भीमराव अंबेडकर - एक चिंतक (Bhimrao Ambedkar - A Thinker)

Posted on March 27th, 2020 | Create PDF File

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अंबेडकर की गणना भारत के महान नेताओं में की जाती है, अंबेडकर एक दलित नेता थे। भारतीय दलित समाज की त्रासदियों को बचपन से उन्होंने जिया और भोगा था। भारतीय समाज में अनेक कुरीतियां विद्यमान थीं। यहा तक कि अस्पृश्यता जैसी भयावह समस्या भी भारत में व्यापक रूप से विद्यमान थी। ऐसी स्थिति में एक स्वस्थ एवं सामंजस्यपूर्ण समाज की कल्पना नहीं की जा सकती थी। अंबेडकर के व्यक्तित्व को भारतीय समाज की विषमताओं ने झकझोर कर रख दिया था। अंबेडकर भले ही दलित समाज से संबंद्ध थे लेकिन वे अत्यंत मेधावी छात्र थे। कानून की शिक्षा उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय लंदन से प्राप्त की थी

 

गांधी और अंबेडकर का विवाद मुख्यतः वर्णव्यवस्था पर था। प्रारम्भ में गांधी जाति व्यवस्था के पक्षधर थे लेकिन विवाद को बढ़ता हुआ देखकर उन्होंने इसे वर्ण व्यवस्था के रूप में परिमाषित किया। लेकिन अंबेडकर को गांधी के वर्ण व्यवस्था सिद्धान्त पर कठोर आपत्ति थी। अंबेडकर ने कहा कि जाति व्यवस्था की जननी वास्तव में वर्ण व्यवस्था ही है। भारत से वर्ण व्यवस्था जब तक समाप्त नहीं होती तब तक समतामूलक समाज की कल्पना नहीं की जा सकती।

 

अंबेडकर ने भारत की वर्ण व्यवस्था एवं जाति व्यवस्था का व्यापक अध्ययन एवं शोध किया। उन्होंने केवल भारत की जाति व्यवस्था का ही नहीं बल्कि विश्व की प्रमुख संस्कृतियों की जाति व्यवस्था का भी व्यापक अध्ययन किया। अंबेडकर ने कहा कि भारतीय वर्ण व्यवस्था एक अनूठी व्यवस्था है। यह न तो क्षेेतिज है और न ही केन्द्रीय बल्कि इसमें सोपानवत विकासक्रम है। भारतीय समाज के शीर्ष पर ब्राह्मण नामक जाति विद्यमान है तथा अन्य जातियां निम्नतर रूप से सोपानवत क्रम में हैं तथा समाज का सबसे निम्नतम समुदाय अस्पृश्य है। एक तरफ शीर्ष पर ब्राह्मण पूज्य हैं, दूसरी तरफ निम्नतम स्तर पर दलित अस्पृश्य है और यह पूरा समाज उत्त्तरोत्तर रूप से अनेक स्तरीय जातियों में विभक्त है। जाति व्यवस्था का ऐसा उत्तरोत्तर सोपानवत विकासक्रम विश्व की किसी भी संस्कृति में नहीं मिलता।अंबेडकर ने कहा कि इस अनेक स्तरीय समाज व्यवस्था में समानता की कल्पना तब तक नहीं की जा सकती जब तक कि वर्ण व्यवस्था को पूर्णतः समाप्त नहीं किया जाए। इसीलिए वे गांधी के समक्ष झुकने को तैयार नहीं थे।

 

पूना पैक्ट के पश्चात्‌ गांधी ने सामूहिक भोज, अंतर्जातीय विवाह आदि को तो आधे हृदय से स्वीकार कर लिया, लेकिन वर्णव्यवस्था पर अडिग बने रहे। यद्यपि यह विवाद नेहरू ने जल्दी ही सुलझा लिया।

 

अंबेडकर ने कहा कि गांधी के अस्पृश्यता उन्मूलन का आन्दोलन भी एक दिखावा मात्र है। एक तरफ गांधी अस्पृश्यता को दूर करना चाहते हैं तथा दूसरी तरफ वे वर्ण व्यवस्था को भी बनाए रखना चाहते हैं। अंबेडकर को यह विरोधाभास स्पष्ट दिखाई पड़ता था। वास्तव में गांधी की अपनी कुछ सीमाएं एवं बाध्यताएं थी। वे अग्रणी समाज को नाराज करने का साहस नहीं उठा पा रहे थे। अंबेडकर ने इसके लिए पूरे देश में व्यापक आन्दोलन किया तथा गांधी के इस दोहरे चरित्र पर बारंबार प्रहार किया जिससे उनकी पहचान दलितों के मसीहा के रूप में हुई ।

