अनुच्छेद- 35A और जम्मू- कश्मीर राज्य के विशेषाधिकार (Article-35A and special rights of Jammu-Kashmir)

Posted on September 13th, 2018 | Create PDF File

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जम्मू- कश्मीर राज्य भारतीय संघ का एक अभिन्न अंग है। फिर भी समय- समय पर कुछ ऐसे कानूनी प्रावधानों का जिक्र होता आया है जो इसे शेष भारत से अलग अधिकार प्रदान करते हैं। अनुच्छेद- 35 A इन्हीं विशेष कानूनी प्रावधानों में से एक है, जिसे 14 मई 1954 को राष्ट्रपति आदेश द्वारा अनुच्छेद- 370 के अंतर्गत संविधान के मूल भाग की बजाय उसकी परिशिष्ट में सन्निहित किया गया था। यह जम्मू- कश्मीर राज्य को राज्य के स्थायी नागरिक की परिभाषा तय करने का अधिकार देता है।

दरअसल वर्ष 1947 तक जम्मू- कश्मीर राज्य अंग्रेजी शासन के आधीन एक स्वतंत्र देशी रियासत थी, जिसे वहां की मुस्लिम बहुसंख्यक आबादी पर शासन कर रहे हिंदू राजा हरिसिंह ने भारत अथवा पाकिस्तान किसी भी परिसंघ में विलय से इंकार कर दिया था। बाद में पाकिस्तानी घुसपैठियों के आक्रमण और राज्य सेना में मुस्लिम सैनिकों के विद्रोह से पैदा हुए असुरक्षा के खतरे को ध्यान में रखते हुए मजबूरन राजा पहिसिंह ने सैनिक सहायता प्राप्त करने के लिए भारत में विलय स्वीकार किया था। जिसके साथ पण्डित नेहरू ने यह आश्वासन दिया था कि एक बार जम्मू- कश्मीर में शांति स्थापित हो जाने के बाद वहां के लोगों को अपना भविष्य तय करने का अवसर दिया जायेगा। तब तक राज्य की जनसांख्यिकी प्रभावित न हो, तथा राज्य की स्वायत्तता में कोई परिवर्तन आये इसका पूरा ध्यान रखा जाएगा। बंटवारे के समय बहुत से शरणार्थी देश के विभिन्न हिस्सों से आकर राज्य में शरण लेने लगे थे और राज्य की जनसांख्यिकी तेजी से परिवर्तित होने लगी थी। जिससे वहां के स्थायी नागरिकों की पहचान तय करना आवश्यक हो गया था। इसी विषय को ध्यान में रखते हुए वर्ष 1952 में जम्मू- कश्मीर  राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री शेख अबदुल्ला और भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मध्य दिल्ली में एक समझौता हुआ, जिसे ‘दिल्ली समझौता’  के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के तहत जम्मू- कश्मीर राज्य के स्थायी निवासियों की परिभाषा तय हुई। इसके बाद अनुच्छेद-370(1)(d)  में उल्लेखित राष्ट्रपति के अधिकारों के तहत तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के एक आदेश द्वारा अनुच्छेद- 35A को संविधान में जोड़ दिया गया।

इस अनुच्छेद के अनुसार जम्मू- कश्मीर राज्य का स्थायी नागरिक वही माना जायेगा जो- 14 मई 1954 को राज्य का नागरिक हो या उससे पहले के 10 सालों से राज्य में रह रहा हो। इसके अलावा उसने वहां कोई अचल संपत्ति हासिल की हो। या 1 मार्च 1947 के बाद विस्थापित होकर पाकिस्तानी सीमा क्षेत्र में चला गया हो और रीसेटमेंट परमिट के साथ ही वापस आया हो। इसके अंतर्गत किसी भी दूसरे राज्य का नागरिक जम्मू- कश्मीर में न तो स्थायी संपत्ति खरीद सकता है और न ही वहां का स्थायी नागरिक बन सकता है। सरकारी पदों पर नियुक्तियां, सरकारी स्कूलों में शिक्षा सहित राज्य की सभी सरकारी सुविधाओं/ योजनाओं का लाभ केवल जम्मू- कश्मीर राज्य के स्थायी नागरिक ही उठा सकते हैं। केवल वे ही राज्य विधानसभा में वोट देने के पात्र भी होंगे।

