इस कर का आरंभिक 3 वर्षों के लिए निश्चित मूल्य एक टन कार्बन उत्सर्जन के लिए 23 डॉलर था। इसे उद्योगों तथा ऊर्जा की कीमतों में एक ऐसे अनावश्यक बोझ के तौर पर देखा गया जिसनें देश की प्रतिस्पर्ध्दात्मक विकास को चोट पहुंचाई और वहां की अर्थव्यवस्था को मंहगाई की ओर धकेल दिया। बाद में वर्ष 2014 में सीनेट ने कार्बन कर को निरसित कर दिया। इससे पहले भी वर्ष 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल में अमेरिका और आस्ट्रेलिया ने वैश्विक हरित गैसों के उत्सर्जन को कम करने की प्रतिबध्दता नहीं जताई थी। अभी हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने सुप्रसिध्द पेरिस समझौते से भी अमेरिका को अलग कर लिया है, जिसकी विश्वभर में तीखी आलोचना हो रही है। दरअसल यदि किसी देश में कार्बन टैक्स लागू किया जाता है तो बहुत सी कंपनियां उन देशों की ओर रूख कर जातीं हैं, जहां इस प्रकार के कर की व्यवस्था नहीं है। जिससे एक ओर जहां राज्य का राजस्व प्रभावित होता है, विकास अवरुध्द होता है वहीं दूसरी ओर टैक्स हैवेन, पॉल्यूसन हैवेन जैसी अवधारणाओं को भी बल मिलता है।
वर्तमान में भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए भारत के कार्बन करों का उपयोग समुचित ढ़ंग से नही हो पा रहा है। गहन ऊर्जा उद्योगों और विश्वस्तर पर भारत को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए कार्बन करों को कम करने की आवश्यकता है। आयोग ने कहा कि देश के ऊर्जा भविष्य के लिए भारत कार्बन साम्राज्यवाद को अनुमति नहीं दे सकता। भारत एक विकासशील देश है। यहां कार्बन उत्सर्जन पर प्रतिटन कर 9.71 अमेरिकी डॉलर है, जो कि प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत को देखते हुए अत्यधिक प्रतीत हो रहा है। विश्व बाजार में तेल की बढ़ती कीमतों और देश की ऊर्जा जरूरतों को ध्यान में रखते हुए, भारत का कार्बन करों की नीतियों का पालन करना काफी मुश्किल हो सकता है। दरअसल, कार्बन कर एक ऐसा विचार है जो विकसित राष्ट्रों के लिए कम, लेकिन विकासशील देशों के लिए अधिक चुनौतीपूर्ण होगा। हालांकि यह कहना अतिशयोक्ति नही होगी कि भारत में आज वायु प्रदूषण सबसे बढ़ी चिंताओं में से एक है। प्रदूषण और स्वास्थ्य पर लांसेट आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक यहां प्रतिवर्ष लगभग 19 लाख लोगों की मृत्यु वायु प्रदूषण की वजह से हो रही है। दिल्ली जैसे प्रदूषित शहर के बच्चों के फेफड़े अमेरिका के बच्चों की तुलना में 10 प्रतिशत छोटे पाये गये हैं। इसलिए वायुप्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए कार्बन टैक्स की अवधारणा को अत्यंत ही महत्तवपूर्ण माना जा रहा है। आज भारत को अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए बड़े स्तर पर निवेश की जरूरत है। कर एवं लाभांश की नीति के अंतर्गत कार्बन कर इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। वैश्विक स्तर पर देश के विकास को गति देने तथा अपनी विकासशील परियोजनाओं से बिना समझौता किये, भारत सहित तमाम विकासशील देशों को इस नीति के बारे में विस्तृत विचार विमर्स करने की जरूरत है। साथ ही विकसित देशों को इस दिशा में पहल करते हुए एक ऐसी वैश्विक नीति बनाने की आवश्यकता है, जो पर्यावरण संरक्षण और उसकी भावी जरूरतों के साथ-साथ अल्पविकसित एवं विकासशील देशों की प्रगति और औद्योगिक विकास के समुचित अवसर उपलब्ध करा सके।