 

अंबेडकर को गांधी के 'हरिजन' शब्द पर भी आपत्ति थी। अंबेडकर का तर्क था कि नाम बदल देने से वस्तुस्थिति नहीं बदलती। गांधी वस्तुस्थिति को बदलने का प्रयास तो नहीं करते बल्कि उन्हें हरिजन कहते हुए उनका और अवमूल्यन करते हैं। अंबेडकर ने अपने शोधों में यह पाया कि भारतीय समाज की वर्ण व्यवस्था का मूल आधार धामिक मान्यताओं में निहित है। इसलिए वे हिन्दू धर्म के विरोधी हो गए। उन पर क्रिश्चियन धर्म और मार्क्सवाद का प्रभाव पड़ा। वे अल्पकाल के लिए क्रिश्चियन धर्म की ओर आकृष्ट भी हुए लेकिन उन्हें जल्दी ही अनुभव हो गया कि क्रिश्चियन धर्म में भी लगभग वही समस्याएं विद्यमान हैं जो हिन्दू धर्म में हैं तथा जो क्रिश्चियन धर्म अपनाते हैं उन्हें दूसरे स्तर के नागरिक के रूप में ही देखा जाता है। अर्थात्‌ उनके प्रति समानता का भाव नहीं रहता। जल्दी ही अंबेडकर का क्रिश्चियन धर्म के प्रति मोह भंग हो गया।

 

अंबेडकर के व्यक्तित्व पर मार्क्सवाद का भी प्रभाव पड़ा, लेकिन मार्क्स का अति भौतिकवादी दृष्टिकोण उन्हें रूचिकर प्रतीत नहीं हुआ। यद्यपि वे समाजवाद को अपनाए रहे। उन्होंने समाजवाद को भारत के विशेष संदर्भ में रखने एवं परिभाषित करने का प्रयास किया।

 

अंततः अंबेडकर को बौद्ध धर्म में वो सभी विशेषताएं दिखाई पड़ी जिसे मानव धर्म की संज्ञा दी जा सकती है। अंबेडकर ने स्वयं इसे मानव धर्म की संज्ञा दी है। यह धर्म मानवीय मूल्यों पर आधारित है। यह ईश्वर का निषेध करता है और मनुष्य को गरिमा प्रदान करता है। यह मनुष्य को गरिमा ही प्रदान नहीं करता बल्कि उसे उत्तरदाई भी बनाता है। अर्थात्‌ मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। अंबेडकर ने देखा कि हिन्दू धर्म में ईश्वर के नाम पर जो विसंगतियां विद्यमान हैं बौद्ध धर्म में उसके लिए स्थान नहीं है। इसलिए अंततः उन्होंने बौद्ध धर्म को अपना लिया। अंबेडकर को महत्वपूर्ण सफलता पूना पैक्ट के पश्चात्‌ मिली जब नेहरू ने उन्हें संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में मनोनीत किया। तब अंबेडकर को यह सुअवसर प्राप्त हुआ कि वे समतावादी एवं सामंजस्यपूर्ण समाज की स्थापना के लिए संवैधानिक विधानों की रचना कर सकें। अंबेडकर ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए भारतीय संविधान की संरचना कुछ इस प्रकार की जो पूर्णतः आधुनिकतावादी एवं लोकतांत्रिक है जिससे कालक्रम में भारतीय समाज की कुरीतियों पर नियंत्रण पाया जा सके। यद्यपि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी भारतीय समाज  पूर्णत: समतामूलक नहीं है। आज भी दलित वर्ग शोषित एवं दमित है। उनके लिए उस सामाजिक आर्थिक परिस्थिति का निर्माण अभी तक नहीं हो सकता है जिससे वे अवसर की समानता का लाभ ले सकें।

 

भारत के प्रमुख नेताओं में यदि गांधी और नेहरू की गणना की जाती है तो भारत के लोकतांत्रिक समाजवादी राज्य के निर्माण में, समतामूलक समाज के प्रतिस्थापना में और सामाजिक व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए अंबेडकर का योगदान निःसंदेह अद्वितीय है। अंबेडकर के जीवन एवं व्यक्तित्व से अनेक शिक्षाएं अनुकरणीय हैं। अंबेडकर भारत की उस तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति में भी अपनी शिक्षा पूरी
की तथा केम्ब्रिज जैसे विश्वविद्यालय में कानून की शिक्षा प्राप्त की। अंततः भारत के शीर्ष नेतृत्व में अपना स्थान सुनिश्चित करते हुए भारत निर्माण में अपूर्ण योगदान दिया ।