इससे पहले वर्ष 1927 से लेकर 1932 तक तीन निर्देश जारी करके राजा हरिसिंह ने जम्मू- कश्मीर राज्य के स्थायी नागरिक की परिभाषा तय की थी। जिसके मुताबिक जम्मू- कश्मीर राज्य का स्थायी नागरिक वही हो सकता है, जो 1911 से पहले वहां पैदा हुआ हो, और तब से स्थायी रूप से राज्य में रह रहा हो। इसके अतिरिक्त वह कानूनी तौर पर राज्य में कुच न कुछ अचल संपत्ति भी रखता हो। इस कानून को राजा हरिसिंह द्वारा 1928 में पास किया गया था। दरअसल जम्मू- कश्मीर देश का इकलौता ऐसा राज्य है जिसका अपना अलग संविधान है। यह संविधान 17 नवंबर 1956 को बनकर तैयार हुआ था, जिसे 26 जनवरी 1957 को लागू कर दिया गया। इसमें अबतक 30 संशोधन किये जा चुके हैं। इस संविधान में राज्य के स्थायी नागरिकों की परिभाषा ‘स्टेट सब्जेक्ट एक्ट’  द्वारा तय की जाती है, जिसे भारतीय संविधान का अनुच्छेद- 35A  स्वीकृति प्रदान करता है।

हाल ही में जम्मू- कश्मीर राज्य में बीजेपी-पीडीपी गठबंधन सरकार गिरने के बाद अनुच्छेद- 35A  पर राजनैतिक बहस तेज हो गई है। इस अनुच्छेद की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए दिल्ली के एक गैर- सरकारी संगठन (NGO)  ‘ वी द् सिटिजन’  ने सर्वोच्च न्यायलय में याचिका दायर की है। साथ ही इसी परिप्रेक्ष्य में एक अन्य मामले, जिसमें जम्मू- कश्मीर के संविधान की धारा-6 के खिलाफ चारु अली खन्ना और सीमा राजदान भार्गव ने भी सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की हुई है। याचिकाकर्त्ताओं की दलील है कि- यह अनुच्छेद संविधान की मूल भावना के खिलाफ है तथा लिंग के आधार पर नागरिकों के मूल अधिकारों में भेदभाव करता है। इसके अनुसार जम्मू-कश्मीर राज्य की स्थायी महिला नागरिक यदि किसी बाहरी पुरुष के साथ विवाह करती है, तो उसे राज्य कानून के अंतर्गत मिलने वाले संपत्ति के अधिकार से वंचित कर दिया जाता है। साथ ही वह राज्य की स्थायी नागरिकता भी खो देती है। हालांकि- सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के बाद इस नियम में संशोधन करके संपत्ति और राज्य अधिकारों को महिला के लिए बनाये रखा गया है, लेकिन उसकी संतानों को यह अधिकार स्थानांतरित नहीं किए जायेंगे। जबकि पुरुषों के साथ ऐसा नहीं है। उनकी संतानों को अधिकार स्थानांतरित होते हैं। इसलिए यह अनुच्छेद संविधान की मूल भावना के खिलाफ है और लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा देता है। पक्षकारों का यह भी कहना है कि- इस कानून को न तो संसद के किसी सदन में विचार- विमर्श और बहस के लिए पेश किया गया है, और न ही यह संसद द्वारा पास है। इसे मात्र राष्ट्रपति के एक आदेश द्वारा अध्यादेश की तरह संविधान में जोड़ा गया है, जो 6 महीने से ज्यादा दिनों तक लागू नहीं रह सकता। साथ ही यह संविधान के मूल भाग का हिस्सा न होकर एक परिशिष्ट मात्र है। यदि यह राष्ट्रपति आदेश से आ सकता है, तो राष्ट्रपति के एक आदेश से चला भी जायेगा। इस अनुच्छेद के विरोध में एक दलित-विरोधी नजरिया भी निकलकर सामने आता है। इसके अनुसार वर्ष 1957 में पंजाब राज्य से जिन वाल्मीकि परिवारों को राज्य में सफाईकर्मी के रूप में लाया गय़ा था, वे आज 71 साल बाद भी पीढ़ी दर पीढ़ी केवल सफाईकर्मचारी बने रहने के लिए अभिशप्त हैं। उनके बच्चे न तो सरकारी स्कूलों में प्रवेश पा सकते हैं और न ही राज्य सरकार में उन्हें कोई  अन्य पद के लिए चुना ही जा सकता है। वे यहां के स्थायी नागरिक तक नही हैं. इसके अतिरिक्त गुज्जर और बेकरवाल समूह के लोगों को वर्ष 1991 में राज्य में अनु. जनजाति का दर्जा मिलने के बावजूद उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा रहा है। जबकि मुस्लिमों और डागरों के बाद वे राज्य के तीसरे सबसे बड़े समुदाय हैं। बंटवारे के बाद पश्चिमी पाकिस्तान से आये 5764 हिंदू परिवारों को, जिनकी चौथी पीढ़ी शुरु हो चुकी है, को भारत सरकार की नागरिकता मिलने के बावजूद राज्य सरकार का नागरिक नहीं माना जाता है। वे आज तक यहां के शरणार्थी ही कहे जाते हैं। यह शरणार्थी अधिकार कानूनों के विरुध्द है। इसके अतिरिक्त यह नागरिकों के मूल अधिकारों मे विरोधाभास तथा केशवानंद भारती मामले में न्यायालय के आदेशों के प्रतिकूल है। इतना ही नही यह कानून भारत की एकरूपता, समता, सामाजिक न्याय के साथ-साथ अनुच्छेद 14, 21, 19 और 368 के खिलाफ है।  इस अनुच्छेद नें राज्य के भीतर राज्य, तथाकथित उपराष्ट्रवाद की भावना को जन्म दिया है। यह कानून अप्रत्यक्ष रूप से स्थानीय आतंकवाद, उग्रवाद और अलगाववाद को पाल-पोष रहा है। साथ ही अल्पसंख्यकों और आदिवासियों के सामाजिक एवं आर्थिक विकास में बाधक है। इससे राज्य के संपूर्ण विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।

