हालिया दिनों में आये शीर्ष अदालत के शीर्ष फैसले-5 (Section-497 -Adultery Law)

Posted on September 29th, 2018 | Create PDF File

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 मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली एक पीठ ने 27 सितंबर 2018 को व्यभिचार कानून पर ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए एकमत से स्त्री और पुरुष के बीच विवाहेतर संबंध से जुड़ी IPC की धारा 497 को गैर-संवैधानिक करार दे दिया है। न्यायलय ने कहा कि IPC की धारा 497 महिलाओं के सम्मान के खिलाफ है। यह कानून महिलाओं के साथ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से भेदभाव पूर्ण है। महिलाओं को भी पुरुषों के समान ही अधिकार मिलना चाहिए। उन्हें समाज की इच्छा के हिसाब से सोचने को मजबूर नही किया जा सकता। ये पूर्णता महिलाओं की निजता का मामला है । पति कभी भी पत्नी का मालिक नहीं हो सकता। सुप्रीम कोर्ट ने आश्चर्य जताते हुए कहा अगर अविवाहित पुरुष किसी विवाहित महिला के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाता है तो वह व्यभिचार नहीं होता। कोर्ट ने कहा कि शादी की पवित्रता बनाए रखने के लिए पति और पत्नी दोनों की जिम्मेदारी होती है। कोर्ट ने कहा विवाहित महिला अगर किसी अन्य विवाहित पुरुष से संबंध बनाती है तो सिर्फ पुरुष ही दोषी क्यों? जबकि महिला भी अपराध की जिम्मेदार है। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यद्यपि  व्याभिचार किसी तरह का अपराध नहीं है, लेकिन यदि इस वजह से आपका पार्टनर खुदकुशी कर लेता है, तो फिर उसे खुदकुशी के लिए उकसाने का मामला माना जा सकता है। ज्ञात हो कि- केरल के एक अनिवासी भारतीय जोसेफ साइन ने इस संबंध में याचिका दाखिल करते हुए आईपीसी की धारा-497 की संवैधानिकता को चुनौती दी थी जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल दिसंबर में सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया था और जनवरी में इसे संविधान पीठ को भेजा था। हालाँकि इससे पहले शीर्ष अदालत ने 1954,1985 और 1988 में ऐसे ही मामलों में याचिका को खारिज़ कर दिया था। 1954 के युसूफ अब्दुल अज़ीज मामले में 5 जजों की संवैधानिक पीठ की ओर से जस्टिस विवियन बोस ने कहा था कि IPC की धारा- 497 के अंतर्गत किसी महिला को अपराधी इसलिये नहीं माना जा सकता, क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 15(3) विधायिका को महिलाओं और बच्चों के कल्याण के लिये विशेष प्रावधान करने की छूट देता है। 1985 के विष्णु मामले में तीन जजों की पीठ ने 1954 के निर्णय को आधार बनाया तथा इस प्रावधान को असंवैधानिक करार देने की मांग को केवल एक ‘भावनात्मक अपील’ कहकर खारिज़ कर दिया और कहा कि दूसरे की पत्नी से संबंध बनाने वाला व्यक्ति भारतीय समाज के लिये ज़्यादा बड़ी बुराई है। 1988 के वी.रेवती बनाम भारत संघ मामले में दो जजों की बेंच ने इस कानून में लैंगिक भेदभाव की बात को खारिज़ किया और कहा कि इस कानून में पुरुष ही व्यभिचार का दोषी हो सकता है।

दरअसल भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा-497 के तहत यदि कोई शादीशुदा पुरुष किसी अन्य शादीशुदा महिला के साथ आपसी रजामंदी से शारीरिक संबंध बनाता है तो उक्त महिला का पति एडल्टरी (व्यभिचार) के नाम पर उस पुरुष के खिलाफ केस दर्ज करा सकता है। हालांकि, ऐसा व्यक्ति अपनी पत्नी के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर सकता है और न ही विवाहेतर संबंध में लिप्त पुरुष की पत्नी इस दूसरी महिला के खिलाफ कोई कार्रवाई कर सकती है। इस धारा के तहत ये भी प्रावधान है कि विवाहेतर संबंध में लिप्त पुरुष के खिलाफ केवल उसकी साथी महिला का पति ही शिकायत दर्ज कर कार्रवाई करा सकता है। किसी दूसरे रिश्तेदार अथवा करीबी की शिकायत पर ऐसे पुरुष के खिलाफ कोई शिकायत नहीं स्वीकार होगी। इस अपराध के लिये भारतीय दंड संहिता में पाँच साल की कैद और जुर्माना अथवा दोनों का प्रावधान था। यह कानून 158 साल पुराना था।