इस कानून के पक्ष में बोलने वालों का कहना है कि- इसके खत्म होते ही राज्य की स्वायत्तता में कमी आयेगी, जो आजादी के बाद किए गये वादे के प्रतिकूल होगी। अन्य राज्यों के लोग यहां आकर बसने लगेंगे, जिससे जननांकीय आंकड़े प्रभावित होगें, जो कि नृजातीयता के विरोध में होगा। इस कानून के खत्म होते ही राज्य के केन्द्रीय नियंत्रण में वृध्दि हो जायेगी जो कि संविधान के संघात्मक ढ़ांचे के खिलाफ है। ज्ञात हो कि यह कोई पहला मामला नहीं है जब इस कानून को चुनौती दी जा रही हो, इससे पहले भी तीन बार- वर्ष 1956, 1961 और 1970 में माननीय सुप्रीम कोर्ट के समक्ष इसे रखा जा चुका है। भारत सरकार के मुख्य न्यायवादी ने 5 न्यायाधीशों वाली बड़ी खण्डपीठ द्वारा मामले की संवैधानिकता पर पुनर्विचार किए जाने का आग्रह किया है, जिसकी अगली सुनवाई फिलहाल यचिकाकर्त्ताओं के अनुरोध पर ही टल गई है। इस कानून के पक्ष में जम्मू- कश्मीर राज्य के सभी राजनैतिक दल ( अलगाववादी सहित) एक स्वर में बोल रहे हैं। उन्होंने राज्य में जगह-जगह बंद और विरोध- प्रदर्शनों का आयोजन किया, जिसमें कई जगह से स्थानीय लोगों और सुरक्षाकर्मियों के बीच हिंसक झड़पों की भी खबरें प्रकाश में आईं हैं। फिलहाल इस मुद्दे पर कुछ भी स्पष्ट रूप से कहना कठिन है, क्योंकि यह विषय अब तक माननीय सर्वोच्च  न्यायलय के समक्ष विचाराधीन है। वस्तुतः यही कहना पर्याप्त होगा कि- इस मसले का राजनीतीकरण किए बिना लोकतांत्रिक तरीके से स्वस्थ बहसों द्वारा संवैधानिक दायरे में हल किए जाने की जरूरत है। ताकि जम्मू- कश्मीर राज्य की कश्मीरियत और इंसानियत प्रभावित किए बिना वहां रहने वाले सभी नागरिकों के लिए बिना किसी भेदभाव, और वर्गीकरण के समान नागरिक अधिकारों और सामाजिक न्याय को सुनिश्चित किया जा सके ।